भारतीय चिन्तकों के अनुसार हिरण्यगर्भी अंडाणु के स्वतः फटने से भण् की ध्वनि उत्पन्न हुई, यही सृष्टि का आरंभ था। भण् की यह ध्वनि या स्फोट (किसी चीज के फूटने या फटने से उत्पन्न) या नाद सृष्टि का आरंभ था इसलिए इसे नाद ब्रह्म या शब्द-ब्रह्म कहा गया। हँसने के आदी लोग - जिनकी कई पीढ़ियां अतीत की आसक्ति से बचा कर रखने वाली नकारात्मक शिक्षा से पैदा की गई हैं- इस पर हंस सकते हैं, परंतु हम यह सोचकर विस्मित रह जाते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रलय (Big Cruch) की कल्पना गुरुत्व की उस पराकाष्ठा को माना जिसमें समस्त ब्रह्मांड सिमट कर शून्यवत रह जाता है, और माना कि दोबारा महा विस्फोट (Big Bang) से सृष्टि का आरंभ होता है। इस धारणा मामूली बदलाव यह कि गुरुत्वाकर्षण को सही कारण न मानकर इसे चरमप्रशीतन और महाउन्मेष के परिणामस्वरूप घटित होने वाली घटना माना जाने लगा है। [1]
[1] The Big Crunch is a hypothetical scenario for the ultimate fate of the universe, in which the expansion of the universe eventually reverses and the universe re-collapses, ultimately causing the cosmic scale factor to reach zero, an event potentially followed by a reformation of the universe starting with another Big Bang. The vast majority of evidence indicates that this theory is not correct. Instead, astronomical observations show that the expansion of the universe is accelerating, rather than being slowed down by gravity, suggesting that a Big Chill or Big Rip are far more likely to occur. Wikipedia Encyclopedia.
हमारे लिए महाध्वंस और महास्फोट ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारतीय चिंता में इसे कालचक्र के रूप में ग्रहण किया गया है। महाप्रलय (महाध्वंस या बिग क्रंच) तथा महास्फोट (बिगबैंग), शून्यवत संकोच और फिर भी उसमें समस्त ब्रह्मांड का समाहित रहना और विस्फोट से ही व्यक्त हो जाना - इतनी प्राचीन भारतीय अवधारणा अत्याधुनिक विज्ञान की अवधारणा से शब्दशः कैसे मेल खाती है, किसने किससे प्रेरणा ग्रहण की है न तो इस विषय में किसी संशय की जगह नहीं, न ही इस विषय में कि अवधारणाओं की इतनी दूर तक समानता आकाश पतित नहीं होती।
हमने इस प्रसंग को इसलिए उठाया कि शून्य का महा-विस्फोट वस्तु जगत और नाद जगत का एकत्व भौतिक विज्ञानियों के लिए कोई समस्या पैदा नहीं करता। परंतु शब्द संज्ञान से जुड़ा हुआ है, विचार से जुड़ा हुआ है और दोनों का एक दूसरे के साथ अस्तित्व में आना, वस्तु (आदिकारण), क्रिया और नाद के एकीभाव को समझे बिना भाषा की प्रकृति को नहीं समझा जा सकता।
यह संभव है कि ऋग्वेद में पुरुष सूक्त ब्राह्मणों की जन्मजात श्रेष्ठता दिखाने के लिए बाद में जोड़ा गया हो, या कुछ भोंड़े रूप आदि कारण के आत्म विसर्जन या विस्फोट की अधकचरी समझ के कारण इसमें सृष्टि को नए रूप में कल्पित किया हो, परंतु हर हालत में ब्राह्मण होने के नाते भारतीय वैयाकरण पुरुष सूक्त की वर्णवादी व्याख्या करने के बाद इतने दुराग्रही हो गए कि भाषा पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान ही नहीं रखा कि ऋग्वेद में भाषा की उत्पत्ति के संबंध में किस तरह के विचार प्रचलित थे। यह तब जब व्याकरण के गहन विमर्श में वे इस प्रयत्न में डूबे थे कि शताब्दियों के परंपरा विच्छेद के बाद वे उसका अर्थ समझ सकें।
इस आग्रह के कारण उनकी व्याख्या जहाँ लंगडी रह गई, वहीं वेदों के मर्मज्ञ भर्तृहर ने भाषा विषयक अपनी व्याख्या को प्राचीन चिंता धारा से जोड़ा और यह बताया कि जिससे जो ध्वनि निकलती है वही उसका शब्द है और उससे जिस अर्थ की प्रतीति होती है वही उसका अर्थ है, इसके अतिरिक्त अर्थ का अन्य कोई कारण नहीं (यस्मिन् तु उच्चरते शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते। तं आहुः अर्थ तस्य एव नान्यत् अर्थस्य लक्षणम्।। वाक्पदीय 2.328)।
व्याख्या अवश्य कुछ दार्शनिक हो जाती है जिसके विस्तार में हम नहीं जाएंगे, परंतु संक्षिप्त परिचय यह है कि शब्द दो प्रकार के होते हैं, नित्य और कार्य साधक, कार्य साधक या व्यवहारिक शब्द के कई रूप हो सकते हैं। नित्य शब्द स्फोटात्मकः होता है, वही ब्रह्म स्वरूप है। शब्द का स्रष्टा। ( शब्दः द्विविधः. नित्यः कार्यश्च, कार्यः व्यावहारिकः, नित्यः स्फोटात्मकः। शब्द ब्रह्मात्मकश्च।)
अब हम अपनी व्याख्या पर आ सकते हैं, जो, यदि भर्तृहरि को समझने में हमसे भूल न हुई हो तो किसी क्रिया से किसी वस्तु से उत्पन्न होने वाली नैसर्गिकध्वनि, अपरिवर्तनीय है, उस वस्तु और क्रिया से इसका नित्य संबंध है, परंतु हम उसी को अपनी भाषा की ध्वनिमाला की सीमा में एकाधिक रूपों में अपने उच्चारण तंत्र से नकल करते हैं। यह उस ध्वनि का वाच्य रूप कहा जाएगा। हमारी व्यवहारिक शब्दावली उसके इसी रूप से तैयार होती है, परंतु अर्थ का स्रोत नित्य है। हम भर्तृहरि की स्थापना को इस रूप में रखना चाहते हैं कि मूल उपादान, क्रिया विशेष और उसके नाद में ही अर्थ निहित होता है और उस वस्तु के गुणधर्म, सादृश्य, विरोध, साहचर्य के आधार पर ऐसी दूसरी वस्तुओं, और सत्ताओं का नामकरण किया जाता है जिनमें से कोई भी उत्पन्न नहीं होती।
आश्चर्य केवल इस बात का है, कि इस सिद्धांत को इसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाते हुए भाषा की उत्पत्ति और विकास, जिसमें भारोपीय की उत्पत्ति और विकास भी निहित है का कभी अध्ययन करने का प्रयत्न क्यों नहीं किया गया।
हमारी अपनी स्थापना सुनने में विचित्र अवश्य लगती है, परंतु यह हमारे परंपरागत चिंतन से जुड़ी हुई है, यद्यपि इसकी ओर हमारा ध्यान कुछ विलंब से गया।
जैसा हम पहले का अलग अलग स्रोतों से अलग अलग क्रियाओं से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों में अंतर होता है, परंतु अपनी उच्चारण सीमा के कारण उनमें से अनेक को एक तरह ही सुन और बो ल पाते। सुनने में एक प्रतीत होने वाले शब्द अपने स्रोत के अनुसार अलग-अलग (समनादी या होमोफोनिक) शब्द होते हैं। परन्तु आज हम इसके विस्तार में नहीं जा सकते।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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