Saturday, 29 May 2021

कोहिनूर - समृद्धि नहीं, शासकों के नाश का कारण बना / विजय शंकर सिंह


पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ का एक ट्वीट चर्चा में है जिंसमे वे नरेंद्र मोदी के लिये कह रहे हैं कि,
" यह कोहिनूर हीरा भारत को 500 वर्षों बाद मिला है खोने मत देना।"
यह ट्वीट 26 मई 21 को 11.01 बजे का है और इसे पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया है। यह राष्ट्रवादी दीपक रस्तोगी के ट्विटर अकाउंट पर है। मैंने वही से इसे रीट्वीट भी किया है।

पर हिंदुत्व की बात करने वाले, यह महानुभाव यह भूल गए कि, इन्ही 500 वर्षों के काल खंड में से पिछले 200 वर्षों में ही, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द,   स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंदो, प्रभुपाद, जैसे महान लोग भी जन्मे और जिन्होंने सनातन परंपरा को अपने अध्ययन, दर्शन और विचारों से समृद्ध किया। पर हिंदुत्व ने प्रतीक खोजो अभियान में या तो सावरकर को चुना गया या आज इन महानुभाव को। प्रतीकों का ऐसा दारिद्र्य, न भूतो न भविष्यति ! जिस परंपरा में झूठ बोलने के कारण ब्रह्मा तक को अपूज्य घोषित कर दिया गया हो, वहां यही दुर्गुण मान्यता पा रहा है।

अब बात कोहिनूर की। कहते हैं यह एक  अशुभ रत्न है। जिस के भी पास रहा, उसका नाश प्रारंभ हो गया। बाबरनामा, तुर्की में लिखी गयी बाबर की प्रसिद्ध आत्मकथा है और उसका मूल नाम, तुजुक ए बाबरी है, में यह विवरण मिलता है कि "हुमायूँ ने जब एक लकड़ी की छोटी पेटी मे मखमल से ढंके  हुए एक दुर्लभ और बेशकीमती पत्थर को बाबर के सामने पेश किया तो अचानक प्रकाश छा गया । प्रकाश बिखेरते हुए उस अद्भुत रत्न को देखते ही बाबर के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा माशा अल्लाह , कोह ए नूर !" कोह का अर्थ पहाड़ और नूर का अर्थ प्रकाश । इस प्रकार दुनिया के सबसे मूल्यवान हीरे का नामकरण हुआ । यह घटना 1529 की है । कहते हैं, यह हीरा आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के गोलकुंडा के प्रसिद्ध खान से कभी निकाला गया था। गोलकुंडा की खाने रत्नगर्भा है। दुनिया में हीरों के लिए गोलकुंडा की खाने प्रसिद्ध हैं ।

आज यही हीरा सम्राटों के ख़ज़ाने का दौरा करते करते, अनेक सम्राटों को अतीत में दफ़न करते हुए इंग्लैंड की महारानी या यूँ कह लीजिये कि ब्रिटेन की संपत्ति है । भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही, इसके स्वामित्व पर एक बार अपना अपना दावा भी किया है । भारत का कहना है कि वह हीरा पंजाब के राजा से अंग्रेजों ने लिया था अतः उसका हक़ बनता है और पाकिस्तान का कहना है पंजाब की राजधानी लाहौर थी, और लाहौर अब पाकिस्तान में है अतः उसका हक़ बनता है । दिल्ली और लाहौर दोनों स्थानों की अदालतों में मुक़दमा चल रहा है । अंग्रेज़ अभी चुप हैं । एक बार ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने, जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, बिटिश प्रधान मंत्री से, कोहिनूर वापस लौटाने के लिए कहा था । पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने यह अनुरोध विनम्रता से अस्वीकार कर दिया और यह कहा कि वह रानी की संपत्ति है। आगे क्या होता है , यह देखना दिलचस्प होगा ।

नाम इस का भले ही कोह ए नूर , प्रसिद्ध हुआ हो, पर इस हीरे का इतिहास बहुत प्राचीन है । एक मान्यता के अनुसार यह हीरा , समुद्र से निकली हुयी कौस्तुभ मणि है । एक अन्य मान्यता के अनुसार यह महाभारत कालीन स्यमन्तक मणि है, जिस से कृष्ण को झूठा ही लांछित होना पड़ा। स्यमन्तक मणि के कारण कृष्ण से बलराम रूठ गए थे और वे द्वारिका छोड़ कर काशी चले गए। कृष्ण ने जाम्बवन्त नामक रीछ से यह मणि ली और जाम्बवंत की पुत्री जाम्बवन्ती कृष्ण की पत्नी बनी । पर यह हीरा वही स्यमन्तक मणि है या नहीं इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है ।

ऐसी मान्यता है कि यह हीरा अभिशप्त है और यह मान्यता अब से नहीं 13 वीं शताब्दी से है। बाबरनामा के अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था हालांकि तब इसका नाम कोहिनूर नहीं था। पर इस हीरे को पहचान 1306 में मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा की जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा पर इस के बाद  उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। हालांकि तब इस बात को तब एक वहम कह कर खारिज कर दिया गया था पर यदि हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखे तो कह सकते है कि यह बात काफी हद तक सही है।

कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह कभी भी खुशहाल नहीं रह पाया।  14 वी शताब्दी की शुरुआत में यह हीरा काकतीय वंश के पास आया और इसी के साथ 1083 ई. से शासन कर रहे काकतीय वंश के बुरे दिन शुरू हो गए । फिर तुग़लक़ के पास आया और वह भी समाप्त हुए । बाबर ने हुमायूँ को ही यह उपहार लौटा दिया । 1529 ई में उसे यह हीरा मिला और 1530 ई में हुमायूँ पहले बीमार पड़ा, फिर बाबर ने, कहा जाता है उसकी बीमारी ली और वह बीमार पड़ा अंत मे मर ही गया । हुमायूँ , नाम से ज़रूरी भाग्यशाली था पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया । अफगानों से संघर्ष में वह शेरशाह सूरी से पराजित हुआ ।

अकबर ने छिन्न भिन्न हुए मुग़ल साम्राज्य को संगठित किया और अपने उदारवादी सोच तथा सुदृढ़ सैन्य बल की सहायता से मुग़ल साम्राज्य को बढ़ाया और स्थिर किया। साम्राज्य का विस्तार भी हुआ, सम्पन्नता भी लौटने लगीं और स्थायित्व भी आया। पर उसने कोहिनूर को नहीं छुआ । ऐसा उसने अभिषप्तता के कारण किया या कोई और बात थी, इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । जहांगीर भी कोहिनूर से दूर ही रहा । शाहजहाँ ने उसे अपने सिंहासन में जड़वाया और उसके बाद ही उसकी दुर्गति शुरू हो गयी । उसके बेटों में आपस में युद्ध हुआ और अंतिम समय उसे बंदी जीवन बिताना पड़ा । औरंगज़ेब जिसे विरासत में इतना बड़ा साम्राज्य मिला था, वह भी , जीवन भर , अपनी सनक और धर्मान्धता के कारण कभी राजपूतों से तो कभी जाटों से, कभी सिखों से, और तो कभी मराठों से लड़ता रहा । जब वह मरा तो मुग़ल साम्राज्य दरकने लगा था ।

1739 में ईरान का शाह, नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन शुरू हो गया और उसने दिल्ली की ज़बरदस्त लूट की। साथ ही, दिल्ली में उसकी सेना ने ज़बरदस्त नरसंहार किया और, वह अपने साथ तख्ते ताउस और कोहिनूर सहित अनेक बेशकीमती रत्नो को ईरान  ले गया । आठ साल बाद ही, 1747 ई. में नादिरशाह की हत्या हो गयी और कोहिनूर हीरा अफ़गानिस्तान के शाह, अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया। कोहिनूर  उसकी मौत के बाद उनके वंशज शाह शुजा दुर्रानी के स्वामित्व में आया। पर कुछ समय बाद ही उसी के भाई,  मो.शाह ने शाह शुजा को गद्दी से बेदखल कर दिया । 1813  ई.  में, अफ़गानिस्तान के अपदस्त शांहशाह शाह शुजा कोहीनूर हीरे के साथ भाग कर लाहौर पहुंचा। उसने  कोहिनूर को पंजाब के राजा रंजीत सिंह को उपहार में दिया एवं इसके एवज में राजा रंजीत सिंह ने, शाह शुजा को अफ़गानिस्तान का राज-सिंहासन वापस दिलवाया। इस प्रकार कोहिनूर हीरा वापस भारत आ गया।

लेकिन कहानी यही खत्म नहीं होती है । कोहिनूर हीरा आने के  कुछ सालो बाद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है और अंग्रेज सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लेते है। इसी के साथ यह हीरा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हो जाता है। कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन ले जाकर महारानी विक्टोरिया को सौप दिया जाता है तथा उसके शापित होने की बात बताई जाती है। महारानी की समझ में यह बात आती तो है पर वह, इसे नजरअंदाज करती हैं और हीरे को अपने राजमुकुट में जड़वा के 1852 में स्वयं धारण कर लेती है और यह वसीयत भी करती है की इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी।

लेकिन इतिहास की धारा देखें तो 1911 के दिल्ली दरबार में सम्राट जॉर्ज पंचम जब आये थे तो महारानी द्वारा यह ताज धारण किया गया था । उसी के बाद दो दो विश्वयुद्ध होते हैं, और ब्रिटिश राज जिसका सूरज कभी डूबता नहीं था, अब उनकी दहलीज पर ही डूबने लगा । ज्योतिषियों का कहना है कि, महारानी यानी एक महिला द्वारा धारण करने के बावजूद भी इसका असर ख़त्म नहीं हुआ और ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत के लिए भी यही अशुभ रत्न ज़िम्मेदार है। ब्रिटेन 1850 तक आधे विश्व पर राज कर रहा था पर इसके बाद उसके अधीनस्थ देश एक एक करके स्वतंत्र होने लगे थे। साम्राज्य बिखरने लगा था।

कहा जाता है की खदान से निकला हीरा 793 कैरेट का था।  अलबत्ता 1852 से पहले तक यह 186 कैरेट का था। पर जब यह ब्रिटेन पहुंचा तो महारानी को यह पसंद नहीं आया इसलिए इसकी दुबारा कटिंग करवाई गई जिसके बाद यह 105.6 कैरेट का रह गया। कोहिनूर हीरा अपने पूरे इतिहास में अब तक एक बार भी नहीं बिका। यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम में दिया गया। इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई।  पर इसकी कीमत क्या हो सकती है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की आज से 60 साल पूर्व हांगकांग में एक ग्राफ पिंक हीरा 46 मिलियन डॉलर में  बिका था जो की मात्र 24.78 कैरेट का था।  इस हिसाब से कोहिनूर की वर्तमान कीमत कई बिलियन डॉलर होगी।

सरकार का यह कथन कि यह पंजाब के राजा द्वारा अंग्रेजों को उपहार स्वरुप दिया गया था, सही नहीं है । अँगरेज़ ताक़तवर ने और पंजाब केसरी रणजीत सिंह के बाद सिख साम्राज्य को कब्ज़ा कर लिया और उनके वारिस दलीप सिंह को वहाँ की गद्दी सौंप दी । दलीप सिंह, को इंग्लैंड ले जाया गया और उनकी परवरिश ब्रिटिश रीति रिवाज़ से हुयी । जब सिख राज्य अधीनस्थ हो ही गया तो , यह उपहार भी एक प्रकार से हथियाया हुआ हुआ, न कि बराबरी के आधार पर सदाशयता से दिया हुआ । यह भी एक प्रकार की लूट ही है । वैसे भी कोहिनूर लाना इतना आसान नहीं है । पहले तो भारत पाक में ही तय नहीं हो पायेगा, यह किसका है । फिर अंतरराष्ट्रीय क़ानून और परम्पराओं की बंदिशें भी सामने आएँगी। फिर भी उस नायाब हीरे के स्वामित्व का लाभ कौन छोड़ना  चाहेगा ।


( विजय शंकर सिंह )
 

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