Thursday 27 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 42.


“हम इस जगमोहन को भागमोहन बना देंगे। इस का हम जग-जग मो-मो हन-हन कर देंगे।”
- बेनज़ीर भुट्टो पी ओ के में (एक हाथ से दूसरे हाथ पर काटने का इशारा करती हुई)

कश्मीर विभाजन के समय से ही एक जलती हुई आग थी। यह बुझी न तब थी, न अब है। बल्कि अगर हम कश्मीर के हज़ारों वर्षों के इतिहास को टटोलें, तो वहाँ के युद्धों पर कल्हण की राजतरंगिणी की एक पंक्ति ब्रह्मवाक्य की तरह है, 

“कश्मीर पर विजय पुण्य की शक्ति से ही की जा सकती है, शस्त्र से नहीं।”

अब इस वाक्य की सभी अपनी सहूलियत से व्याख्या कर सकते हैं। मसलन यह भी कह सकते हैं कि कल्हण ने यह लिखा ही नहीं, या यह कह सकते हैं कि कल्हण के समय में इस्लाम या पाकिस्तान जैसी चीजें नहीं थी। यूँ भी भारत ने यथासंभव कश्मीर को स्वायत्तता दे रखी थी। पाकिस्तान ने नाम ही ‘आज़ाद कश्मीर’ रख दिया था। मगर कश्मीर किसी भी दृष्टि से आज़ाद देश तो नहीं ही था। वह तो दो देशों में बंटा हुआ राज्य था, और दोनों ही देश इसे अपना अखंड अंश समझते थे।

1984 भारत के आधुनिक इतिहास का सबसे अधिक हलचलों वाला समय रहा। स्वर्ण मंदिर में सेना घुसी, इंदिरा गांधी की हत्या हुई, भोपाल में गैस कांड हुआ, और कश्मीर में? कश्मीर में अलगाववाद की सुगलती आग के मध्य जगमोहन राज्यपाल बन कर आए।

जगमोहन इमरजेंसी के समय संजय गांधी के चहेते रहे थे, और मुसलमान बस्तियों पर बुलडोज़र चलवाने में अग्रणी रहे थे। उनका मुसलमानों के प्रति रवैया इसी कथन से स्पष्ट होता है कि जब उनसे बस्ती तोड़ने पर अलग बस्ती बनाने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा, “मैं एक पाकिस्तान तोड़ कर दूसरा पाकिस्तान तो नहीं बनने दूँगा।”

ज़ाहिर है, इस कारण वह न सिर्फ़ संजय गांधी, बल्कि हिन्दूवादी संगठनों के भी प्रिय थे। उनका जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनना एक साधारण प्रशासनिक घटना नहीं कही जा सकती। वह वहाँ के उग्रवाद को दबाने के लिहाज़ से ही गए थे। उस समय फारुक अबदुल्ला जैसे अपरिपक्व मुख्यमंत्री का होना, एक दूसरे अपरिपक्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का केंद्र में आना, और सीमा की दूसरी तरफ़ बेनज़ीर भुट्टो की बयानबाज़ी ने कश्मीर की आग में घी का कनस्तर ही डाल दिया।

1984 में ही कश्मीरी उग्रवादी मकबूल बट्ट को तिहाड़ जेल में फाँसी दी गयी। इस फाँसी ने कश्मीर को एक शहीद भी दे दिया, जो आज तक शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

अगले कुछ वर्षों में कश्मीर से कई युवा सीमा पार कर पाकिस्तानी कैंपों में प्रशिक्षण लेते रहे, और लगभग हर महीने कुछ न कुछ उपद्रव करते रहे। जवाब में जगमोहन के समर्थन से भारतीय सेना भी अपनी कारवाई कर रही थी, जो वाज़िब भी था। लेकिन, इस कारण पाकिस्तान को आग भड़काने के खूब मौके मिलते रहते। 1989 में तो कश्मीर घाटी में 14 अगस्त को पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस भी मनाया गया, और 15 अगस्त को काले झंडे दिखाए गए। उसके बाद भारतीय गृह मंत्री की बेटी का अपहरण कर लिया गया, और उसके एवज में उग्रवादियों को छोड़ा गया।

अब यह सिलसिला चलता ही रहा। अपहरण और उग्रवादियों का छूटना। यही वह वक्त था जब कश्मीरी पंडितों से हिंसा भी शुरू हुई, और वे पलायित होने लगे। हर रोज हत्याएँ हो रही थी और सेना की जवाबी कारवाई चल रही थी। 1990 तक कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन अपने चरम पर था।

इस विषय में एक पर ज़िम्मेदारी तय करना, या मसलन फारुख़ अब्दुल्ला या जगमोहन को ही दोष देना पूरी तरह सही नहीं है। मुझे नहीं लगता कि इस प्रकरण को चंद शब्दों में व्यक्त भी किया जा सकता है। सच तो यह है कि इससे न कश्मीरियों को, न पाकिस्तान को, न फारुख़ अबदुल्ला को, और न केंद्र सरकार को कुछ हासिल हुआ। 

शायद एक सूक्ष्म स्तर पर देखें तो इस बर्बादी के बाद बेनज़ीर भुट्टो का सत्ता में वापस आना तय होने लगा। उनके नए अवतार में आइएसआइ भी उनके साथ थी, और अमरीका भी। उन्हीं दिनों उनकी हत्या करने की पहली कोशिश हुई। जिसने यह कोशिश की, उसी ने कुछ ही महीनों बाद अमरीका के WTC टावर में पहला विस्फोट किया। 

एक नयी आग सुलग रही थी। जल्द ही पाकिस्तान एक वैश्विक जिहाद का केंद्र बनने वाला था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 41. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/41.html
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