“आसिफ़ (ज़रदारी) शायद हमारे परिवार में इसलिए आया ताकि वह भुट्टो परिवार को हमेशा के लिए खत्म कर सके”
- फ़ातिमा भुट्टो, लेखिका और मुर्तज़ा भुट्टो की बेटी
एक मुसलमान देश में महिला शासक उतनी ही अजूबी बात है, जितनी एक ईसाई देश में। पहली चुनी गयी महिला राष्ट्राध्यक्ष किसी पश्चिमी देश में नहीं हुई, बल्कि श्रीलंका में सीरीमावो भंडारनायके हुई। अमरीका में आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं हुई, जबकि इंग्लैंड में बेनज़ीर से पहले सिर्फ़ एक मार्ग्रेट थैचर हुई। पूरी दुनिया को समानतावाद का पाठ पढ़ाने वाले सोवियत में एक भी नहीं। उनसे कहीं अधिक तो भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाओं ने शासन किया, जिनमें दो मुसलमान बहुल देश हैं।
मगर बेनज़ीर भुट्टो जैसों के लिए यह आसान नहीं था। मसलन उनके अपने भाई मुर्तज़ा भुट्टो भी तो गद्दी पर बैठ सकते थे। उनके पति बैठ सकते थे। पूरे संसद में और पुरुष सेना अफ़सरों के बीच एक अकेली युवती के लिए बैठ कर आदेश देना कितना कठिन होगा! उन पर हत्याओं के प्रयास भी होते रहे। मगर वह डटी रही। बेनज़ीर के साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार कहते हैं कि उनसे बात करते वक्त लगता कि किसी मृदुभाषी तानाशाह से बात हो रही है। वह हर बात यूँ कहती जैसे कि यही अंतिम सत्य है, इसमें कोई बदलाव संभव नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चाल-ढाल बाक़ायदा आईने में देख कर नकल उतारी। मैंने खुद विडियो मिला कर देखे। यूँ लगता है कि बेनज़ीर की भाषा, चाल-ढाल, और सार्वजनिक व्यवहार इंदिरा गांधी का एक अपडेटेड वर्जन है।
मुर्तज़ा उस वक्त सीरिया में थे, जब बेनज़ीर पहली बार सत्ता में आयी। 1993 के चुनाव से पहले उन्होंने घोषणा की वह चुनाव लड़ेंगे। बेनज़ीर के ख़िलाफ़ लड़ेंगे। अटकलें थी कि उन्होंने नवाज़ शरीफ़ से साँठ-गाँठ कर ली है। बेनज़ीर की माँ नुसरत भुट्टो अपने बेटे मुर्तज़ा की समर्थक थी। उन्होंने खुद घूम-घूम कर प्रचार किया, जबकि मुर्तज़ा सीरिया में ही रहे। चुनाव में बेनज़ीर की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को फिर से पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका, बल्कि पहले से कम सीटें मिली। नवाज़ शरीफ़ ने कुछ बेहतर सीटें जीती, लेकिन फिर भी सबसे बड़ी पार्टी बेनज़ीर की ही थी।
इस भाई-बहन के झगड़े में फ़ायदा नवाज़ शरीफ़ को हो गया। हालाँकि मुर्तज़ा सिर्फ अपनी पैतृक सीट लरकाना से ही चुनाव जीत सके, वह पाकिस्तान लौट कर आए। नयी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो ने उनको हवाई अड्डे से ही गिरफ़्तार कराया, और सदियों से घिसा-पिटा वाक्य दोहराया, “क़ानून की नज़र में सब बराबर हैं”।
मुर्तज़ा पाकिस्तानी कानून के हिसाब से उग्रवादी ही थे, तो यह फ़ैसला ग़लत नहीं था। बेनज़ीर उनसे कभी जेल में मिलने भी नहीं गयी। अब वह प्रधानमंत्री थी, और मुर्तज़ा एक आम अपराधी। कैसे मिलती? लेकिन, जेल की सजा काट रहे उनके पति आसिफ़ अली ज़रदारी तो मिलते थे। फिर भाई मुर्तज़ा क्यों नहीं?
ज़रदारी के पास कहीं अधिक ताक़त थी। वह नाम मात्र ही कारावास में थे। पूरा सिस्टम उनकी गिरफ़्त में था। एक अपनी पुलिस टीम थी, जो उनके इशारों पर चलती। बेनज़ीर ने ज़रदारी की मदद से अपने भाई के सहयोगियों को रास्ते से हटाना शुरू कर दिया। वे भी अधिकतर गुंडे-मवाली थे, तो सजा देना नैतिक भी हो सकता है। लेकिन, क्या अपने भाई को गोलियों से बींधने का जिम्मा भी बेनज़ीर को ही लेना था?
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 43.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/43.html
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