Sunday, 23 May 2021

येरुशलम - अल - अक़्सा भाग - 3.

मदीने में यहूदियों द्वारा की गयी उपेक्षा मुहम्मद के लिए यातना के समान थी.. क्योंकि पूरे बारह साल वो मक्का में अपनों से उपेक्षित होकर लड़ते रहे और यहूदी और ईसाई धर्म और उनके पैगम्बरों को अपना कहते रहे.. उन्हें उनके क़बीले और शहर के लोगों से लगातार इस बात के लिए ताने मिलते थे, उन पर ज़ुल्म होते थे और उनकी हंसी उड़ाई जाती थी.. मगर इस सब के बावजूद उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया.. फिर जब उनका सामना यहूदियों की भीड़ से हुवा, जो मदीना में ताक़तवर थे, तब उन्हें बहुत दुःख पहुंचा। 

यहूदियों की उपेक्षा मुहम्मद के लिए दोहरी मार थी.. क्यूंकि मक्का के उनके मूर्तिपूजक क़बीले के लोग, उनके ख़ानदान वाले सब मुहम्मद से हर तरह के समझौते के लिए तैयार थे.. क्योंकि वो चाहते थे कि मुहम्मद अपने एकेश्वरवाद की विचारधारा को अपने पुरखों के धर्म के साथ जोड़ लें और ये झगड़ा ख़त्म कर दें.. तरह तरह के प्रलोभन, तरह तरह के समझौते की रूपरेखा बनाई गई मगर मुहम्मद तैयार न हुवे.. और अब यहां मदीने में यहूदी भी किसी तरह के धार्मिक समझौते के लिए तैयार होते नहीं दिख रहे थे।

यहूदियों के जेरुसलम में स्थित "बैत हा-मिक़दश"  की तरफ़ मुहँ करके प्रार्थना करना अब मुहम्मद के लिए भारी पड़ने लगा था.. क्यूंकि इस वजह से वो और उनके अनुयायी हंसी का पात्र बन रहे थे.. मगर चूंकि तेरह (13) साल का समय कम समय नहीं होता है इसलिए प्रार्थना के लिए एकदम से दूसरा किबला चुन लेना भी उतना आसान नहीं था.. इस कशमकश का वर्णन क़ुरआन में है.. जब मुहम्मद इस बात को लेकर बहुत दुखी और उदास हो गए जब क़ुरआन की ये आयात आयी:

"(मुहम्मद) बहुत बार हमने तुम्हें देखा है आसमान की तरफ़ निहारते हुवे (इस उम्मीद से कि किबला बदल दिया जाए) इसलिए अब हम तुमसे कहते हैं कि अपने उस किबले की तरफ़ अपना सिर घुमा लो जहां तुम्हें ख़ुशी मिले" (सूरह अल-बक़रह 2: 144)

और फिर इस तरह मक्का से मदीना आने के करीब सत्तरह महीने बाद, किबला जेरुसलम न रहा और मुहम्मद ने मक्का की तरफ़ मुहं करके प्रार्थना करना शुरू कर दिया

मगर ये उतना आसान नहीं था क्योंकि उनके अनुयायी इस बात को लेकर दो भाग में बंट गए.. कई तो जेरुसलम की तरफ़ ही मुहं कर के ही प्रार्थना करते रहे क्यूंकि मक्का की तरफ़ मुहं करके काबा को अपना किबला स्वीकारना इस्लाम की असल शिक्षाओं के एकदम विरुद्ध था.. उस समय काबा मूर्तिपूजकों का पूजा स्थल या मंदिर था.. वहां 360 देवी देवताओं की मूर्तियां रखी हुई थीं और उसके तरफ़ मुहँ करके प्रार्थना करना एकेश्वरवाद के सिद्धांतों के एकदम विरुद्ध था.. इसलिए मुहम्मद के अनुयायी किबला बदलने के इस फैसले से एकमत नहीं थे.. फिर जब बात बहुत बढ़ गयी तब क़ुरआन की ये आयत आयी:

"हमने पुराना किबला बदलने के लिए सिर्फ इसलिए कहा क्योंकि हम देखना चाहते थे कौन पैग़म्बर का सच्चा शिष्य है और कौन उन्हें छोड़कर भाग जाएगा. बिल्कुल ये बहुत ही कठोर परीक्षा थी, मगर उनके लिए नहीं जिन्हें अल्लाह रास्ता दिखाता है" ( सूरह अल बक़रह 2:143)

(नोट: क़ुरआन में बाद में आई आयत को पहले रखा गया है और पहले आई को बाद में.. क़ुरआन क्रोनोलोजिकल आर्डर में नहीं है इसलिए आप पाठक लोग इसका ध्यान रखें)

धीरे धीरे मुहम्मद के अनुयायी नए किबले को स्वीकारने लगे थे.. मगर फिर भी बहुत सारे ऐसे थे जो इसे लेकर हमेशा असहज थे.. उनके कितने अनुयायी ऐसे थे जिन्होंने काबा और उसके इर्द गिर्द होने वाले धार्मिक कर्मकांड, जो हज के दौरान किये जाते थे, क्योंकि वो सब मूर्तिपूजक कर्मकांड थे, को कभी मन से स्वीकारा ही नहीं था.. इस टॉपिक के विस्तार में मैं इस सिरीज़ में नहीं जाऊंगा क्योंकि फिर टॉपिक बदल जायेगा

किबला बदलने के साथ ही मुहम्मद का यहूदियों के प्रति झुकाव बदल गया.. मुहम्मद उस स्थिति में नहीं थे जहां उन्हें यहूदियों की चापलूसी करनी पड़े.. तो एक तरह से ये एक नए धर्म का उदय था.. जो इस्लाम मक्का में मुहम्मद और उनके अनुयायी मान रहे थे उसमें बहुत बड़ा बदलाव हो गया था.. अब यहूदी और मुहम्मद के अनुयायियों की ठन चुकी थी.. इसलिए अब धार्मिक कर्मकांड में बड़े बदलाव किए जा रहे थे.. पहले मुहम्मद और उनके अनुयायी वैसी ही दाढ़ी रखते थे जैसे यहूदी रखते थे.. फिर मुहम्मद ने हुक्म दिया कि तुम लोग बिना मूछों वाली दाढ़ी रखो ताकि यहूदियों से अलग दिखो.. उसके बाद यहूदियों के आशूरा का रोज़ा छोड़कर रमज़ान के रोज़े रखने का हुक्म दिया

जो धर्म मक्का से शुरू हुआ था इस घोषणा के साथ कि यहूदी और ईसाई अहले किताब हैं और हमारे भाई हैं, वो अब पूरी तरह से यहूदियों के विरोध में आ चुका था.. अब जैसे मक्का वाले मूर्तिपूजकों से जंग थी इस्लाम की उसी तरह ये जंग यहूदियों के ख़िलाफ़ भी शुरू हो गयी थी
(क्रमशः)

© सिद्धार्थ ताबिश
#vss

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