सुप्रीम कोर्ट में, एससीएसटी एक्ट 1989 में सरकार द्वारा 2018 में संशोधन के बाद, उन संशोधनों के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की गयी है। याचिका में यह प्रार्थना की गयी है कि इन संशोधनों से संविधान की धारा 14, 19 और 21, जो वैयक्तिक आज़ादी के मूल अधिकारों से सम्बंधित हैं के कतिपय प्राविधानों का उल्लंघन होता है। इस प्रकार सरकार द्वारा किया गया यह संशोधन असंवैधानिक है।
यह भी कहा गया है कि
" डॉ सुभाष काशीनाथ महाजन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद, सरकार ने अदालत में रिव्यू पुनरीक्षण याचिका दायर की है, और वह याचिका अभी भी अदालत में लंबित है। अतः अदालत में प्रकरण लंबित रहते समय कोई भी संशोधन लाना उचित नहीं है। "
डॉ. महाजन महाराष्ट्र सरकार में तकनीकी शिक्षा निदेशक के पद पर जब कार्यरत थे तब उन्हें एससी/एसटी एक्ट कानून के उल्लंघन का आरोपी बना दिया गया था क्योंकि उन्होंने एक स्टोर कीपर की शिकायत पर विभाग के दो अधिकारियों के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी थी। महाजन ने इस मामले के खिलाफ बांबे हाई कोर्ट में अपील की लेकिन उन्हें वहां से कोई राहत नहीं मिली। तब महाजन ने बांबे हाई कोर्ट के इस फैसले 5 मई, 2017 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सुनवायी के बाद एक्ट के संबंध में कतिपय निर्देश दिये थे। बाद में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को न मानते हुए 6 अगस्त को पूरा एक्ट ही संशोधित कर के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को अप्रभावी कर दिया। अब सरकार के संशोधित एक्ट 2018 के विरुद्ध यह जनहित याचिका दायर की गयी है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश थे,
* विवेचना के पहले एक प्रारम्भिक जांच करायी जाय। यह अवधि 7 दिन की हो।
* अभियुक्त अगर राजकीय सेवा में है तो उसकी गिरफ्तारी उनके नियोक्ता अधिकारी और अन्य की गिरफ्तारी जिले के एसपी या डीसीपी जहां जैसी स्थिति हो, की अनुमति से की जाय।
* अग्रिम जमानत का प्राविधान इस अधिनियम पर भी लागू होगा।
लेकिन 2018 के संशोधन में मूल अधिनियम 1989 में एक नयी धारा 18 A जोड़ी गयी है। जिसमे सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को अमान्य कर दिया गया है। साथ ही अग्रिम जमानत के प्राविधान को भी एक्ट के मूल स्वरूप के अनुसार कर दिया गया है।
डॉ महाजन के याचिका पर जब सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को संशोधित कर दिया तो उसका व्यापक विरोध हुआ। अदालत पर यह आक्षेप भी लगा कि अदालत का यह निर्णय दलित विरोधी है और उसने जानबूझकर इस अधिनियम के प्राविधानों के साथ छेड़छाड़ कर के इसे कमज़ोर कर दिया है। केंद्र सरकार के एमपी मंत्रीगण और अन्य दलों के नेताओं ने भी सरकार पर इसे संशोधन ला कर पूर्व की स्थिति बहाल करने का दबाव डाला। यह मुकदमा जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस यूयू ललित की पीठ ने सुनाया था। अतः सोशल मीडिया में उनपर भी कई उंगलियां उठी। चुनावी वर्ष होने के कारण सरकार ने इसे संशोधित करके यह बवाल टालने का निश्चय किया। तब यह संशोधन लाया गया।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि
“ अप्रत्याशित रूप से उठाये गये एक कदम के रूप में, राजनीतिक हितलाभ के दृष्टिकोण और अपने सहयोगी दलों के दबाव में , आने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए एक बड़े वोट बैंक को साधने की लालसा से केंद्र सरकार ने इस कानून को संशोधित करने का निर्णय लिया है। "
याचिका में यह भी कहा गया है कि यह अत्याचार निवारण अधिनियम, निर्दोष नागरिकों और जनता के लिये उनको ब्लैकमेल करने के उपकरण के रूप में बदल गया है। अपने इस तर्क को पुष्ट करने के लिये याचिकाकर्ता ने एक्ट के नियम की धारा 12 (4) का उल्लेख किया है। यह नियम विभिन्न अपराधों के लिये आर्थिक मुआवजे का प्राविधान करता है। याचिकाकर्ता के अनुसार इन आर्थिक मुआवजों की लालच में इस एक्ट का दुरूपयोग भी हो रहा है। 1995 में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण नियम ( 1995 के अनुसार धारा 12 (4) के अंर्तगत पीड़ित को मुआवजा देने का प्राविधान किया गया है।
यह भी कहा गया है कि केवल इसी अधिनियम में अग्रिम जमानत का प्राविधान न रखना, और सुप्रीम कोर्ट द्वारा रखे जाने के बाद पुनः संशोधित करके हटा दिए जाने का निर्णय अनुचित और स्वेच्छाचारी कदम है। यह उतना ही गलत है जितना कि एक गलत तरीके से की गयी गिरफ्तारी का मामला है। यह संविधान की धारा 21 जो मूल अधिकारों से सम्बंधित है का खुला उल्लंघन भी है। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश एक लोकसेवक के खिलाफ सरकारी काम करने के दौरान उसे एक वैधानिक सुरक्षा कवच के रूप में था, जिसे सरकार ने संशोधित कर दिया है। ऐसे हालात में यह भी सम्भव है कि अनुसूचित जाति जनजाति का कोई भी कर्मचारी या अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी पर अपनी असंतुष्टता के कारण अपने उत्पीड़न का आरोप लगा कर उसे ब्लैकमेल कर सकता है। इससे हो सकता है कुछ स्थानों पर काम करना मुश्किल हो जाय। क्योंकि एक्ट में इस प्रकार का कोई भी सुरक्षा कवच नहीं है। और जो वैधानिक सुरक्षा सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश में दिया था, उसे भी सरकार ने इस संशोधन से हटा दिया। "
याचिका में आगे कहा गया है कि,
" केवल सामाजिक रूप से तथाकथित ऊंची जाति में जन्म लेने भर से ही कोई व्यक्ति दोषी नहीं हो जाता है। उसे केवल ऊंची जाति में जन्म लेने के कारण ही केवल उसके उन संवैधानिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता जो उसे संविधान ने दिए हैं। अतः गिरफ्तारी के लिये जो प्राविधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 और 41 A ( यह धारा गिरफ्तारी के सम्बंध में हैं ) में जो सेफगार्ड दिये गए हैं, उन्हें पाने का अधिकार उसका भी है। ये सेफगार्ड हैं, विवेचना, सुबूत, और सटीक सूचना, न कि स्वेच्छाचारी तरीके से अभियुक्त की गिरफ्तारी । "
याचिका में यह भी कहा गया है कि
" जितने मुक़दमे इस एक्ट के अंतर्गत दर्ज हुये हैं उनमें 85% मुक़दमे अदालत से छूटे हैं। "
हालांकि सज़ायाबी का न होना इस बात का भी प्रमाण हो सकता है कि भय वश गवाहियां न हो पा रही हो, या अभियोजन और विवेचना सतही हो या पक्ष विपक्ष में किसी कारण से समझौता हो गया हो। ( यह मेरा कथन है याचिकाकर्ता का नहीं। )
याचिका में कुछ उन मुकदमो का भी हवाला दिया गया है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद पूर्व सरकार ने अपने राजनीतिक एजेंडे के कारण संशोधित किया है। याचिका ने शाहबानों मामले का ज़िक्र किया गया है जो सीआरपीसी की धारा 125, जो विवाहित महिलाओं के भरण पोषण से संबंधित है में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद सरकार ने संविधान संशोधित करके उसे रद्द कर दिया, का उल्लेख है। यह संशोधन मुस्लिम महिला प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स 1986 के अंगर्गत किया गया था। हालांकि बाद में शमीम बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 125 को सभी पर धर्मो के निजी कानून के बावजूद फिर से बाध्यकारी घोषित कर दिया। इसी तरह अदालत से यह याचना की गयी है कि वह इस महत्वपूर्ण मामले में भी न्याय करे।
अक्सर हम यह सुनते हैं कि इस प्रकरण को संविधान की नौंवी सूची में डाल दिया जाय। संविधान की नौंवी सूची में जो विषय रहते हैं अदालतें उन पर दखल नहीं दे सकती है। ऐसा इसलिए किया गया है कि अदालती कार्यवाही में कहीं कोई महत्वपूर्ण शासकीय कार्य जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ता हो अनावश्यक रूप से लटक न जाय। इस अनुसूची में अत्यंत महत्वपूर्ण विषय रखे गए हैं। लेकिन 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में यह व्यवस्था दी है कि सुप्रीम कोर्ट नौवीं अनुसूची की भी आवश्यकता पड़ने न्यायिक समीक्षा कर सकती है। ऐसा कुछ भी और कोई भी कानून नहीं है जिसकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकती है। उसका यह अधिकार असीमित है।
© विजय शंकर सिंह
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