Monday 24 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 39.


“हम एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। वहाँ न शीत युद्ध न होगा, न हथियारों की प्रतिस्पर्धा होगी, और न राज्य का सैन्यीकरण होगा। इनकी वजह से हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी नैतिकता, और हमारा व्यवहार गिरता जा रहा था। अब यह नहीं होगा।”
- मिखाइल गोर्बाचेव, 25 दिसंबर, 1991 को अपना त्यागपत्र देते हुए

मैं पाकिस्तान के इतिहास में सोवियत को क्यों घुसेड़ रहा हूँ? 

अगर भारत का इतिहास होता तो शायद यह न करता। मगर पाकिस्तान की तो अर्थव्यवस्था ही शीत-युद्ध पर टिकी थी। उसी कारण अमरीका से डॉलर-वर्षा हो रही थी, मुजाहिद्दीनों के कैम्प चल रहे थे, देश इस्लाम के नाम पर एक हो रहा था। शीत-युद्ध खत्म होते ही अमरीका ने पाकिस्तान से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया। न रहा सोवियत, न रही पाकिस्तान की कोई अहमियत। लेकिन सोवियत को आखिर हुआ क्या? 

मिखाइल गोर्बाचेव कद्दावर और आदर्शवादी कम्युनिस्ट नेता था। उन्हें भी साम्यवाद पर उतना ही भरोसा था, जितना स्तालिन को रहा होगा। मगर वह देख रहे थे कि अब अर्थव्यवस्था बदल रही है, दुनिया उदारवादी हो रही है, वैश्वीकरण के राह खुल रहे हैं। जबकि सोवियत अपनी पूरी ऊर्जा बस शीत-युद्ध में लगा रहा है। 

फिर उन्होंने वह किया, जो साम्यवाद के दशकों से बने ढाँचे को तोड़ गया। उन्होंने दो सूत्र अपनाए। पहला था ग्लासनोस्त यानी राजनैतिक पारदर्शिता। किताबों, प्रेस, और कलाओं पर प्रतिबंध हटा दिए गए। राजनैतिक कैदियों को छोड़ दिया गया। अख़बारों को सरकार की आलोचना के लिए स्वतंत्र कर दिया गया।

दूसरा सूत्र था पेरेस्त्रोइका यानी आर्थिक पुनरुत्थान। साम्यवादी सोवियत में पहली बार पूर्णत: निजी संस्थान खुलने लगे। एक उदारवादी अर्थव्यवस्था जन्म ले रही थी। श्रमिकों के यूनियनों और किसानों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की आज़ादी दी गयी। 

गोर्बाचेव की सोच ग़लत नहीं थी। आखिर यहीं से तो साम्यवाद का बुलबुला शुरू हुआ था। ‘दुनिया के मज़दूरों एक हों’ के नारे से।

मगर इस वर्षों से बंद बोतल को हौले-हौले खोलते तो सोवियत बचा लेते। उन्होंने तो शैम्पेन की बोतल की तरह एक झटके में कॉर्क निकाल दिया, और सभी बुलबुले एक साथ बाहर आने लगे। लटविया, लिथुआनिया, यूक्रेन अपनी आज़ादी का झंडा बुलंद करने लगे। गोर्बाचेव ने भी रोका नहीं, यह होने दिया। सोवियत को विखंडित होते देख गोर्बाचेव जितने दुखी थे, उतने ही संतुष्ट भी। यह बात ऊपर दिए उनके अंतिम वक्तव्य से ज़ाहिर होती है। 

इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान से भी सोवियत सेना घर लौटने लगी। और पीछे छोड़ गयी वे तमाम मुजाहिद्दीन जो जिहाद का मूड बनाए, राइफ़ल और मिसाइल लिए मरने-मारने को तैयार बैठे थे। अमरीका ने भी कैम्पों को दी जा रही सहायता बंद कर दी। जैसे आधी लड़ाकू दुनिया एक साथ बेरोजगार हो गयी। शांति भी आखिर एक समस्या ही तो है। शांति के साथ ख़ुशहाली मुफ्त तो नहीं मिलती। वक्त लगता है।

बेनज़ीर भुट्टो को ही लें। उन्होंने एक नया पाकिस्तान रचने के संकल्प किए थे। लेकिन, जब सोवियत जितना बड़ा पेड़ गिरा तो पाकिस्तान जैसे छोटे-मोटे पेड़ दब ही गए। अमरीका भी आखिर इस पाकिस्तान में क्या निवेश करे, जहाँ न लोकतंत्र टिक पाता है, न फौज तंत्र? जहाँ उद्योग के नाम पर कुछ क्रिकेट के बल्ले और कालीन बनाने की ब्रिटिश कालीन फैक्ट्रियाँ थे। तेल-खनिज थे ही नहीं। जहाँ कुछ स्कोप हो सकता था, वहाँ अफ़गानी डेरा डाल कर जम गए थे और स्थानीय मूल के लोग विद्रोह कर रहे थे। जहाँ पुराने जमाने की खेती-बाड़ी चल रही थी। जहाँ स्त्रियाँ काम पर नहीं जाती थी। जहाँ इस्लामी शरिया कानून बेनज़ीर के बाद भी ज्यों-का-त्यों था।

एक प्रगतिवादी दिख रही बेनज़ीर भी अपनी सत्ता बचाने के फेर में कुछ काया-पलट नहीं कर सकी। दर-असल उन्होंने इस लड़ाई में एक तानाशाह जिया-उल-हक़ को तो देखा था, मगर भ्रष्ट, चालबाज़ नेताओं से पाला कम पड़ा। एक व्यक्ति की गिद्ध-दृष्टि उन पर बरसों से थी। 

जब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने राष्ट्रीयकरण किया था, तो उस व्यक्ति के परिवार पर भी गाज़ गिरी थी। उसके बाद से ही वह भुट्टो परिवार से नफ़रत करने लगे। जिया-उल-हक़ के चहेते और पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री बने। शेर-ए-पंजाब नाम से नवाज़े गए वह राजनीति के शातिर खिलाड़ी थे नवाज़ शरीफ़। 

नवाज़ लाहौर में बैठे अख़बार पढ़ रहे थे। खबर थी कि विश्वनाथ प्रताप सिंह नामक नेता ने राजीव गांधी पर इल्जाम लगाया है कि स्विस बैंक के ‘लोटस’ नामक गुप्त एकाउंट में पैसे जमा किए जा रहे हैं। नवाज़ को इस खबर में राजीव की जगह बेनज़ीर और वी पी सिंह की जगह अपना अक्स नज़र आने लगा। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 38.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/38.html
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