सुप्रीम कोर्ट के एससीएसटी एक्ट में कुछ निर्देश देने के बाद इस अधिनियम पर विवाद उठ खड़ा हुआ है। एक पक्ष का कहना है कि इससे अधिनियम के प्राविधान कमज़ोर हुये हैं और दूसरे पक्ष का तर्क है कि इससे दुरुपयोग रुकेगा। सरकार चुनावी वर्ष होने के कारण सतर्कता से कदम उठा रही है। यह विवाद हुआ क्यों ?
1990 में जब अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम लागू हुआ तो इसे शुरू में हरिजन एक्ट कहा जाता था। बाद में दलितों ने हरिजन शब्द पर आपत्ति की और दलित शब्द ही कहा जो आम्बेडकर द्वारा प्रयुक्त डिप्रेस्ड शब्द का हिंदी अनुवाद था। इस अधिनियम में दर्ज मुकदमों की तफ्तीश डीएसपी स्तर के अधिकारी करते हैं। जबकि सीआरपीसी के प्राविधानों के अनुसार सारे मुकदमों में विवेचना का जिम्मा सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर को दिया गया है। लेकिन अधिनियम में ही तफ्तीश करने का दायित्व डीएसपी स्तर के अधिकारी को दिया गया है । ऐसा केवल कुछ ही मामलों में जैसे एससीएसटी एक्ट के अतिरिक्त , दहेज निवारण अधिनियम, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, देह व्यापार के मुकदमों आदि कुछ विशिष्ट अधिनियमों में विवेचना का दायित्व डीएसपी स्तर के अधिकारी को दिया गया है। ऐसा इसलिए किया गया है कि इन अधिनियम बनाने वालों को यह आभास था कि इन अभियोगों का दुरुपयोग हो सकता है अतः डीएसपी स्तर के अधिकारी द्वारा जब विवेचना होगी तो विवेचना सूबूतों के आधार पर निष्पक्ष और युक्तियुक्त होगी और इन अधिनियमों का दुरुपयोग नहीं होगा। लेकिन वास्तव में से ऐसा हुआ नहीं। जितना अधिक दुरूपयोग इन दो कानूनों, एससीएसटी एक्ट और दहेज निषेध अधिनियम का हुआ है, उतना किसी भी कानून का मेरी समझ मे नहीं हुआ है। इसीलिए प्रारम्भ में सामाजिक न्याय को बनाये रखने के उद्देश्य से लाया गया यह कानून सामाजिक ताने बाने को ही यदाकदा नुकसान पहुंचाने लगा। बड़ी जातियों ने भी अपनी निजी खुन्नस और ईर्ष्या निकालने के लिये इस अधिनियम का दुरुपयोग, अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों को आगे रख कर खूब किया। जिन्हें ग्रामीण समाज का अनुभव है वे मुझसे सहमत होंगे।
इस कानून पर अभी सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय से विवाद भी उठ खड़ा हुआ है। डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन महाराष्ट्र सरकार में तकनीकी शिक्षा निदेशक के पद पर जब कार्यरत थे तब उन्हें एससी/एसटी एक्ट कानून के उल्लंघन का आरोपी बना दिया गया था क्योंकि उन्होंने एक स्टोर कीपर की शिकायत पर विभाग के दो अधिकारियों के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी थी। प्रकरण इस प्रकार है,। महाराष्ट्र के तकनीकी शिक्षा निदेशालय में एक स्टोर कीपर नियुक्त थे, जो अनुसूचित जाति के थे। उनकी चरित्र पंजिका में उसके वरिष्ठ अधिकारी ने कुछ गोपनीय प्रतिकूल प्रविष्टि दे दी। स्टोर कीपर ने उक्त अधिकारियों के खिलाफ यह आरोप लगाया कि यह प्रतिकूल प्रविष्टि जातिगत आधार पर उन्हें दी गयी है और एससीएसटी एक्ट में दिये गए प्राविधानों के अनुसार, उक्त अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये तकनीकी शिक्षा निदेशक से अनुमति मांगी तो डॉ महाजन ने अनुमति नहीं दी। स्टोरकीपर ने फिर तकनीकी शिक्षा निदेशक, डॉ महाजन के विरुध्द अधिनियम की धारा 4 के अंर्तगत कार्यवाही करने के लिये पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी। इस एफआईआर को अदालत से खारिज कराने के लिए डॉ महाजन ने हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की। लेकिन बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एफआईआर रद्द करने सेे इनकार कर दिया था। डॉ महाजन के विरुद्ध अधिनियम के धारा 4 के अंतर्गत अंतर्गत पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया था। अधिनियम की धारा 4 (कर्तव्यों की उपेक्षा के दंड) के अनुसार कोई भी सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं, अगर वह जानबूझ कर इस अधिनियम के पालन करनें में लापरवाही करता हैं तो वह दण्ड का भागी होता। उसे छः माह से एक साल तक की सजा दी जा सकती हैं।
स्टोरकीपर का कहना था कि उन गैर अनुसूचित जाति के अधिकारियों ने उन पर जातिसूचक टिप्पणी की थी, और डॉ महाजन ने जानबूझकर उक्त अधिकारियों जिन्होंने गोपनीय प्रतिकूल प्रविष्टि दी थी, के विरुद्ध कुछ नहीं किया, इस पर उनका यह कृत्य को इस धारा के अंतर्गत कानून का उल्लंघन करता है जो दंडनीय अपराध है।
इस पर डॉ महाजन का तर्क था कि, यह बात सही है कि गैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति ( स्टोरकीपर ) की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ टिप्पणी की थी। जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने उक्त अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए उनके इजाजत मांगी तो इजाजत उन्होंने इजाज़त नहीं दी। डॉ महाजन का कहना है कि
" अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल जो जाएगा। "
हाईकोर्ट से राहत न मिलने पर, डॉ महाजन ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की।
सुप्रीम कोर्ट ने डॉ महाजन की याचिका पर सुनवाई करते हुए डॉ महाजन को राहत दी, और अधिनियम के विभिन्न प्राविधानों पर अपनी व्यवस्था दी जिसमे, एससी/एसटी ऐक्ट में तत्काल गिरफ्तारी न किए जाने का आदेश भी दिया था। इसके अलावा एससी/एसटी ऐक्ट के तहत दर्ज होने वाले अभियोगों में अग्रिम जमानत के प्राविधानको भी जोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आदर्श गोयल और यूयू ललित की बेंच ने इस मुक़दमे की सुनवायी की और अपने फैसले में कहा कि,
" कई मामलों में निर्दोष नागरिकों को आरोपी बना दिया जाता है और सरकारी कर्मचारी डर से अपने कर्तव्य को अंजाम नहीं दे पाते, जाहिर सी बात है एस/एसटी कानून बनाते समय विधायिका की ऐसी नीयत नहीं होगी। न्यायिक समीक्षा में प्रथम दृष्टया मामला यदि झूठा लगता है तो अग्रिम जमानत दी जा सकती है। इस कानून के उल्लंघन करने वाले सरकारी कर्मचारी को उसके अप्वाइंटिंग अथॉरिटी और सामान्य नागरिक को एसएसपी की मंजूरी के बाद ही गिरफ्तार किया जाएगा। "
संक्षेप में, सुप्रीम कोर्ट ने निम्न व्यवस्था दी,
1. तत्काल गिरफ्तारी से राहत, जांच के बाद गिरफ्तारी की जाय।
2. डीएसपी लेवल के पुलिस अधिकारी द्वारा जांच अनिवार्य।
3. 7 दिन के भीतर जांच कर तथ्यों का पता लगाया जाय।
4. सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए अप्वाइंटिंग अथॉरिटी से और सामान्य नागरिक को गिरफ्तार करने के लिए जिले के एसएसपी की इजाजत जरूरी होगी।
5. मौजूदा कानून में कोई बदलाव नहीं, सिर्फ तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान में ढील
6. मामले में अग्रिम जमानत मिल सकती है, बशर्ते न्यायिक समीक्षा के दौरान प्रथम दृष्टया मामला झूठा लगे तो ।
ज्ञातव्य है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दर्ज होने वाले मुकदमों में अग्रिम जमानत का प्राविधान अधिनियम में ही नहीं है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की खामी पाते हुए जोड़ दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में तत्काल स्वतः गिरफ्तारी की बजाय पुलिस को 7 दिन के भीतर जांच करनी चाहिए और फिर आगे कार्यवाही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी कहा कि सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती। गैर-सरकारी कर्मी की गिरफ्तारी के लिए, जिले के एसएसपी की मंजूरी जरूरी होगी। इन सारे परिवर्तन के पीछे सुप्रीम कोर्ट की यह धारणा थी कि इससे इस अधिनियम का दुरुपयोग रुक सकेगा।
इस फैसले के खिलाफ दलित संगठनों और राजनीतिक दलों ने विरोध प्रदर्शन करने शुरू कर दिये। दलित संगठनों और कई राजनीतिक दलों की ओर से केंद्र सरकार से इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग भी की गई। इसके बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से कहा गया कि सरकार इस मसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगी। दलित संगठनों का यह कहना है कि इस परिवर्तन से 1989 का अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, जिन उद्देश्यों के लिये बनाया गया था, कमजोर पड़ जाएगा। जिससे उत्पीड़न कम नहीं और बढ़ जाएगा। इस ऐक्ट के सेक्शन 18 के तहत ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत का प्रावधान इस लिये नहीं है कि असरदार लोग इस प्राविधान की आड़ में अपने रसूख और धनबल का दुरुपयोग करेंगे। ऐसे में इस छूट का लाभ उठाकर अपराधियों के लिए बच निकलना आसान हो जाएगा। क्यों कि इस अधिनियम में अभियुक्त असरदार, दबंग और रसूख वाले ही होंगे। इसके अलावा सरकारी अफसरों के खिलाफ केस में अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी को लेकर भी दलित संगठनों का कहना है कि उसमें भी भेदभाव किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि नियोक्ता अधिकारी गिरफ्तार करने की अनुमति ही न दे और गिरफ्तारी के भय से मुक्त अभियुक्त, पीड़ित और गवाहों पर मुकदमा वापस लेने के लिये अनुचित दबाव दे। इसी प्रकार के अनेक तर्क दिये गए।
जब चुनाव निकट हों तो आरक्षण और अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न का मामला अक्सर ज़ोर पकड़ लेता है। इस बार भी यही हुआ। केंद्र सरकार, चारों तरफ से होने वाली आलोचना से घिर गयी और उसने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को रद्द करने के लिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधित बिल, 2018 संसद में प्रस्तुत किया। पहले यह कहा गया था कि सरकार अध्यादेश लाएगी, पर जब संसद का अधिवेशन चल रहा हो तो, अध्यादेश नहीं लाया जा सकता है तो निम्न संशोधन हेतु बिल लाया गया।
1. इस तरह के अपराध की शिकायत मिलते ही पुलिस एफआईआर दर्ज करे. केस दर्ज करने से पहले जांच जरूरी नहीं।
2. गिरफ्तारी से पहले किसी की इजाजत लेना आवश्यक नहीं है।
3. केस दर्ज होने के बाद अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं होगा. भले ही इस संबंध में पहले का कोई अदालती आदेश हो।
यह बिल अभी संसद में ही है। लेकिन इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो अधिनियम और सीआरपीसी दंड प्रक्रिया संहिता में न हो। एफआईआर तो हर संज्ञेय अपराध की लिखी जानी ही चाहिये, और यह आदेश सभी अपराधों के लिये है। गिरफ्तारी तो विवेचना में आये साक्ष्यों के आधार पर विवेचक द्वारा किये जाने का प्राविधान है। मुकदमा कायम होते ही स्वतः गिरफ्तारी का कोई प्राविधान विधि सम्मत नहीं हो सकता है क्यों कि बिना सुबूत के अगर गिरफ्तारी होगी तो अभियुक्त को जमानत आसानी से मिल जाय करेगी।
अब जरा इस अधिनियम में अदालतों से सजा कितनी दी, इस विंदु पर भी नज़र डाल लें। 2014 से तीन सालों का जो आंकड़ा है उसके अनुसार एससीएसटी एक्ट के 16.3 % मामलों में सज़ायाबी हुई है। यह आंकड़ा भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आंकड़ो के आधार पर है। अन्य अपराधों में सज़ायाबी का प्रतिशत 29.4 है जब कि इस अधिनियम के अंर्तगत सज़ायाबी इससे कम है। लेकिन अन्य परंपरागत अपराध, जैसे हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, भीड़हिंसा आदि में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुयी है। अब जरा इस अवधि में दर्ज अभियोगों को देखें। जातिगत दंगो के आंकड़ो को देखें तो उनमें क्रमशःवृद्धि हुयी है। 2014 में जातिगत दंगो के 833 मामले दर्ज हुये, जब कि 2015 में 1465, और 2016 में 1725 अभियोग दर्ज हुये थे। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2016 में, 2015 के मुकाबले अनुसूचित जाति के ऊपर उत्पीड़न की घटनाओं में 5.5 % की वृद्धि हुयी है। 2015 में कुल 40,801 मामले प्रकाश में आये थे जब कि 2014 में दर्ज हुये मामलों की संख्या 36,670 थी। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार एक लाख अनुसूचित जाति की आबादी पर कुल 20.3 % का अपराध दर है। ये आंकड़े यह बताते हैं कि उत्पीड़न, तमाम कड़े और असामान्य प्राविधानों के बावजूद भी घट नहीं रहे हैं।
1990 से लागू यह कानून अनुसूचित जाति जनजाति का उत्पीड़न क्यों नहीं रोक पा रहा है यह सवाल इस तथ्य को भी उजागर करता है कि कानून बना देने से ही कोई अपराध या किसी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अगर ऐसा होता तो सभी धर्मों में पाप के लिये दंड और प्रायश्चित के विधान हैं पर न तो पाप कम हुआ है और न पापोन्मुखी प्रवित्ति। उत्पीड़न की यह मनोवृत्ति समाज की विकृति है, जिसे हम अपराध और दंड के सनातन शासकीय दर्शन से दूर करने का प्रयास करते रहते है।
© विजय शंकर सिंह
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