Sunday, 26 August 2018

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज़्म - अब कहां रस्म घर लुटाने की / विजय शंकर सिंह

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की,

कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की,

बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की,

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की,

चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की !!

( फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
***
© विजय शंकर सिंह

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