Sunday, 26 August 2018

Ghalib - Qafas mein hun / क़फ़स में हूँ - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 100.
क़फ़स में हूँ, पर अच्छा भी न जाने मेरे शेवन को,
मेरा होना बुरा क्या है, नबा संजाने गुलशन को !!

Qafas mein huun, par achchaa bhii na jaane mere shewan ko,
Meraa honaa buraa kyaa hai, nabaa sanjaane gulshan ko !!
- Ghalib

यदि मेरे रुदन और आर्त नाद को उद्यान में चहचहाते लोग पसंद नहीं करते तो न करें, पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि, परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ मैं एक पिंजड़े में कैद हूँ।

गलिब का यह शेर 1857 के विप्लव के बाद का ही है। जब दिल्ली पर फिरंगी राज आ गया था। पेंशन बन्द हो गयी थी। दिल्ली के बादशाह को गिरफ्तार करके कलकत्ता भेज दिया गया था, वहां से उन्हें रंगून भेजे जाने की तैयारी थी। दिल्ली में अफरातफरी भी थोड़ी कम हो गयी थी। दिल्ली के आरामतलब सामन्त वर्ग ने अपने कोर्निश का ठीहा बदल दिया था। अब न जिल्ले इलाही का जलवा अफ़रोज़ दरबार था, और न राग रंग की महफिलें, थीं तो गोरी ताकतों का रुआब और दबदबा। ग़ालिब इसे ही परतंत्रता कह कर संबोधित करते हैं। वे खुद को पिंजड़े में कैद अबस पक्षी की तरह पाते हैं, लेकिन उनके इस ' पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ' को आंनद उद्यान में विचरते लोग न समझते हैं और न ही पसंद करते हैं। वक़्त का बदलना इसे ही कहते हैं, शायद।

© विजय शंकर सिंह

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