फरवरी, 1946 का तीसरा सप्ताह भारत की आज़ादी के इतिहास में वही स्थान रखता है जो स्थान आमतौर पर अगस्त, 1942 के दूसरे सप्ताह का है। प्राय: इतिहासकारों ने और सत्तासीन राजनीतिक वर्ग ने देश की आज़ादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति को निर्णायक भूमिका प्रदान की है। आज़ादी की लड़ाई में मील का अंतिम पत्थर माना है। लेकिन सच्चाई इससे आगे तक जाती है।
आज़ाद हिंद फ़ौज़ की शिकस्त के बाद भी भारतीय सेना पर, ख़ासकर नौसेना पर पड़नेवाले प्रभाव 1942अगस्त क्रांति के बाद का वह पड़ाव है जिसने ब्रिटिश हुकूमत पर देश को आज़ाद करने का निर्णायक प्रभाव डाला था। इसे ख़ुद ब्रिटिश सरकार , ख़ासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली की उन दो घोषणाओं के बीच के विरोधाभास और उनके अंतराल को देखकर भी समझा जा सकता है। 18 फरवरी 1946 को नौ सेना के नाविकों ने अपनी मांगों के लेकर बग़ावत की थी। यह वह काल खंड था जब अंग्रेजी हुकूमत और भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के बीच सत्ता हस्तांतरण की सुगबुगाहट देखी जा रही थी। नौसेना के विद्रोह ने अचानक उसे निर्णायक मोड़ पर ला दिया। एटली ने इस विद्रोह के पूर्व दिये गए अपने पिछले वक्तव्य कि भारत की आज़ादी पर अभी दो तीन साल तक विचार सरकार की कार्यसूची से बाहर है को विद्रोह के बाद तुरंत पलटते हुए हाउस ऑफ़ कॉमन्स में एलान किया कि भारत को तुरंत आज़ादी देने के लिए सरकार ने फ़ैसला कर लिया है। इसकी तस्दीक़ बीबीसी ने रेहान फ़ज़ल द्वारा प्रस्तुत विवेचना कार्यक्रम में बंगाल के राज्यपाल के स्वागत समारोह में एक सवाल के ज़वाब में एटली के बयान के हवाले से भी की है । जब एटली से किसी ने सवाल किया था कि गाँधी के भारत छोड़ो आंदोलन का भारत को आज़ादी देने के आपके फ़ैसले पर कितना असर था तब एटली ने ज़वाब दिया था कि भारत छोड़ो आंदोलन का इस फ़ैसले के लिए मुझ पर कोई असर नहीं था। यह फ़ैसला हमने तब लिया जब नौसेना के विद्रोह के बाद हमें लगा कि आज़ादी के सवाल को अब टाला नहीं जा सकता। सन् 1857 की बग़ावत के इतिहास उदाहरण के रूप में हमारे सामने खड़े हो गए थे।
उस वक़्त अगस्त क्रांति के दमन और आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की शिकस्त में अंग्रेज़ों को मिली लगातार दो सफलताओं के बाद भी आख़िरकार नौसेना के विद्रोह में अंग्रेजों को क्या दिखाई दिया जो उन्हें भारत को तुरत आज़ाद करने का फ़ैसला लेना पड़ा ? इतिहासकारों और राजनीतिक सत्ता के कर्णधारों दोनों ने इस सवाल से क्यों किनाराकशी कर ली जिस कारण पूरी घटना की ही तारीख़ी अहमियत और किरदार को कमतर बना कर पेश किया है ?
इसके अतिरिक्त, प्रसिद्ध ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार, चिंतक, नेता और ब्रिटिश राजनीति में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सबसे प्रबल पक्षधर रजनी पाम दत्त ने शाही नौसेना (RIN) के विद्रोह को अपने महाकाव्यात्मक ग्रंथ, इंडिया टुडे " India Today " में विश्व की विभिन्न महान क्रांतियों में हिरावल दस्ते के रूप में नाविकों की भूमिका से तुलना की है। 1905 की रूसी क्रांति में पोतेम्किन,, 1917 में "क्रोंस्तात" और 1918 में ज़र्मनी के "कील (नहर) विद्रोह की जो ऐतिहासिक भूमिका थी अंग्रेज़ों और भारतीय राष्ट्रीय नेताओं को महसूस हो रहा था कि बंबई के " तलवार " जहाज पर भारतीय शाही नौसेना का यह विद्रोह उसी लक्षण के साथ प्रकट हो रहा है।
"तलवार" युद्धपोत पर 18 फरवरी को शुरू यह विद्रोह बंबई में एक दर्जन तटवर्ती प्रतिष्ठानों और बंदरगाह पर खड़े 20 जहाजों तक पसर गया। और इनमें सभी 20 हजार नाविकों ने हिस्सा लिया। जहाज के मस्तूल पर अंग्रेज़ी झंडा यूनियन जैक को उतार दिया गया और उसकी ज़गह कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झंडे फहराये गए।
शहर में नाविकों ने इन दो झंडे के साथ साथ कम्युनिस्ट पार्टी के लाल झंडे को भी हाथ में लेकर "जयहिंद", "इंक़्लाब ज़िंदाबाद", "हिंदू मुस्लिम एक हो", " ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद" "आज़ाद हिंद फ़ोज़ के बंदियों को रिहा करो", "इंडोनेशिया से भारतीय सेना वापस हो" आदि नारे के साथ बंबई की सड़कों पर जुलुस निकाले।
यह विद्रोह तब और उनकी चिंता का कारण बनता चला गया जब यह अपने केंद्र बंबई से करांची, कोलकाता, विशाखापट्टनम और मद्रास की गोदी तक फैल गया। साथ ही यह बात भी सामने आने लगी कि जिस युद्धपोत "तलवार" पर यह विद्रोह शुरू हुआ वहाँ दिसंबर में ही " Quit India ", Imperialism Down Down" आदि नारे लिखे पाये गए थे । नारे तो मिटा दिए गए थे लेकिन उस संगठित शक्ति का पता नहीं चल सका था जिनके द्वारा ये नारे लिखे गए थे। अब उन्हें लगने लगा कि नौसेना का यह विद्रोह महज "दाल और भात की मात्रा बढ़ाने" को लेकर नहीं था ।
कराँची में "हिंदुस्तान" नामक युद्धपोत पर बाद में सशस्त्र संघर्ष की भी घटनाएं दर्ज़ की गई।
हमारे जनपद बेगूसराय के लिए गौरव की बात है कि इस ऐतिहासिक क्रांतिकारी विद्रोह में यहाँ के निवासी कोमोडोर वाईएन सिंह, "तलवार" युद्धपोत पर थे और विद्रोह में हिस्सा लिया तथा जेल की सज़ा के हक़दार बने। बाद में वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में शामिल हुए, जिला मंत्री बने तथा बिहार राज्य कमेटी के सदस्य भी रहे थे।
विद्रोही नेताओं ने शुरू से ही लीग और कांग्रेस के भारतीय राष्ट्रीय नेताओं से संपर्क साधकर समर्थन और व्यवहारिक मदद मांगी लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। लेकिन बंबई की जनता का इन्हें अपेक्षित समर्थन मिला। उन्होंने अपने घर से खाना बनाकर जहाजों पर पहुँचाया।
आंदोलन का तेजी से इस क़दर विस्तार देख ब्रिटिश अधिकारी भौंचक्का रह गए। उन्होंने जबरदस्त दमन के हथियार के रूप में बंबई और कराँची को सेना के हवाले कर दिया। लेकिन जब देसी जवानों ने गढ़वाली टुकड़ी की तरह अपने हड़ताली भाइयों पर गोली चलाने में आनाकानी की तो अंग्रेज़ी सैनिकों को तलब किया गया। अंग्रेज़ी सैनिकों के पहुँचते ही 21 फरवरी के दिन Castle Barack के बाहर सात घंटे तक लगातार घमासान युद्ध चलता रहा। उसी दिन शाम को एडमिरल गाडफ़्रे ने रेडियो पर एलान किया कि हम पूरी ताकत झोंक देंगे तुमसबको तबाह करने में भले इसके लिए हमारी पूरी शाही नौसेना बर्बाद ही क्यों न हो जाय। यह उसका क्रांतिकारी विद्रोहियों के लिए अल्टीमेटम था।
क्रांतिकारी विद्रोहियों की नेतृत्वकारी बॉडी "केंद्रीय नौसेना हड़ताल कमेटी" ने इस अल्टीमेटम के ज़वाब में राष्ट्रीय नेताओं और बंबई की जनता से समर्थन मांगा। उसने शांतिपूर्ण हड़ताल की अपील की। परंतु कांग्रेस की तरफ़ से वल्लभ भाई पटेल ने न सिर्फ इस अपील का समर्थन करने से इंकार कर दिया बल्कि इसके ख़िलाफ़ सख़्त हिदायतें भी ज़ारी कीं।
दूसरी तरफ़ मज़दूर संगठनों और कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन की घोषणा की। 22 फरवरी को मज़दूरों ने नाविक देशभक्तों के समर्थन में जबरदस्त हड़ताल की। हड़ताल बहुत ही व्यापक थी।
सरकार ने भी जनआंदोलन के बढ़ते सैलाब को थामने के लिए कमर कस ली। 21 से 23 फरवरी तक के सरकारी आँकड़े के मुताबिक़ 250 लोग शहीद कर दिए गए।
इतना बड़ा क्रांतिकारी उत्थान सफल नहीं हो सका क्योंकि जिन राजनीतिक शक्तियों के बूते इन्होंने संग्राम शुरू किया था , यूनियन जैक उतारकर जिनके झंडे लहराये थे उन दोनो शक्तिशाली संगठनों- कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अंग्रेज़ों के साथ अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए इनका साथ नहीं दिया, दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी तथा मज़दूरों ने साथ तो दिया किंतु इनकी अपनी राजनीतिक हैसियत बहुत सबल नहीं थी फलतः वे इस हड़ताल को मंज़िल तक नहीं पहुँचा सकते थे ।
आख़िर में वल्लभ भाई पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना दोनों के दबाव में आकर नाविक आत्मसमर्पण को विवश हो गए। लेकिन इन वीरों का स्वाभिमान देखिए। आत्मसमर्पण के वक़्त उनके संदेश थे, " हम भारत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। ब्रिटेन के सामने नहीं "!
आत्मसमर्पण के पूर्व वल्लभ भाई पटेल ने अंग्रेज़ों के कहने पर जो भी आश्वासन दिए थे वे सभी धरे के धरे रह गए। द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेज़ों के लिए लड़नेवाले सैनिकों को आज़ाद भारत में भी पेंशन मिलती रही लेकिन रॉयल इंडियन नेवी के देशभक्त स्वतंत्रता संग्रामियों को आश्वासन के अनुरूप न नौकरी दी गई और न पेंशन दिया गया और न स्वतंत्रता सेनानी का दर्ज़ा ही मिला।
हमारी आज़ादी की लड़ाई का यह गौरवशाली पक्ष आज़ादी के बाद मिली सत्ता के चकाचौंध के अंधेरे में इसके नायकों द्वारा गुम कर दिया गया।
इतिहास के करवटों का अंदाज़ सद्इच्छाओं से अक्सर परे होता है। लेकिन यह कहना ग़लत नहीं माना जाएगा जैसा कि इस विद्रोह के महत्व को आँकने वाले कहते हैं कि नौसैनिक विद्रोह को अगर राष्ट्रीय नेताओं द्वारा सफल बनाने का प्रयास होता तो मुमकिन था मुल्क का बँटवारा नहीं होता, वह त्रासदी नहीं होती जो बँटवारे के समय सांप्रदायिक और सत्तावादी ताक़तों की वज़ह सेनसरहदों की दोनों तरफ़ खूँरेज़ी से मची थी , मासूमों के क़त्लोगारत के नतीज़े सामने नहीं होते और न होता , नरसंहार का नज़ारा !
और तब सत्ता का चरित्र भी इकतरफ़ा नहीं होता। जनपक्षीयता का दबाव बना रहता जो राष्ट्र की एकता और अखंडता खंडित होने से बचा लेता !
भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan Prasad Sinha
#vss
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