Tuesday 7 August 2018

एक कविता - पाखंड / विजय शंकर सिंह

मुजफ्फरपुर, फिर देवरिया और अब हरदोई,
शनैः शनैः शर्मिंदगी हमारी
बढ़ती जा रही है।
और उनकी विद्रूप खिलखिलाहट
और अट्टहास,
उनके पत्थर होने का सुबूत दे रहे हैं।
जब तक ऐसे दरिंदे ज़ीवित हैं,
स्त्री को महिमामण्डित करती ऋचाएं,
श्लोक और कविता पढ़ना
और कन्या पूजन, पाखण्ड ही है।

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment