सरकार वैक्सीनेशन को लेकर फिर उतने ही कन्फ्यूजन में है, जितने कि नोटबन्दी के समय मे थी। नोटबन्दी के समय मे भी 8 नवम्बर 2016 से 31 दिसम्बर 2016 तक सरकार ने लगभग सौ आदेश जारी किये, जिनमे से कुछ तो एक दूसरे के विरोधाभासी भी थे, तो कुछ उनके भूल सुधार से सम्बंधित थे। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) से लेकर सभी, निजी सरकारी बैंकों तक, वित्त मंत्रालय के विभिन्न विभागों से लेकर सरकार के प्रवक्ताओं तक, जितने मुंह उतनी ही बातें कही जाती रहीं। पर आज तक उस 'मास्टरस्ट्रोक' का मक़सद क्या था, जनता को पता नही चला और शायद अधिकांश मंत्रियों को भी इस नोटबन्दी का उद्देश्य स्पष्ट नही हुआ है। बस वे यही दुंदुभि बजाते रहे कि गज़ब हुआ और यह न भूतो हुआ था और न भविष्य में ही कोई कर सकेगा। साल 2014 का नशा, तब तक तारी था। आज भी यही निकम्मेपन भरा कन्फ्यूजन, सरकार में कोरोना के वैक्सीनेशन को लेकर हो रहा है।
भारत के कोविड वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन डॉक्टर एन के अरोरा ने कुछ दिन पहले कहा था कि,
"कोई बेहतर साइंटिफिक प्रूफ नहीं है की वैक्सीन की दो डोज में अंतराल 8 सप्ताह से अधिक करना अच्छा है। केवल वही देश ऐसा काम कर रहें जहां वैक्सीन की कमी है।"
यानी यह अंतराल किसी वैज्ञानिक शोध और आवश्यकता पर आधारित नहीं है, बल्कि इसका कारण उन देशों में वैक्सीन की कमी है, इसलिए उन्होंने अभाव के उपचार के रूप में 8 सप्ताह के गैप का फॉर्मूला निकाला। और आज यही डॉ अरोरा इस गैप को फायदेमंद बता रहे हैं। यानी यहां भी कोई वैज्ञानिक आधार इस लम्बे अंतराल का नहीं है, बल्कि वैक्सीन का अभाव है। अब यह अभाव क्यों है ?प्रथम और द्वितीय डोज़ मे पहले यह अंतर 40 दिन का था, फिर 6 से 8 सप्ताह का हुआ अब यह और बढ़ा दिया गया। कहीं यह न कह दिया जाय कि दूसरा डोज़ अब अगले साल लगेगा ! मतलब वैक्सीन के प्रथम और द्वितीय डोज में जो फर्क है वह अभाव के सापेक्ष रहेगा।
देश में वैक्सीनेशन को लेकर यह कन्फ्यूजन क्यों है ? देश में टीकाकरण का इतिहास उपलब्धियों से भरा पड़ा है। चेचक, टीबी, पोलियो के सफल, निःशुल्क और देशव्यापी टीकाकरण अभियान सफलता पूर्वक देश मे चलाये जा चुके है, और उनके परिणाम भी देश को सुखद रहे हैं। पर आज इसी वैक्सिनेशन को लेकर इतनी भ्रम की स्थिति क्यों है ? अगर पिछले चार महीनों के सरकार के बयान देखें तो, कोई भी बयान स्पष्ट नहीं है और वे या तो परस्पर विरोधाभासी हैं, या अस्पष्ट हैं। जब कोविशिल्ड वैक्सीन की कमी होने लगी तो उसके, पहले और दूसरे डोज़ का अंतराल बढ़ा दिया गया। भारत की वैक्सीन पॉलिसी जब प्रधानमंत्री की छवि को ध्यान रखकर तय की जाने लगेगी तो जो हो रहा है वही होगा।
अब लगता है, भारत सरकार ने कोरोना वेक्सीनेशन में भी देश को बीच मझधार में लाकर खड़ा कर दिया है। उत्तरप्रदेश सरकार वेक्सीन के लिए ग्लोबल टेंडर जारी कर चुकी है। उड़ीसा ओर राजस्थान सरकार भी जल्द ग्लोबल टेंडर जारी करने जा रहे है। यही यह सवाल उठता है कि यदि ग्लोबल टेंडर राज्यो को ही जारी करना था तो यह काम पहले ही क्यों नहीं कर लिया गया। जब आग लगती है तो कुँवा खोदना सरकार की आदत में शुमार हो गया है। और जब वह कुँवा खुदने लगता है तो उसका वह श्रेय लेने के लिये आ जाती है। आग बुझे या न बुझे, या आग लगी कैसे, यह सब उसकी प्राथमिकता में रहता ही नहीं है, और गोएबेलिज़्म के शोर में शेष दब जाता है।
अब एक क्रोनोलॉजी देखिये। अगस्त 2020 में भारत सरकार ने यह निर्णय किया कि राज्य सरकारें, अपने स्तर पर वैक्सीन के संबंध में कोई भी प्रयास न करें। जितनी भी ज़रूरत होगी, वह वैक्सीन केंद्रीय स्तर पर भारत सरकार ही खरीदेगी। यह वह समय था जब दुनिया भर में वैक्सीन को लेकर शोध और ट्रायल हो रहे थे, और यूरोप और अमेरिका के कोरोना से पीड़ित देश अपने अपने देश की ज़रूरतों के अनुसार वैक्सीन के लिये ग्लोबल आदेश दे रहे थे। लेकिन उस समय भारत सरकार, सिर्फ सीरम इंस्टिट्यूट को ही कुछ वैक्सीन का आर्डर डेकर अपने चहेते टीवी चैनलों पर वैक्सीन गुरु का खिताब बटोर रही थी।
तब तक सरकार यह तय नहीं कर पायी थी, कि टीकाकरण की न्यूनतम उम्र क्या हो। बाद में तय हुआ कि हेल्थकेयर स्टाफ और अन्य पुलिस आदि जो लगातार और आवश्यक ड्यूटियों पर हैं और 60 वर्ष के ऊपर के लोगों को यह वैक्सीन लगेगी। बाद में यह उम्र घटा कर 45 साल की कर दी गयी। अब 1 मई से यह 18 साल से अधिक की हो गयी है। पर शुरू में जो ऑर्डर सीरम इंस्टीट्यूट को दिया गया था, 45 वर्ष से कम लोगो के लिए भी पर्याप्त नही था क्योंकि इन 30 करोड़ लोगों को 60 करोड़ डोज की जरूरत थी अब तक भी सरकार का कुल ऑर्डर 25-26 करोड़ से अधिक डोज का नही था। भारत बायोटेक की कॉवैक्सीन अभी परीक्षण की स्थिति में थी। अब वह भी तैयार हो गयी है।
अभी तक सिर्फ 18 करोड़ डोज का टीकाकरण हुआ है और जगह जगह से खबर आ रही है कि वैक्सीन की किल्लत होने लगी है। जब यह किल्लत बढ़ने लगी तो भारत सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया और राज्यों से कहा कि वे सीधे वैक्सीन कंपनियों से सम्पर्क करें। उसी क्रम में कुछ राज्यो ने ग्लोबल टेंडर आमंत्रित किये हैं। निश्चित ही यह भारत सरकार की नीतिगत अस्पष्टता है कि वह यह सोच भी नहीं पा रही है कि कब क्या निर्णय लेना जनहित में उचित होगा।
जहाँ अप्रेल में 25 से 30 लाख वैक्सीन का डोज प्रतिदिन लग रहा था, वही मई में यह संख्या 6 से 8 लाख प्रतिदिन तक गिर कर रह गई है, और यह आंकड़ा ओर भी घट रहा हैं। क्योंकि लगाने के लिए टीकाकरण केंद्रों पर डोज ही नही उपलब्ध हो पा रहे है। अब तो, 18 वर्ष से अधिक उम्र वालो के लिए भी वेक्सीन का अभियान चालू कर दिया गया है, जहां दो दिन में ही ढाई करोड़ रजिस्ट्रेशन हो गए थे। अभी यह क्रम चल रहा है।
भारत सरकार अब यह फैसला कर दिया है कि 1 मई से राज्य खुद ही अपने लिये वेक्सीन की खरीद करेंगे। सरकार ने सारा रायता फैला दिया और अब इसे राज्य समेंटें। उधर सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला देश छोड़ कर ब्रिटेन चले गए हैं। उन्हें अपनी जान का खतरा किसी बेहद सामर्थ्यवान अधिकार सम्पन्न राजपुरुष से है। हालांकि उनको सरकार ने वाय श्रेणी की सुरक्षा दे रखी थी। वे इंग्लैंड में ही वैक्सीन बनाएंगे और वहीं से आपूर्ति करेंगे। लेकिन, फिलहाल उन्होंने, अपना हाथ खड़े कर दिये हैं, और वे, जुलाई से पहले बड़े ऑर्डर पूरे करने की स्थिति में नहीं हैं। कॉवैक्सीन बनाने वाली, भारत बायोटेक की प्रोडक्शन क्षमता सीमित है, इसलिए राज्यो के पास ग्लोबल टेंडर आमंत्रित करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नही है।
वैक्सीनेशन पर राहुल गांधी ने कहा कि विदेशी वैक्सीन्स भी देश में मंगा ली जाएं ताकि कमी ना हो। शुरू में इस बयान का तमाशा और मज़ाक उड़ाया गया पर बाद में सरकार खुद ही विदेशों से वैक्सीन मंगाने को राजी हो गयी। अब तो राज्य भी ग्लोबल टेंडर आमंत्रित कर रहे हैं। पहले तो इस बयान पर रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि राहुल गांधी विदेशी वैक्सीन कम्पनियों के हित मे बोल रहे हैं और उनकी दलाली कर रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने पीएम को खत लिखा और कई सुझाव दिए। उस पत्र का एक अशालीन उत्तर स्वास्थ्य मंत्री ने सरकार के मंत्री की तरह से नही बल्कि एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता की तरह दिया। पर बाद में वे उन्ही विन्दुओं पर सोचने के लिये बाध्य भी हुए। लेकिन अहंकार इतना कि वह कुछ बेहतर सोचने देता ही नही है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वैक्सीन का फॉर्मूला अन्य कम्पनियों को भी बता दिया जाय ताकि वे भी बनाना शुरू करें और वैक्सीन की कमी पूरी हो जाय। पर भाजपा के नेताओ ने कहा कि यह कोई रेसिपी नहीं है कि सबको बता दिया जाय। मगर अब भारत बायोटेक ने इस सुझाव का स्वागत किया है और फॉर्मूला को शेयर करने पर सहमति जताई है।
सरकार का यह पहला कन्फ्यूजन नहीं है। यही तमाशा, काला धन, आतंकी फंडिंग्स, नकली मुद्रा, कैशलेस और लेसकैश आर्थिकी के रूप में नोटबन्दी के रूप में हुआ, यही तमाशा, साल 2020 के लॉक डाउन के दौरान बेहद शर्मनाक कुप्रबंधन के रूप में हुआ, यही तमाशा चीन की लदाख में घुसपैठ पर हुआ, जब एक कर्नल सहित 20 सैनिक शहीद हो गए और पीएम कह रहे थे कि न तो कोई घुसा था, और न ही कोई घुसा है, और अब यही तमाशा अब वैक्सीनशन में हो रहा है।
गवर्नेंस और प्रशासन में गलतियां होती हैं। आज तक कोई भी ऐसा दक्ष प्रशासक नही हुआ है जिसके आकलन में चूकें न हुयी हों। पर एक दक्ष प्रशासक वह होता है जो उन चूको से न सिर्फ आगे के लिये सीख ग्रहण करता है बल्कि उन्हें दुहराने से बचता है। सरकार के लोंगो और समर्थकों की आज बस एक ही प्राथमिकता है नरेंद्र मोदी की निजी छवि को कोई नुकसान न पहुंचे। इस प्राथमिकता से बाहर आना होगा। सच तो यह है कि सरकार गवर्नेंस के लगभग मामलो में कंफ्यूज है बस वह केवल दो मामलो में कंफ्यूज नहीं है, एक तो नरेंद्र मोदी की छवि न खराब हो और दूसरे सेंट्रल विस्टा का काम न रुकें। रहा सवाल गंगा सहित अन्य नदियों में लाशें बहती रहे, दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी से लोग मरते रहें, यह सब तो राज काज है, यूं ही चलता रहेगा, चलता रहता है।
( विजय शंकर सिंह )
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