वह विश्व के उस वर्ग की जिसके बारे में मार्क्स ने परिभाषा दी थी उसके पास उतरती श्रम के सिवा कुछ नहीं होता की समर्पित नेता थी। सर्वहारा वर्ग के लिए अतिशय प्रेम ने उसे किसी राष्ट्रीय सरहद में नहीं बांधा था और न किसी राष्ट्रीयता का बोध होने दिया था क्योंकि वह जानती थी कि यह बोध मज़दूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे का सबसे बड़ा शत्रु बनकर खड़ा हो जाता है। उसने अपने अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय संगठन के अनुभवों से सीखा था कि सत्ता पर आधिपत्य जमाये पूंजीपतिवर्ग इस अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे के मंदिर में देशभक्ति के नाम पर एक रक्षा को बिठा दिया है जो ब्रह्मांड के समस्त मानवीय श्रम व उसकी नैसर्गिकता के ख़ून पर दानवी बनकर जीती है और उसके विनाश पर मुस्कुराती है । वह आज के ही दिन डेढ़ सौ साल पहले पोलैंड के सोमाल-मशरिख़ में जन्मी थी। लेकिन वह जितना पोलैंड की सर्वहारा की थी उतनी ही रूस की, ज़र्मनी, इटली और फ़्रांस की श्रमिक जनता के लिए भी। और उतनी ही लातिनी अमेरिका से अफ़्रीका अस्ट्रेलिया तक तीनों दक्षिणी महादेशों की गुलाम जातीयों के लिए भी फ़िक्रमंद थीं । उतनी ही भारत चीन समेत एशिया की आज़ादी के लिए भी।
वह पहली जंगेअज़ीम के नरसंहारी तांडव को देख रही थी। देख रही थी कि कौन मर रहा है, किसका लहू बह रहा है, किसके लिए बहुत रहा है। ग़रीब मज़दूरों किसानों के बेटे चाहे वह चीनोअरब के हों या हिंदुस्तान व फ़ारस के या ज़र्मनी फ़्रांस अॉस्ट्रिया तुर्की रूस इंग्लिस्तान के हों, शोषितों, उत्पीड़ितों के बेटे मज़लूमो और मुसीबतज़दों के बेटे! सब एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं किसके लिए? उसी पूँजी के लिए, उसके मालिकों के लिए जिसके बारे में मार्क्स ने बड़े ही काव्यात्मक लहज़े में बताया था कि पूंजी मृत श्रम होती है जो पिशाच की तरह जीवित श्रम का रक्त चूसकर ज़िंदा रहती है जो ख़ून और तमामतर गंदगियों के साथ शरीर के पोर पोर से गुजरते हुए नख से शिख तक नहाती रहती है। इस अंधकार युग में वह क्लासिकल सोशलिज़्म की लेनिन के साथ दूसरी सबसे बड़ी हस्ती , तेजस्विनी और ओजस्विनी साबित हुई जो अंतर्राष्ट्रीय क्रांति की मशाल जो उसकी मुट्ठी में थी लेकर शोषित पीड़ित वंचित दमितों को राह दिखा रही थी। अपने ज़माने के मशहूर मार्क्सवादी सोशलिस्ट इतिहासकार और पत्रकार फ़्रांज़ मेहरिंग ने तो इतना तक कहा था कि वह "मार्क्स के बाद सर्वोत्तम मस्तिष्क " की स्वामिनी थी। उसकी सर्वप्रिय कॉमरेड क्लारा जेटकिन , जो लेनिन की भी सर्वप्रिय थीं, ने उसै "इंक़्लाब की तेज धार और जीवंत लौ" बताया था। यहाँ तक कि लेनिन जिनसे वह रूस की क्रांति के बाद सर्वहारा की तानाशाही को सोशलिस्ट जम्हूरियत में तब्दीली के मुश्किलात पर अपनी बेइत्तफ़ाक़ी का इज़हार किया था ने उन्हें उनके आत्मोत्सर्ग के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन का "शहबाज़ (ईगल)" और उनके हत्यारों को मुर्गियाँ कहा था।
वह हर नज़रिए स्थित एक अद्भुत अकेली इंसान थी। वह पोलिश यहूदी थी, शारीरिक रूप से सौष्ठव नहीं थी लेकिन वह अदम्य मार्क्सवादी थी । उसे अपने लक्ष्यों के मार्ग में की अनेक बाधाओं को झेलना पड़ा खड़ी लेकिन वह उन्हें पारकर दुनिया के सबसे मज़बूत और विराट समाजवादीआंदोलन , जर्मन समाजवादी लोकतांत्रिक पार्टी और सेकेंड इंटरनेशनल की चोटी के नेताओं में अपने को सुमार कराने से नहीं चूकी। उसे बदक़िस्मती से छोटी ज़िन्दगी मिली लेकिन उसे उसने तेज़तर्रार तरीक़े से जिया जिसके लिए उसे न केवल ज़र्मनी के उत्कृष्ट सैनिक ताक़तों से टकराना पड़ा बल्कि काउत्स्की, ऑगस्ट बेबेल और विक्टर एडलर जैसे समाजवादी आंदोलन के स्थापित रहनुमाओं से भी लोहा लेना पड़ा।
राजनीतिक आंदोलनकर्ता के रूप में वह जहाँ एक तरफ़ साम्राज्यवादी युद्ध और पूंजीवाद के विरुद्ध आम जनता को लामबंद करने काम को अंजाम दे रही होती थी वहीं दूसरी ओर बर्लिन के पार्टी स्कूल में एक शिक्षक और सिद्धांतकार की भूमिका में मार्क्सवाद के भीतर के दोनों विचलन कट्टरतावाद और संशोधनवाद से जूझती हुई भी देखी जाती थी। 21 जनवरी 1919 को आदिम फ़ासीवादी हत्यारों ने उसके तथा उसके अनन्य कॉमरेड कार्ल लीब्नेख़्त के शरीर को टुकड़े टुकड़े कर दिए । 20 वीं सदी के ज़र्मनी में सर्वव्याप्त त्रासदियों के बीच क्रांति के उसकी क़ुर्बानी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी जो पेरिस कम्यून या उससे पहले की यूरोपीय क्रांति के बाद अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के सपनों पर दूसरी बड़ी मरणांतक घटना थी इसके बावज़ूद उसके नाम और व्यक्तित्व को, उसकी छवि की विराटता को आदर्श रूप पाने से नहीं रोक सका।
लेकिन,समाजवादी आंदोलन के लिए यह दूसरी त्रासदी है कि न सिर्फ़ उसकी क़ुर्बानी को बल्कि समाजवादी राजनीतिक सिद्धांत में उसके विशाल बौद्धिक एवं विचारधारात्मक योगदान को हाशिये पर छोड़ दिया गया।
रूस की क्रांति के संदर्भ में पूर्व और बाद में उसके दिए विचारों और सिद्धांतों को अगर समय रहते परखा जाता, उसकी पड़ताल कर अमल में लाने योग्य समझ विकसित की जाती तो न सिर्फ़ ज़र्मनी की क्रांति बचायी जा सकती थी बल्कि उसके बचने से रूसी क्रांति समेत अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रांति को भी बल मिलता। आज सोवियत संघ और पूर्व यूरोप की समाजवादी व्यवस्था अपने लोकतांत्रिक स्वरूप पाने के साथ बिखड़ने से बच जा सकती थी। ख़ुद ज़र्मनी हिटलर के नाज़ीवाद चंगुल में फंसने से रह जाता और द्वितीय विश्वयुद्ध के नरसंहार, जिसमें न सिर्फ़ ऑस्विट्च के यहूदी नरसंहार ही नहीं लबल्कि हिरोशिमा, नागासाकी और पूर्वी एशिया के नरसंहार से दुनिया बच जा सकती थी।
आज उनके विचारों और सिद्धातों के पुनर्पाठ की उतनी ही दरकार है जितना सौ साल पहले बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में था। इसलिए विश्व समाजवादी आंदोलन के लिए,उसकी विजय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उनकी प्रतिमा को सम्मान करने से अधिक उनके विचारों और सैद्धांतिक योगदान को हाशिये से केंद्र में लाने की सबसे अधिक ज़रूरत है ।
भगवान प्रसाद सिन्हा
( Bhagwan Prasad Sinha )
#vss
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