Monday 17 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 31.

अब कुछ विवादों से गुजरना होगा। दुनिया में हो रही घटनाएँ संयोग ही होती हैं, किंतु हर संयोग की संभावना घटाई या बढ़ाई जा सकती है। भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश में आया समाजवाद मिश्रित तानाशाही बुलबुला एक साथ बड़े ही क्रांतिकारी अंदाज़ में ध्वस्त होना क्या एक ऐसा ही संयोग था? यह सब आखिर 1975 से 1977 के मध्य लगभग एक साथ ही क्यों हुआ? 

हाल में उभर रहे तथ्य यह इशारा करते हैं कि शेख़ मुजीब-उर-रहमान की हत्या के पीछे सी. आइ. ए. का हाथ था। इस तख़्ता-पलट के मुख्य सूत्रधार जिया-उर-रहमान ने सी.आइ.ए. एजेंट से मुलाक़ात की थी। उनके सत्ता में आते ही बांग्लादेश ने अमरीका और चीन से संबंध बनाने और सोवियत से मुँह मोड़ना शुरू कर दिया। योजना कामयाब रही। 

जिया-उल-हक़ और भुट्टो की चर्चा आगे करुँगा। किंतु एक बात तो तय थी कि भुट्टो अब अमरीका के लिए उपयोगी नहीं रह गए थे। उनका समाजवाद अमरीका के ‘स्कीम’ से मेल नहीं खाता था। उन्होंने सीटो (SEATO) से अलग होकर और उत्तर कोरिया को मान्यता देकर पूर्ण रूप से कम्युनिस्ट-पक्षधरता दिखा दी थी। 

भारत इन दोनों देशों से कहीं बड़ा है, और भारतीय राजनीति का फलक भी विस्तृत है। भारत में कोई सैन्य तख़्ता-पलट नहीं, बल्कि जन-आंदोलन हुआ। लेकिन गाहे-बगाहे जन-आंदोलनों पर भी उंगलियाँ उठती ही रहती हैं कि उनके पीछे विदेशी हाथ तो नहीं? 

यह बात भी बाद में खुल कर सामने आयी कि सी. आइ. ए. भारत में बाक़ायदा पत्रिकाएँ चला रही थी, जो साम्यवाद के विरोध में थी। यह कोई अजूबी बात नहीं थी क्योंकि कई पत्रिकाएँ केजीबी द्वारा भी गुप्त-रूप से संचालित या पोषित थी।

भारत के यहूदी बुद्धिजीवी निसीम इजेकिएल की पत्रिका थी ‘क्वेस्ट’, जो नेहरू-विरोध और सोवियत-विरोध में लिखती रहती थी। वह सीआइए पोषित सांस्कृतिक आंदोलनकारी पत्रिका थी। इस पत्रिका के खेमे में मीनू मसानी और जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्ति भी थे। जब सोवियत ने हंगरी में अतिक्रमण किया तो जयप्रकाश नारायण खुल कर नेहरू-विरोध में आए थे। वह मानवाधिकार आधारित था, किंतु विश्व-मीडिया में अपनी बात रखना देशद्रोह से लेकर अमरीकावादी कथन रूप में देखा गया। कांग्रेस द्वारा उन पर सीआइए के एजेंट होने के आरोप लगे, वहीं इंदिरा गांधी पर केजीबी एजेंट होने के आरोप लगते रहे। 1975 में इंदिरा गांधी ने इस सीआइए पोषित पत्रिका ‘क्वेस्ट’ को बैन कर दिया, जो आज तक बंद ही है। 

बाद में किसिंगर ने यह कहा कि इंदिरा गांधी सरकार में उनके सूत्र मौजूद थे। यह सूत्र कोई भी हो सकता है। किसी राजनेता या ब्यूरोक्रैट को डॉलरों का प्रलोभन देकर ख़रीदना कोई आश्चर्य नहीं। पुलित्जर पुरष्कृत पत्रकार हर्षी सीमौर ने अपनी किताब में मोरारजी देसाई को यह एजेंट बताया। मोरारजी ने उन पर मान-हानि मुकदमा किया, लेकिन हार गए। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि अमरीका और भारतीय पूँजीपति इंदिरा गांधी के राष्ट्रीयकरण से खार खाए थे। मोरारजी देसाई की स्वतंत्र पार्टी पूँजीपतियों द्वारा पोषित और समर्थित थी। वहीं, जनसंघ तो सदा से साम्यवाद-विरोधी और अमरीका-पक्षधर था ही। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में इन खेमों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, और कम्युनिस्ट शुरू में कन्नी काटते रहे (देखें: जेपी नायक से लोकनायक तक)। 

तो क्या यह संपूर्ण क्रांति सीआईए के योजना का हिस्सा थी? अगर ऐसा था, तो जनता पार्टी की सरकार आते ही जॉर्ज फ़र्नांडीस ने आइबीएम और कोका कोला को देश से निकाल बाहर क्यों किया? आज भले ही यह कहा जा सकता है कि इस क्रांति के बाद दक्षिणपंथ मुख्य राजनीति में आया, और अब भारत अमरीका-विमुख या पूँजीवाद प्रधान देश बनने की ओर है। लेकिन, सीआइए ने इतने दूर की सोची थी, यह बात सही नहीं लगती। यूँ भी बाज़ार को खोलना और उदारीकरण राजीव गांधी के समय ही शुरू हो गया था, जो नरसिंह राव के समय पूरी तरह रंग में आ गया। सबसे बड़ा तथ्य तो यह कि सोवियत स्वयं ही विखंडित हो गया, और साम्यवाद भरभरा कर गिर गया था। विकल्प ही क्या बचा था?

लेकिन, इतिहास को विद्यार्थी की नज़र से देखते हुए मैं भारतीय उपमहाद्वीप में हो रहे इस विप्लव को महज़ संयोग नहीं मानता। यह ज़रूर मुमकिन है कि इस विप्लव में शामिल अधिकांश व्यक्तियों और जनता को यह मालूम नहीं था कि धागे कहीं और से भी खींचे जा रहे हैं। इसे लोग अपनी-अपनी पक्षधरता और सहूलियत से देख सकते हैं, लेकिन इतिहास किसी एक की तरफ़ कहाँ होता है! 

अमरीका और सोवियत ने दुनिया में कई ‘केओस’ (chaos) पैदा किए, जिसके परिणाम उन्हें भी नहीं मालूम थे। मसलन पाकिस्तान तो एक ऐसी गले की हड्डी बना, जिसे न वे निगल पा रहे थे, न उल्टी कर पा रहे थे। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
(Praveen Jha)

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 30.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/30.html
#vss

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