अब बहस के मुद्दे बदलो ,
कब तक झांसा दोगे तुम ,
जब जब बात चली रोटी की ,
जबरन बात बदल देते हो।
भूख , भय और बेकारी की
जब भी मैं बातें करता हूँ ,
चुपके से तुम बहका कर ,
मंदिर, मस्ज़िद पर लाते हो ,
प्यार नहीं तुमको मंदिर से ,
और नहीं मस्ज़िद पर अक़ीदा ,
दिखने में मासूम बहुत हो ,
अंदर से कितने शातिर हो.
आज मुखौटा उतर रहा है ,
कितनी बदरंगी शक्लें हैं ,
लाशों पर तुम राज करोगे
घर घर आग लगा बैठे हो,
कितनी कसमें , कितने वादें
किये थे तुमने याद है कुछ ,
फिर फिर आते उन्ही को लेकर
सारी शर्म गवाँ बैठे हो,
नहीं भरोसा तुम पर मेरा ,
आशंका से भरा बैठा हूँ ,
अब तो बहस के मुद्दे बदलो ,
कब तक झांसा दोगे तुम !!
© विजय शंकर सिंह )
इस कविता को निम्न लिंक पर आप मेरी आवाज में सुन भी सकते हैं।
https://youtu.be/gOS5nw13e60
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