Monday 24 May 2021

मराठा सरदार माहादजी शिन्दे

( 226 वर्ष पूर्व 12 फरवरी 1794 के दिन मराठा साम्राज्य और पेशवा ने अपने महान सरदार माहादजी शिन्दे (सिंधिया) को खो दिया था। इस अवसर पर अनीश गोखले का एक लेख प्रस्तुत है, जो बताएगा कि आज़ाद भारत में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से मराठा साम्राज्य और माहादजी शिन्दे को हमेशा काट कर ही रखा गया और इस काल खंड के बारे में कुछ बताया ही नहीं गया । )
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हम में से अधिकतर को स्मरण होगा कि हमारे विद्यालय समय मे इतिहास विषय के माध्यम से यह बात मन में स्थापित कर दी गई है कि अंग्रेज़ो को सत्ता का हस्तांतरण, सीधे मुगल साम्राज्य से हुआ था|

पानीपत की लड़ाई के बाद मराठा लगभग अस्तित्वविहीन हो गए थे, और ब्रिटिशों ने बक्सर की लड़ाई (1764) के 4 साल के अंदर ही पूरे भारत को अधिग्रहित कर लिया था| वस्तुतः यदि ऐसी पाठ्यपुस्तकों पर विश्वास किया जाए, तो भारत को जीतना बच्चों का खेल था, क्योंकि ब्रिटिशों के प्रतिकार के लिए कोई शक्ति ही नहीं थी, इसलिए उन्होंने बिना समय गंवाए भारत पर आधिपत्य कर लिया| लेकिन यह सरासर झूठ है... 

जैसा कि हमें बताया जाता है, ब्रिटिश साम्राज्य जिसने सफलतापूर्वक मुगलों से सीधे अधिपत्य प्राप्त किया... उनके बीच भीषण लड़ाईयां बहुत ही कम हुईं| केवल एक बड़ी लड़ाई (बक्सर) जिसमें न तो मुग़ल बादशाह मारा गया, न ही पकड़ा गया| मुगलों ने अपने तथाकथित साम्राज्य में कहीं और भी अपने साम्राज्य को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसका एकमात्र कारण यह है कि, वह मुग़ल नहीं बल्कि मराठा साम्राज्य था... जिसको ब्रिटिशों ने अपने अधिपत्य में लिया था| सवाल यह है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तक के लेखन के समय यह तथ्य क्यों संज्ञान में नहीं लाये गए?

50 वर्ष के संघर्ष के अंतिम चरण में 1857 में उठी चिंगारी के बाद ही, ब्रिटिश पूर्ण नियंत्रण का दावा कर सकने की स्थिति में आ पाए थे| अतः "बक्सर की लड़ाई ने ब्रिटिशों को सम्पूर्ण शक्तिशाली बनाकर अधिपत्य प्रदान किया" जैसे झूठे वाक्य तथ्य से परे, एवं मराठाओं की शक्ति के लिए अपमानजनक हैं| परन्तु भारत के महान(?) इतिहासकार हमेशा से ही मराठा साम्राज्य के प्रति पक्षपाती रहे हैं। बहरहाल, जब आप निम्न तथ्यों को पढेंगे और समझेंगे तो आपको समझ में आ जाएगा, कि भारत के इतिहास के साथ अंग्रेजों और उनके गुलाम लेखकों ने कैसा खिलवाड़ किया है.

● नाना फडणवीस, माधवराव पेशवा, महादजी शिंदे, अहिल्याबाई होल्कर :

जब हम कहते हैं कि 1765 वह वर्ष था, जब अंग्रेजो का शासन प्रारम्भ हुआ... तो हम इतिहास के बहुत बड़े कालखंड को जिसमे ऊपर चिन्हित व्यक्तित्वों का सक्रिय योगदान था उसे पूरी तरह अनदेखा कर देते हैं, 1761 से 1795 की समयावधि में भारतीय भू-भाग पर चल रही राजनैतिक गतिविधियों पर इन तीनों हस्तियों का पूरी तरह नियंत्रण था| 1791 के लगभग महादजी को भेजे एक पत्र में नाना फडणवीस कहते है कि "सातारा की तरह ही दिल्ली भी हमारे राज्य का हिस्सा है".
(१) देवी अहिल्याबाई होल्कर का योगदान भारत का सांस्कृतिक कायाकल्प है, मालवा की रानी ने कई मंदिरों, घाटों का निर्माण करवाया है।
(२). उनका यह कार्य संभव नहीं होता, यदि मराठा राजनैतिक रूप से शक्तिशाली नहीं होते।
(३). 1795 में (यानी जब पाठ्यपुस्तक के इतिहास के अनुसार, ब्रिटिशों को पूर्ण शक्ति से शासन करते हुए 30 साल हो गए थे) मराठा अपनी इंदौर, बडौदा, ग्वालियर, नागपुर, पुणे की सैन्य शक्ति को लेकर निजाम को खर्डा में सबक सिखा रहे थे|
(४) यदि ग्वालियर की बात करें, तो 1765 के बाद के समय में महादजी ने 30 लड़ाइयां लड़ी थीं, जबकि पाठ्यपुस्तक के अनुसार 1772 में सात वर्ष पश्चात् ब्रिटिश एकमात्र शक्ति थे (है ना सफ़ेद झूठ). महादजी, बूढ़े और अंधे शाह आलम को जो इलाहाबाद भाग गए थे, को दिल्ली लेकर आये थे|
(५) महादजी की इस कार्यशैली पर चर्चा एक अलग विषय है, लेकिन मुख्य बिन्दु यह है कि महादजी यह कर सकने में पूरी तरह सक्षम थे, वह महादजी ही थे जिनके शासन में उत्तर भारत पर मराठा नियंत्रण दृढ़तापूर्वक था| 

1761 से 1772 के मध्य में माधवराव पेशवा के अथक निरंतर प्रयासों से उनके नेतृत्व में दक्षिण भारत में पुनः मराठा साम्राज्य स्थापित हो गया था| हैदर अली पर प्राप्त की गई जैसी कई ऐतिहासिक जीत दर्ज की गयी थीं| 1770 तक सिंधिया के साथ मिलकर माधवराव पेशवा ने मराठा साम्राज्य का प्रभाव क्षेत्र रोहिलखण्ड तक पंहुचा दिया था| पेशवा का 1772 में 27 वर्ष की अल्प अवस्था में रोग के कारण निधन हो गया था । ग्रांट डफ ( Grant Duff ) के शब्दों में 
"युवा पेशवा का निधन पानीपत में हुए वज्रघात से कहीं अधिक घातक सिद्ध हुआ". 
अब यह सत्यापित हो ही चुका है, कि मराठा 1765 के बाद भी कई वर्षों तक मुख्य शक्ति के रूप में स्थापित रहे, हम वापस मुख्य विषय पर लौटते हैं.

यह सत्य है कि मराठा और ब्रिटिशों के मध्य शत्रुता 1760 के दशक के शुरुवाती वर्षों में ही प्रारम्भ हो गयी थी| अगले 50 सालों में इनके बीच में 3 युद्ध लड़े गए, ये लड़ाईयां दिल्ली से लेकर सोलापुर, गुजरात, कटक तक लड़ी गयीं. एक स्पष्ट गलती इस पृष्ठ पर यह है कि 
"उड़ीसा का राज्य ब्रिटिशों के पास प्लासी की लड़ाई के बाद आ गया था"| 
यह पूरी तरह सत्य नहीं है, क्योकि बहुत थोड़े से क्षेत्र को छोड़कर पूरा उड़ीसा मराठा साम्राज्य का हिस्सा था| 1751 से उड़ीसा नागपुर के भोसले शासकों के संरक्षण में था| उड़ीसा 1803 की देवगांव संधि के बाद ही ब्रिटिशों के पास आ पाया था| लेकिन यह सब सच्चाई लिखने के लिये कुछ इतिहासकारों को यह भी बताना पड़ता, कि कैसे भोंसले सतारा से नागपुर और फिर कटक तक आये। उन्होंने इससे बचने के लिए 1765 को ब्रिटिशों का विजयी वर्ष घोषित करके सच्चाई से मुँह मोड़ लिया| जैसा कि पहले बताया गया है, कि ब्रिटिशों और मराठों के मध्य तीन युद्ध हुए है, अब हम विस्तार जानेगे कि कैसे यह तीन युद्ध जिसमें दो पीढ़ियाँ, हजारो सैनिक, संसाधन लगने के बाद ही ब्रिटिशों को भारत का शासन मिल पाया... ना कि एक कमजोर मुग़ल सेना को एक दिन मैं बक्सर की लड़ाई के बाद हराने से आसानी से मिल गया|

● प्रथम एंग्लो - मराठा युद्ध

पहला एंग्लो मराठा युद्ध रघुनाथराव का ब्रिटिशों से मिलकर नाना फडनविस् की राजसत्ता को सीधे चुनौती देने कर परिणाम था, ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुणे पर नियंत्रण के लिए जोरदार प्रयास किये थे, किन्तु नाना और महादजी शिंदे ने इस प्रयास को सफल नहीं होने दिया| पुणे के निकट कई छुटपुट झड़पें हुईं जिसमे एक बड़ी लड़ाई वडगाव में 1779 को हुई थी, जिसका विजय स्तम्भ आज भी देखा जा सकता है. यह रोमांचक विजय यात्रा मुख्यतः उन स्थानों पर हुई जो वर्तमान में मुंबई-पुणे मार्ग पर पड़ते हैं, कई और लड़ाइयां हुईं जो सालबाई की संधि के साथ समाप्त हुईं| इस संधि के बाद मराठा नियंत्रण साल्सेट (वर्तमान मुंबई) व कुछ अन्य स्थानों को छोड़कर पुनः प्रतिस्थापित हो गया| यह युद्ध नाना फडणवीस और महादजी सिंधिया की जोड़ी के कूटनीतिक एवं रणनीतिक कौशल का श्रेष्ठ उदाहरण था| यह ब्रिटिशों की बड़ी हार थी, इसके बाद वो मुंबई के छोटे से क्षेत्र में खदेड़ दिए गए थे| कुछ इतिहासकार यह लिखेंगे ही नहीं, क्योकि उन्होंने 1765 में ही ब्रिटिशों को महाशक्ति(?) घोषित कर दिया था|

1789 के सितम्बर माह में नाना फडणवीस ने नागपुर के मुधोजी भोंसले, हैदराबाद के निज़ाम, हैदर अली के साथ साझा गठजोड़ बनाकर साथ मिलकर ब्रिटिशों के मुंबई, कोलकाता के ठिकानों पर आक्रमण की योजना बनाई थी किन्तु दुर्भाग्य से इसमें पूरी सफलता नहीं मिल सकी. मराठा और ब्रिटिशों के मध्य कल्याण, पनवेल, मलंगगढ़, वसई, कोहोज, गंभीरगढ आदि स्थानों पर कई छुटमुट संघर्ष हुए और निर्णायक युद्ध पुणे के निकट भोरघाट को बचाने के लिए हुआ, इस तरह प्रथम एंग्लो मराठा युद्ध अक्षुण्ण मराठा सीमाओं के साथ समाप्त हुआ और ब्रिटिशो को फिर से संघर्षमय स्थिति में आने में अगले बीस साल लगे (1872 की पुरंदर संधि)| इन बीस वर्षों में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम घटित हुए| महादजी शिंदे ने मराठा भगवा ध्वज लाल किले की प्राचीर पर प्रस्थापित कर दिया, रोहेलखण्ड में मराठा साम्राज्य का विस्तार हुआ और जैसे कि पहले ही बताया गया, साझा गठबंधन बनाकर खर्डा की लड़ाई में निजाम को पराजित कर दिया| इसी समयावधि में अहिल्या बाई होल्कर के साम्राज्य का सूर्य उदीयमान हुआ जिसने पिछली पीढ़ियों की बनाई गयी राजनितिक धरातल पर धर्म और संस्कृति की सुदृढ़ इमारत खड़ी की| 

● द्वितीय एंग्लो - मराठा युद्ध

1803 वह वर्ष था, जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिशों का राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित हो गया था| क्या यह मात्र पाठ्यपुस्तकों में 1765 के स्थान पर 1803 लिख देने जैसा ही आसान था ? बिलकुल भी नहीं| 1765 से 1803 के बीच घटी घटनाओं और उनसे जुड़े हुए व्यक्तित्वों का विश्लेषण किये बिना किसी निष्कर्ष पहुंचना न्यायोचित नहीं होगा| मराठा सरदारों के बीच दरार तो 1770 में ही आ गयी थी, जो 1802 तक आते आते चौड़ी हो गयी थी, कई प्रभावशाली व्यक्तित्वों जैसे नाना फडणवीस, महादजी शिंदे, सवाई माधवराव, अहिल्याबाई होल्कर का पिछले ७-८ साल में निधन हो चुका था| अंतर्विरोधों के चलते नए पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पुणे के महल को बचाने के लिए ब्रिटिशों से सहायता की गुहार लगायी, जिसकी फलश्रुति वसई की संधि के रूप में हुई जिससे पेशवा की हैसियत ईस्ट इंडिया कंपनी के जागीरदार के सामान रह गयी थी| बाजीराव द्वितीय स्वयं इस संधि से प्रसन्न नहीं थे, इसी अप्रसन्नता ने दुसरे युध्द की चिंगारी को प्रज्वलित किया| जनरल गीयर्ड लेक के प्रति उत्तर भारत में, और जनरल ऑर्थर वेस्ले के प्रति दक्षिण भारत में असंतोष बढ़ता जा रहा था| दौलतराव शिंदे ने ब्रिटिशों से युद्ध का निर्णय लिया और थोड़ी लुकाछिपी के बाद दोनों सेनाओं का अहमदनगर में अजंता गुफाओं के पास आस्ये नामक जगह पर आमना-सामना हुआ, इस लड़ाई में वेस्ले विजयी हुआ, जो बाद में Battle of Assaye के नाम से प्रसिद्ध हुई| आपने नेपोलियन और वाटरलू के बारे सुना होगा लेकिन क्या कभी आस्ये युद्ध के बारे में सुना ?... नहीं सुना होगा जबकि स्वयं वेस्ले जो दोनों युद्धों में लड़ चुका था, इसे कठिनतम लड़ाइयों में से एक स्वीकार करता था|

● दिल्ली, आगरा, अलीगढ

उत्तर भारत में घटनाक्रम कुछ नाटकीय मोड़ ले रहा था| दिल्ली के अंधे मुग़ल सम्राट शाह आलम ने अंग्रेज जनरल लेक को मराठा शक्ति के विरुद्ध लड़ने के लिए आमंत्रित किया, जैसे कि हम पहले ही देख चुके हैं कि ग्वालियर के शिंदे का दिल्ली पर पूरी तरह नियंत्रण था, लाल किले की प्राचीर पर भगवा ध्वज फहरा रहा था| प्रतापगंज (लाल किले से आठ मील की दूरी पर दिल्ली का एक उपनगर) में मराठा और ब्रिटिश सेनाओं में संघर्ष हुआ| दिल्ली की रक्षा करते हुआ दौलतराव शिंदे के हजारों सैनिक शहीद हो गए. इतिहासकारों द्वारा बक्सर की लड़ाई में चालीस साल पहले घोषित कर दी गयी महाशक्ति (ब्रिटिश) छोटी-मोटी लड़ाइयां लड़ रही थी| अगली लड़ाइयां अलीगढ और आगरा में हुई, किसके विरुद्ध? जी हाँ, वही मराठे| यदि बक्सर की लड़ाई को ही एकमात्र अंग्रेजों की महाविजय माना जाये, तो यह (आगरा, अलीगढ, दिल्ली) जैसे महत्वपूर्ण शहर और किले अंग्रेजों के नियंत्रण में स्वतः ही आ जाने चाहिए थे, लेकिन इन पर नियंत्रण के लिए लड़ाइयां लड़नी पड़ी और अपने सैनिको का बलिदान देना पड़ा| आगरा का किला, जिसमे छत्रपति शिवाजी का अपमान हुआ था अंग्रेजों के आक्रमण के समय एक मराठा छावनी के नियंत्रण में था| दौलतराव शिंदे ने अपने बचे हुए सैन्यबल को एकत्र कर लसवारी में ब्रिटिशों से फिर मोर्चा लिया, इसमें नागपुर के भोसले का भी साथ मिला| यह अलवर के पास लड़ी गयी एक कठिन लड़ाई थी, इसके बाद यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिशों की उत्तर भारत पर पकड़ मजबूत हो गयी थी| उधर पेशवा बाजीराव प्रथम और मस्तानी का पोता अली बहादुर लगभग पूरे बुंदेलखंड पर अपना नियंत्रण कर चुका था। 1792 से 1802 के बीच उसका इस क्षेत्र पर जबरदस्त नियंत्रण था और माहादजी या दौलतराव शिन्दे भी उसके मामलों में दखल नहीं देते थे। 1802 में अली बहादुर की मृत्यु के बाद अंजनगांव में हुई शिंदे और ईस्ट इंडिया कंपनी की संधि के तहत बुंदेलखंड का नियंत्रण अंग्रेजो के पास चला गया।

अब अंग्रेजो का ध्यान पूरी तरह नागपुर के भोसले की ओर था. गाविलगढ़ और आड़गाव में दोनों के बीच लड़ाइयां भी हुईं| उड़ीसा के कटक और सम्बलपुर की मराठा छावनी ,किलों पर भी लड़ाइयां हुईं| 1804 में ब्रिटिशों और नागपुर के भोंसले के मध्य देवगांव की संधि हुई, इसके तहत आज के उड़ीसा प्रदेश का नियंत्रण ईस्ट इंडिया कंपनी के पास चला गया| अब यदि NCERT पर विश्वास किया जाए तो ब्रिटिशों को उड़ीसा और बुंदेलखंड का नियंत्रण सीधे मुग़ल शाह आलम से ही मिल गया था, जबकि वास्तविकता यह है कि उड़ीसा और बुंदेलखंड ब्रिटिशों के नियंत्रण में मराठों से हुई संधियों के पश्चात ही जा पाए थे|

● यशवंतराव होल्कर

अब हम द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध के अंतिम चरण पर दॄष्टि डालते हैं, यशवंतराव होल्कर ही वह मराठा सरदार थे जो 1811 में हुई अपनी मृत्यु तक निरंतर अंग्रेजों से संघर्षरत रहे| उन्होंने नागपुर के भोसले और शिंदे के साथ मिलकर रणनीतिक गठजोड़ का प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हो सका, जब ग्वालियर और नागपुर ने अंग्रेजो से संधिया कर लीं तब होल्कर ने स्वयं ही ब्रिटिशों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया| 1803 के बाद जब ग्वालियर और नागपुर का पतन हो गया तब होल्कर ने ब्रिटिशों को गंभीर चुनौती प्रस्तुत की थी, उन्होंने चम्बल नदी के पार टोंक और रामपुरा पर नियंत्रण कर लिया, इसके बाद दिल्ली पर कई आक्रमण किए और पूरे दोआब क्षेत्र में जनरल लेक की नाक में दम कर दिया. उसके बाद पश्चिम में भरतपुर के राजा से गठजोड़ से पहले फर्रुखाबाद पर भी आक्रमण किया| डींग के मजबूत किले की घेराबंदी का तीन महीने तक डटकर सामना किया, तत्पश्चात उत्तर में पंजाब की और बढ़े किन्तु सैनिकों व सहयोगियों के भाव में राजघाट की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए| NCERT की पुस्तकों में कहीं भी आपको यशवंतराव होल्कर का उल्लेख ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा|

● तृतीय एंग्लो मराठा युद्ध -

अभी तक हम देख चुके हैं कि कैसे ईस्ट इंडिया कंपनी स्वयं को 1803 में भारत में सबसे शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित कर पाई, ना कि 1764 के बक्सर युद्ध में... मुग़ल शासक की पराजय के बाद। | हम यह भी देख चुके हैं कि अंग्रेजो ने भारत पर नियंत्रण मुगलों के पराभव के बाद 40 वर्षों तक कई लड़ाइयों के पश्चात मराठा शक्तियों से प्राप्त किया था| अनगिनत संघर्षों व अविस्मरणीय युद्धों जैसे वडगाव, दिल्ली, आस्ये, लस्वारी के बाद ही ब्रिटिश शासन स्थापित हो पाया था| बाजीराव द्वितीय के द्वारा की गयी वसई की संधि 1806 की लड़ाई का कारण बनी थी, जिसके बाद मराठा साम्राज्य केवल पुणे और आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों तक सीमित रह गया था, इसके कारणों का विश्लेषण किसी अन्य लेख के माध्यम से करेंगे| अंतिम युद्ध तुलनात्मक रूप से छोटा और मराठा साम्राज्य को पुनर्जीवित करनें में समर्थ नहीं था, अब हम उसी पर प्रकाश डालेंगे. 1806 के बाद के वर्ष बाजीराव द्वितीय की उथल पुथल वाली राजनीती में व्यतीत हो गए, 1816 के लगभग बाजीराव ने अंग्रेजों को भगाने के लिए कुछ गंभीर प्रयास करना आरम्भ किया, पेशवा ने गठजोड़ के लिए नेपाल और बर्मा को पत्र लिखे, राजदूतों को विभिन्न राजदरबारों में भेजा| पुणे के अंग्रेज कमिश्नर एल्फिस्टन को पिंडरियों के विरुद्ध आवश्यकता बताकर हजारों सैनिकों की भर्ती कर ली. जबकि यह सैनिक अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध के लिए ही भर्ती किये गए थे. बापू गोखले को इस सेना का सेनापति बनाया गया| मराठा सेना ने अपना डेरा गारपीर में ब्रिटिश सेनाओं के पास बनाया, इसके बाद ब्रिटिश पीछे हटे और खड़की में अपनी छावनी बनायीं (यह छावनी स्थाई हो गयी और वर्तमान में भी भारतीय सेना की भी यह छावनी है)| जिस स्थान पर आज पुणे विश्वविद्यालय है वहां पाँच नवंबर को दोनों सेनाओं का सामना हुआ, पेशवा पर्वती (वर्तमान में पुणे का एक उपनगर) से लड़ाई को नियंत्रित कर रहे थे, जो कि एक सामरिक गलती सिद्ध हुई जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिशों की विजय हुई| कुछ ही दिनों में शनिवारवाडा जो पेशवा की गद्दी थी, वहाँ ब्रिटिश ध्वज लहरा रहा था|

बाजीराव पेशवा सह्याद्रि पर्वतमाला की ओर चले गए. कुछ लेखक इसे लड़ाई छोड़ कर भागना कहते हैं, जबकि कुछ के अनुसार यह एक रणनीतिक कदम था| 1818 में कोरेगांव भीमा में लड़ाई हुई जो बिना किसी ठोस परिणाम के ही समाप्त हो गयी| ब्रिटिश सह्याद्रि अंचल में बाजीराव का पीछा करते रहे और अंततः सोलापुर के पास अष्टि नमक स्थान पर संघर्ष हुआ. बाजीराव की सेना बापू गोखले के नेतृत्व में वीरतापूर्वक लड़ी, किन्तु गोली लगने से बापू गोखले मारे गए और मराठा साम्राज्य का पटाक्षेप हो गया|

इस तरह यह स्पष्ट है कि ब्रिटिशों को मराठा साम्राज्य को समाप्त करने, तथा भारतीय उपमहाद्वीप पर नियंत्रण करने में तीन युद्धों का सामना करना पड़ा. यह तीनों युद्ध उन्होंने मराठा शक्तियों से लड़े, ना कि मुगलों से. तात्पर्य यह भी है कि वास्तव में अंग्रेजों का पूरे भारत पर साम्राज्य 1818 के बाद ही स्थापित हो पाया. इस हिसाब से देखें तो अंग्रेजों ने केवल 130 वर्ष ही शासन किया, ना कि दो सौ वर्ष. लगभग 55 वर्षों तक मराठाओं ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए, जिसका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं मिलता।

© अनीश गोखले 
( मराठा इतिहासकार )
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