Monday 27 August 2018

भारत पाक का साझा सैनिक युद्धाभ्यास - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

यह खबर थोड़ी हैरान करने वाली है तो थोड़ी उम्मीद भी बढ़ाती है। खबर है कि, भारत पाक एक साथ साझा युद्धाभ्यास करेंगे। हैरानी इसलिए हुयी कि दोनों ही देशों की सेनाएं पिछले सत्तर सालों में चार बड़ी लड़ाइयां प्रत्यक्षतः लड़ चुकी हैं और प्रच्छन्न युद्ध तो रोज़ ही लड़ रही हैं। ऐसे शत्रुतापूर्ण वातावरण में क्या शत्रुदेश की सेना के साथ इस प्रकार का साझा युद्धाभ्यास करना सैनिक, कूटनीतिक और राजनीतिक दृष्टि से उचित रहेगा ? क्या इससे हमारे सैन्य सीक्रेट्स के खुल जाने का कोई खतरा तो नहीं रहेगा ? लेकिन एक उम्मीद भी बंधती है कि इस साझे सैनिक युद्धाभ्यास का उद्देश्य एक दूसरे की रणनीति और सीक्रेट जानना नहीं बल्कि मानवता के साझे दुश्मन आतंकवाद से मुकाबला करने हेतु तैयार होना है। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में आतंकी घटनाएं नहीं होती हैं। वहां भी खूब आतंकी घटनाएं होती हैं, और निरीह जनता का खून वहां भी आतंकवादियों ने बहाया है, पर पाकिस्तान आतंकवाद को भी दोहरी नज़र से देखता है। एक अच्छा आतंकवाद दूसरा बुरा आतंकवाद। जो आतंकवाद भारत की ज़मीन पर वह निर्यात करता है और जो भारतीयों का खून बहाता है, वह आतंकवाद पाकिस्तान की नज़र में अच्छा आतंकवाद है, और जो पाकिस्तान के अंदर दहशतगर्दी फैलाता है वह बुरा आतंकवाद होता है। इसी सिद्धांत पर पाकिस्तान खुद को भी आतंकवाद से पीड़ित तो बताता है, पर जब भारत उसे अपनी पीड़ा से अवगत कराता है तो वह उस आतंकी घटना से तेजी से पल्ला झाड़ लेता है, जबकि भारत ने अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचो पर यह प्रमाणित कर दिया है कि भारत मे आतंकवाद की विषबेल न केवल पाक प्रायोजित है बल्कि इसमे पाकिस्तान सेना की सक्रिय सहभागिता भी है। यह सैन्य अभ्यास शंघाई योजना का एक हिस्सा है। दुनियाभर में विभिन्न देशों की सेनाएं आपस में सैन्य अभ्यास करती रहती हैं यह कोई असामान्य सी बात नहीं है। असामान्य बात है घोषित शत्रु देश की सेना के साथ सैन्य अभ्यास। वैसे भारत और पाक सेना की विरासत ब्रिटिश सैन्य परंपरा की साझी विरासत है। रैंक, ड्रिल मैनुअल, मानसिकता, प्रशिक्षण के तरीके, आदि सब एक ही जैसे हैं। चार चार युद्धों के बाद भी भारत पाक की आपसी शत्रुता अपना समाधान नहीं खोज पायी है। पर विडम्बना यह भी है कि तिजारती दृष्टिकोण से पाकिस्तान हमारा सबसे प्रिय मुल्क भी है। बिल्कुल फ़िल्म लीडर के गाने हमीं से मुहब्बत हमीं से लड़ाई की तरह !


यह सैन्य अभ्यास रूस में आयोजित है, जिसमें भारत, पाकिस्तान और चीन के साथ शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के सभी देश शामिल हैं। SCO चीन के वर्चस्व वाला सुरक्षा समूह है, जिसे अब नाटो की बराबरी कर सकने वाली संस्था के तौर पर देखा जा रहा है। नाटो ( NATO ) अमेरिकी वर्चस्व का सैन्य संगठन है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया मे लगभग सभी क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन हुये। एशिया में दो सबसे बड़े देश, भारत और चीन आजाद हुए। भारत तो ब्रिटिश सत्ता का गुलाम था, जिसे उस गुलामी से आज़ादी मिली, पर चीन किसी मुल्क की गुलामी से आज़ाद नहीं हुआ बल्कि वहां रूस की तर्ज़ पर कम्युनिस्ट क्रांति हुयी। माओ चे दुंग के नेतृत्व में हुई कम्युनिस्ट क्रांति ने च्यांग काई शेक का तख्ता पलट दिया और च्यांग काई शेक, इस उम्मीद में चीन की मुख्य भूमि से भाग कर फ़ार्मूसा जो अब ताइवान कहा जाता है, पलायित कर गए कि वह बाद में अमेरिकी मदद से चीन की मुख्य भूमि से माओ और उनके कम्युनिस्ट तंत्र को बेदखल कर देंगे, लेकिन अब न च्यांग काई शेक रहे और न उनकी इस इच्छा के पूरी होने की कोई उम्मीद ही बची। रूस के साथ पूर्वी यूरोप के कई छोटे छोटे देश कम्युनिस्ट बन गए और चीन के कम्युनिस्ट बन जाने के बाद दुनिया मे पूंजीवाद के विरुध्द जो एकजुटता और माहौल बन रहा था, उसने अमेरिका जो यूरोपीय उपनिवेशवादी ताकतों, इंग्लैंड फ्रांस डच, पुर्तगाल आदि के पतन के बाद दुनिया मे सबसे अधिक ताकतवर होकर उभर रहा था, ने बढ़ते हुये कम्युनिस्ट आंदोलन के विरुद्ध एक सैन्य सन्धि करके एक गुट बनाने का फैसला किया। जिसकी परिणति नाटो के रूप में हुई।

नाटो ( NATO ) यानी उत्‍तरी एटलांटिक संधि संगठन ( नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन ) एक सैन्य गठबंधन है, जिसकी स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हुई थी। इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स, बेल्जियम में है। बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड्स, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड स्टेटस ऑफ अमेरिका, ये 12 देश नाटो के संस्थापक सदस्य बने। 1952 में ग्रीस और तुर्किस्तान इस संगठन में शामिल हुआ। बाद में 1955 में पश्चिम जर्मनी और 1982 में स्पेन भी नाटो का सदस्य बन गया। इस संगठन ने सदस्य देशों के लिये सामूहिक सुरक्षा की एक व्यवस्था बनाई है, जिसके तहत सभी सदस्य राज्य बाहरी हमले की स्थिति में एक दूसरे का सहयोग करने के लिए सहमत होंगे। द्वीतीय विश्व युद्ध मे रूस भी धुरी राष्ट्रों, ( जर्मनी, इटली जापान ) के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों, ( यूके, यूएसए, फ्रांस,और चीन ) के साथ था। युद्ध मे धुरी राष्ट्रों की बुरी तरह पराजय हुयी और उन्होंने जो क्षेत्र यूरोप और एशिया में जीते थे, उनमें कुछ पर सोवियत रूस का कब्ज़ा हो गया। जब युद्ध समाप्त हुआ तो रूस का अमेरिका और अन्य मित्र राष्ट्रों से जो वैचारिक मतभेद था, वह पुनः सतह पर आ गया। रूस पहले ही द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल नहीं हुआ था, बल्कि जब हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया तब रूस को मित्र देशों में शामिल होना पड़ा था। अमेरिका भौगोलिक रूप से युद्ध के वास्तविक क्षेत्र से बहुत दूर था, पर रूस द्वारा निकटवर्ती होने के कारण रूस ने पूर्वी यूरोप के कई हिस्सों और पूर्वी मोर्चे पर धुर पूर्वी एशिया में उसने काफी इलाके जीत लिये थे। युद्ध के बाद रूस ने पूर्वी यूरोप से अपने द्वारा जीते गये इलाके छोड़ने से इनकार कर दिया तब कम्युनिस्ट प्रसार की संभावना को रोकने के लिये अमेरिका और ब्रिटेन के नेतृत्व में यह संगठन खड़ा किया गया और इसका केंद्र रूसी सीमा के निकट ब्रुसेल्स में रखा गया। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर साम्यवाद के विरोध का नारा दिया और यूरोपीय देशों को साम्यवादी खतरे से सावधान किया । अमेरिका की इस पहल से यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा रूसी अतिक्रमण या आक्रमण के समय करे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिम यूरोपीय देशों ने अत्यधिक नुकसान भी उठाया था क्योंकि उन्हीं मुल्कों पर हिटलर की मार भी बहुत अधिक पड़ी थी। अतः अपने आर्थिक पुननिर्माण के लिए उन्हें अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा के रूप में भी दिखा। ऐसे में अमेरिका द्वारा नाटों की स्थापना का उन्होंने समर्थन किया।

नाटो के गठन के निम्न उद्देश्य रखे गए ~
1. यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका निभाना।
2. सोवियत संघ के पश्चिम यूरोप में तथाकथित विस्तार को रोकना तथा युद्ध की स्थिति में लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना।
3. सैन्य तथा आर्थिक विकास के लिए अपने कार्यक्रमों द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा छत्र प्रदान करना।
4. पश्चिम यूरोप के देशों को एक सूत्र में संगठित करना।
5. इस प्रकार नाटों का उद्देश्य "स्वतंत्र विश्व" की रक्षा के लिए साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए और यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया।

इसी प्रकार का एक और संगठन सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन सेंटो के नाम से बना जो 1955 से 1979 तक अस्तित्व में रहा जिसे बगदाद पैक्ट कहा गया। इसमे, टर्की,ईरान,ब्रिटेन, इराक और पाकिस्तान शामिल थे। 1979 में जब अयोतोल्लाह खोमैनी की इस्लामी क्रांति ने ईरान के शाह पहलवी को अपदस्थ कर दिया तो ईरान के निकल जाने पर यह संगठन स्वतः टूट गया। इस सैन्य संगठन का भी उद्देश्य मध्य पूर्व के तेल क्षेत्रों में सोवियत प्रसार को रोकना था। यह शीत युद्ध का काल था। इसी काल मे दुनिया की सबसे ताकतवर खुफिया एजेंसी अमेरिका की सीआईए और रूस की केजीबी के बीच ज़बरदस्त प्रतिद्वंद्विता हुयी। यह दरअसल पूंजीवादी और सामाजवादी व्यवस्था की आपसी लड़ाई थी।1959 में इराक़ इस संगठन से निकल गया और अमेरिका इस संगठन का सहयोगी सदस्य बना। इसका मुख्यालय टर्की के अंकारा में बनाया गया था। अंकारा रूसी सेना के निकट भी था।

NATO नाटो, CenTO सेंटो के बाद एक और सैन्य गठबंधन चीन के नेतृत्व में अस्तित्व आया जिसे SCO एससीओ, जिसे शंघाई कोऑपरेशन  ऑर्गेनाइजेशन कहा गया । इसे शंघाई पैक्ट भी कहा गया है। 15 जून 2001 में शंघाई में चीन , कज़ाकिस्तान, रूस, किर्गिजिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ने एक चार्टर पर जून 2002 में हस्ताक्षर किये और 19 सितंबर 2003 को यह संगठन उसी चार्टर की शर्तों के अनुसार, औपचारिक रूप से अस्तित्व में आया। इसी चार्टर में सभी सहयोगी देशों की साझा सैन्य अभ्यास की भी बात की गयी है। इन सैन्य अभ्यासों का मुख्य उद्देश्य आतंकवाद के विरुद्ध सेना को सतर्क और तैयार रखना भी है। 9 जून 2017 को आस्ताना, कज़ाकिस्तान में आयोजित संगठन की बैठक में, भारत और पाकिस्तान ने भी इस चार्टर पर हस्ताक्षर करके खुद को उस संगठन में शामिल कर लिया। इस संगठन को एशिया का संगठन भी कहते है क्यों कि इसमें सभी देश एशिया महाद्वीप के ही हैं। यह संगठन क्षेत्रफल के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है जिसमे यूरोप और एशिया को मिला कर इनके कुल क्षेत्रफल का दो तिहाई भाग इस संगठन में हैं। और आबादी के लिहाज से दुनिया की आधी आबादी इसके अंतर्गत देशों की है। इस समय यह दुनिया का सबसे ताकतवर और प्रभावी संगठन है। संगठन का मुख्यालय बीजिंग में हैं। यह संगठन मुख्य रूप से चीनी हितों के साथ ही रहेगा। चीन की अत्यंत महात्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड योजना, जो चीन को सीधे पूर्वी यूरोप से जोड़ने के उद्देश्य से बनायी जा रही है, के माध्यम से चीन स्वयं को एशिया के एक दृढ़ शक्तिकेन्द्र के रूप में पहचान दिलाने के लिये तत्पर है। पाकिस्तान, चीन के पूरी तरह कब्जे में हैं, उज्बेकिस्तान, किर्गिजिस्तान, ताजिकिस्तान आदि भौगोलिक रूप से चीन के अधिक करीब है। उसने नेपाल, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका और बांग्लादेश को भी अपनी सरपरस्ती में लेने की चाल चल दी है, इससे उसकी महत्वाकांक्षा और इरादे का पता लगता है। एससीओ में शामिल हो कर भारत भी अब उस संगठन का एक सदस्य हो गया है।

इस बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास जिसका एक मकसद आतंकवाद से निपटने के लिए भी है, रूस के उराल पर्वत क्षेत्र पर हो रहा है। इसमे एससीओ के करीब सभी सदस्य सम्मिलित हैं। भारतीय सैन्य अधिकारियों के मुताबिक शांति मिशन के इस अभ्यास का मुख्य मकसद एससीओ के आठ सदस्य देशों के बीच आतंकवाद से निपटने के लिए आपसी सहयोग बढ़ाना है । रूस में चेल्याबिंस्क स्थित चेब्राकुल इलाके में पीस मिशन -2018 के बैनर तले शुक्रवार से यह युद्धाभ्यास शुरू हो चुका है। सेना के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने बताया, इस अभ्यास में एससीओ देशों को आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाने का प्रशिक्षण मिलेगा जिसमें सेनाओं के बीच पेशेवर वार्ता, ऑपरेशंस में आपसी समझदारी, ज्वाइंट कमांड स्थापना, और आतंकी खतरों से निपटने को लेकर मॉक ड्रिल जैसे अभ्यास किए जाएंगे। एक अधिकारी के मुताबिक भारतीय सैनिकों ने इससे पहले कभी किसी ऐसे बहुराष्ट्रीय सैन्य युद्धाभ्यास में हिस्सा नहीं लिया है जिसमें पाकिस्तान भी साथ रहा हो। हालांकि दोनों देशों की सेना ने संयुक्त राष्ट्र मिशन में जरूर साथ-साथ काम किया है। भारत की तरफ से युद्धाभ्यास को भेजे गए कुल 200 सैनिकों में 167 थलसेना के और 33 वायुसेना के जवान शामिल हैं।

भारत पाक साझे युद्धाभ्यास की सूचना पर भारत मे मिश्रित प्रतिक्रिया हुयी । राजनयिक प्रतिक्रिया तो यह हुयी कि क्या इस युद्धाभ्यास से भारत को उसका अभीष्ट प्राप्त हो जाएगा ? एक बात तो तय है कि भारत मे होने वाली अधिकतर आतंकवाद की घटनाएं, पाकिस्तान प्रायोजित ही नहीं, पाक सेना की सक्रिय सहभागिता से होती हैं। जब तक पाकिस्तान अपने देश के आतंकी संबठनों जिनके नेता अक्सर भारत विरोधी विचार खुल कर व्यक्त करते हैं पर नकेल नहीं कसेगा तब तक भारत मे होने वाली आतंकी घटनाएं रोकी नहीं जा सकेंगी। आज भी हाफ़िज़ सईद और मसूद अजहर के खिलाफ पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मंचो पर अपनी आलोचना के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की है, क्योंकि सेना उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करना चाहती है। आतंकवाद के इस गंभीर मुद्दे पर चीन ने पाकिस्तान का हर कदम पर साथ दिया है और उसने ऐसा कोई संकेत भी अभी तक नहीं दिया है जिससे यह समझा जाए कि वह आगे पाकिस्तान का साथ नहीं देगा। साझा सैन्य अभ्यास साझे युद्धकला और कौशल को तो समृद्ध करेगा पर यह पाकिस्तान की सेना की मानसिकता भी बदल देगा, यह संभव नहीं है। जो देश इस साझे अभ्यास में भाग ले रहे हैं उसमें भारत ही सबसे प्रमुख देश है जो आतंकवाद का दंश पिछले चालीस साल से झेल रहा है। कल क्या बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे यह अभी नहीं कहा जा सकता है। अभी साझा सैन्य अभ्यास शुरू हुआ है। सरकार ने निश्चित रूप से ऐसा महत्वपूर्ण और संवेदनशील निर्णय लेने के पूर्व कुछ न कुछ रणनीति बनाई होगी। उम्मीद है आतंकवाद के खिलाफ यह साझा सैन्य अभ्यास अपना लक्ष्य प्राप्त करेगा।

© विजय शंकर सिंह

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