[चित्र: रवींद्र कौशिक, जिन्हें भारत का महानतम जासूस कहा जाता है। वह कभी पाकिस्तान सेना के मेजर तक बन गए थे]
बांग्लादेश बनने से भारत को क्या मिल गया? इसका उत्तर घुमा-फिरा कर मैंने पहले दिया है। लेकिन, जब यह कह रहा हूँ कि यह भारत की लंबी योजना थी, तो इसके पीछे यह वजह नहीं हो सकती कि शरणार्थी आ रहे थे। शरणार्थियों का भारी संख्या में आना तो मार्च 1971 से ही शुरू हुआ। फिर योजना दो साल पहले से क्यों बन रही थी?
दरअसल नेहरू के आखिरी काल में कश्मीर बड़ी समस्या नहीं रही, बल्कि उससे कहीं दूर उत्तर-पूर्व रहा। चीन के युद्ध से इतर भी हालात कुछ यूँ बन रहे थे कि यह पूरा उत्तर-पूर्व कट कर अलग न हो जाए। इसकी योजना चीन नहीं बना रहा था। चीन के तो कुछ क्लेम थे जो ब्रिटिश काल से ही चले आ रहे थे। वह कोई नयी समस्या नहीं थी, और उस पर विस्तृत मैंने पहले लिखा है।
उत्तर-पूर्व को अलग करने के पीछे पाकिस्तान था। बाक़ायदा आइ.एस.आइ. द्वारा नागा अलगाववादी गुटों को प्रशिक्षण दिया जा रहा था। पूर्वी पाकिस्तान उन उत्तर-पूर्व के सातों बहनों के काफ़ी करीब था। पाकिस्तान में जितने आज़ाद कश्मीर के कैंप न थे, उससे अधिक असम, नागालैंड और मणिपुर के अलगाववादी कैंप थे। ऐसा भी नहीं कि उनका उद्देश्य इन राज्यों को पाकिस्तान में मिलाना था। यह बस भारत पर एक तरह की दबाव रणनीति थी। मगर इसका काट क्या था?
भारत में एक इंटेलिजेंस ब्यूरो थी, किंतु विदेशी जासूसी के लिए कोई स्थापना नहीं थी। चीन युद्ध में तो इंटेलिजेंस चारों खाने चित थी। यही हाल कमो-बेश 1965 के युद्ध में भी हुआ जब बड़ी आसानी से हज़ारों पाकिस्तानी कश्मीर में चुपके से घुस गए। नेहरू के दुनिया को देखने का ढंग और इंदिरा गांधी के ढंग में जमीन-आसमान का अंतर था। दुनिया ही नहीं, देश को भी। खैर।
1968 में इंदिरा गांधी ने आई.बी. के रामेश्वर नाथ काव को एक प्रभार दिया कि वह एक गुप्तचर संस्था बनाएँ जो आइ.एस.आइ. के टक्कर का हो। उस वक्त ISI दो दशक पुरानी हो गयी थी, और काफ़ी संगठित भी थी। भारत इस मामले में कमजोर था। मगर एक बड़ा अंतर यह था कि ISI में सेना के लोग अधिक थे, जबकि भारत में बन रहा ‘रॉ’ पक्के जासूसों और एजेंटों की मंडली बन रही थी। उसकी संरचना और काम का ढंग इजरायल के ‘मोस्साद’ से प्रेरित था।
काव ने अगले ही वर्ष एक रिपोर्ट बनायी, जिसमें उन्होंने उत्तर-पूर्व समस्या के दो हल बताए। पहला, पूर्वी पाकिस्तान को तोड़ना और दूसरा सिक्किम को भारत में जोड़ना। यानी नीचे से जमीन खींच कर, ऊपर ढक्कन लगा देना। तरीका फूल-प्रूफ़ था, मगर यह होता कैसे?
मुझे नहीं लगता कि सिक्किम को जोड़ने के मास्टर-स्ट्रोक को यहाँ सम्मिलित कर पाऊँगा, लेकिन बांग्लादेश को तोड़ना एक लंबी योजना (साज़िश) का परिणाम थी। पाकिस्तान के लोग अगर आज भी भारत को दोषी मानते हैं तो वे ग़लत नहीं करते। बल्कि इसका ख़ामियाज़ा बांग्लादेशी हिन्दुओं को भुगतना पड़ा, जो दिल से भारत से ही जुड़े थे। मुक्ति-वाहिनी में भी जहाँ मुसलमानों ने बढ़-चढ़ कर प्रशिक्षण लिया, हिन्दू भारत में आकर सेट ही हो गए। हालांकि कुछ मेजर चित्तरंजन दत्त जैसे लोग ज़रूर थे, जिन्होंने आज़ादी के समय ही पाकिस्तान सेना में रहना पसंद किया, और बाद में गुरिल्ला सेना के हिस्सा बने।
इसमें कोई शक नहीं कि रामेश्वर नाथ काव ने गुरिल्लाओं और जासूसों द्वारा इतना रास्ता साफ कर दिया था, कि भारतीय सेना के लिए यह सबसे आसान और सबसे लाभदायक विजय हो। अगर मोरारजी देसाई न होते, तो शायद ‘रॉ’ इज़रायल के ‘मोस्साद’ की ऊँचाई तक पहुँच गया होता। यह नाम बेअदबी से इसलिए घुसेड़ रहा हूँ क्योंकि प्रसिद्ध गुप्तचर मोहनलाल भास्कर ने अपनी पुस्तक में यह स्पष्ट ही लिख दिया है कि मोरारजी देसाई को छोड़ कर मैं सभी का नमन करता हूँ।
जासूसों की यह नियति होती ही है कि युद्ध-विजय में उनकी तस्वीरें नहीं लगती, न नाम लिया जाता है, जबकि उनके बिना युद्ध जीते ही नहीं जा सकते।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 25.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/25.html
#vss
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