Thursday 9 August 2018

26 मार्च, 1959 को दलाई लामा द्वारा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखा एक पत्र / विजय शंकर सिंह

यह पत्र एक दस्तावेज है। दलाई लामा का यह पत्र पढ़ने के पूर्व आप उनकी आत्मकथा फ्रीडम इन एक्ज़ाइल का उनके ल्हासा से निकल भागने की रोमांचक कथा भी पढ़ें। उस समय के घटनाक्रम के अनुसार, चीन ने तिब्बत को अपने अधिकार में लेना शुरू कर दिया था। तिब्बतियों के धर्म और सत्ता प्रमुख, 14 वें दलाई लामा तिब्बत से भाग कर अपने अनुयायियों के साथ हिमालय में भटक रहे थे। चीन वे जा नहीं सकते थे, और कोई अन्य देश इतना नज़दीक था भी नहीं जहां उन्हें शरण मिलती। बर्मा इंडोनेशिया आदि बौद्ध देश थे ज़रूर, पर वे तिब्बत की सीमा से बहुत दूर थे। 1947 में भारत आज़ाद हुआ था और 1948 में चीन में साम्यवादी क्रांति हुयी थी। माओ ने जब चीन में अपनी सत्ता जमाने के बाद, तिब्बत की ओर रुख किया तो हिमालय के इस विस्मृत शहर ल्हासा में चीनी गतिविधियां बढ़ने लगी। तिब्बत जिसे प्रकृति ने प्राकृतिक सुरक्षा कवच दे रखा था, आधुनिक वैज्ञानिक रक्षा उपकरणों के कारण अब दुर्लंघ्य नहीं रहा। ऐसी ही परिस्थितियों में एक सर्द और बर्फीली रात्रि में दलाई लामा ने ल्हासा से महाभिनिष्क्रमण कर दिया। 


यह पत्र दलाई लामा द्वारा दक्षिण तिब्बत के लहुँत्से दजोंग Lhuntse Dzong नामक स्थान से लिखा गया है। तब दलाई नामा जलावतन थे और ठिकाना ढूंढ रहे थे। वे भारत मे अस्थायी शरण चाहते थे। यह पत्र पढ़ने के पूर्व, इस पत्र की पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है। यह पृष्ठभूमि उनकी आत्मकथा, फ्रीडम इन एक्ज़ाइल Freedom In Exile के आधार पर प्रस्तुत है। दलाई लामा ने अपने पलायन का इस आत्मकथा में विवरण दिया है। 

दलाई लामा के अनुसार, 
पहले मेरा उद्देश्य था कि मैं लहुँत्से दजोंग जो भारतीय सीमा के निकट था, पहुंच कर कुछ समय के लिये रुक जाऊं। वहां मैं तिब्बत के आंतरिक प्रशासन को चुस्त दुरुस्त करने के लिये, अपने सत्रह सूत्री कार्यक्रम को पुनर्स्थापित करूँ, औऱ अपनी सरकार को दृढ़ बनाऊं। ( यह 17 सूत्री कार्यक्रम तिब्बती मंत्रिमंडल कशाग की सहमति से तिब्बत की आंतरिक व्यवस्था को चीनी हमले के परिपेक्ष्य में तैयार किया गया था। ) फिर मैं चीन के नेताओं से तिब्बत के संबंध में खुल कर बात करूं। लेकिन ल्हासा छोड़ने के पांचवें दिन ( पांच दिन की यात्रा के बाद दलाई लामा लहुँत्से दजोंग पहुंचे थे ) ही एक घुड़सवार दस्ता यहां आया जिइसे एक भयावह संदेश हमे मिला।  उन्होंने बताया कि ल्हासा से निकलने के अड़तालीस घण्टे बाद 19 मार्च 1959 को चीन ने नॉर्बुलिंगका नामक शहर पर गोलाबारी शुरू कर दी। उन्होंने निहत्थे लोगों पर मशीनगनों से फायर करना शुरू कर दिया था। मेरी सबसे बुरी आशंका सच होने वाली है, यह मेरे लिये बहुत बुरी खबर थी, मुझे लगा कि ऐसे बर्बर, क्रूर और अपराधी लोगों ( यह बात वे चीनी सेना और शासकों के लिये कह रहे हैं ) से किसी भी प्रकार का समझौता असम्भव है। अब मेरे पास यहां ( तिब्बत की सीमा ) से निकल भागने के अतिरिक्त कोई भी चारा नहीं था, और भारत की सीमा अभी दूर थी। वहां तक पहुंचने के लिये कई दिनों की यात्रा अभी करनी होगी तथा, अनेक ऊंची ऊंची और दुर्गम पर्वत श्रृंखलायें भी पार करनी है, जबकि मेरे पास समय बहुत ही कम है।

जब हम एक सप्ताह की यात्रा के बाद लहुंत्से देजोंग पहुंचे तो हमने दो रातों तक वहां विश्राम किया। यहीं मैंने अपनी सत्रह सूत्रीय कार्ययोजना को अंतिम रूप देने की बात सोची थी। यहीं पर मैंने अपने सरकार की घोषणा करने की भी योजना बनायी थी। वहां इस कार्यक्रम को पूरा करने के लिये तिब्बत से एक हज़ार लोगों की भीड़ वहां पहुंच गई थी। यहीं यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मैं यहाँ अभी और कुछ दिनों के लिये रुकना चाहता था। लेकिन तभी मुझे पता लगा कि चीनी सेना को हमारी इन राजनैतिक गतिविधियों और उपस्थिति की भनक लग गयी है, और अब यहां रुकना निरापद नहीं है। हमलोगों ने अनमने मन से भारत की सीमा की ओर बढ़ने की तैयारी शुरू कर दी। भारत की सीमा नक्शे पर सीधी रेखा में 60 मील दूर थी। पर पहाड़ों पर कोई सीधा रास्ता तो होता नहीं। एक के बाद एक पड़ने वाली ऊंची पर्वत श्रेणियाँ इस दूरी को और कठिन तथा लंबी बना देती हैं। यह सारी यात्राएं हमे अपने खच्चरों से ही पूरी करनी थी जो लम्बी और कठिन चढ़ाई से थक जाते थे और उनके लिये चारा भी कम था। मैंने कुछ मज़बूत लोगों को भारत सीमा की ओर पहले रवाना किया और उनसे कहा कि वे वहां ( भारतीय सीमा पर ) पहुंच कर भारतीय अधिकारियों से संपर्क करें और उन्हें बताएं कि मैं राजनीतिक शरण लेने के उद्देश्य से भारत आ रहा हूँ।

लहुंत्से दजोंग से निकल कर हम, झोरा नामक एक गांव में पहुंचे, और उसके बाद हमे कारपो दर्रा पास करना था। इस दर्रे के पार करने के बाद एक लंबी चढ़ाई पड़ती है जो भारत के मार्ग का सबसे ऊंचा स्थान था। जब हम पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर थे, तो, हमें एक बुरा झटका लगा। हमे अपने ऊपर आकाश में विमान गुजरने की आवाज़ सुनाई दी, और ऊपर घूमता हुआ विमान भी दिखा। हालांकि हम पत्थरों की आड़ में थे, फिर भी मुझे यह आशंका होने लगी थी कि यह चीनी वायुसेना का विमान है जो हमारी टोह लेने आया है। विमान का ऊपर से गुजरना अच्छा संकेत नहीं था। अगर यह विमान चीन का ही है तो यह भी हो सकता हो, कि उन्होंने हमें देख और पहचान लिया है, और यह भी हो सकता है कि वे हम पर हमला कर दें। ऐसी स्थिति में हम सब के पास अपनी सुरक्षा के लिये कोई भी इंतेज़ाम नहीं था। यह विमान किसी का भी हो पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अब मेरा तिब्बत में रहना बिलकुल भी निरापद नहीं है। अब भारत ही मेरी अंतिम आशा था।

.थोड़ी देर बाद जिस अग्रिम दस्ते को लहुंत्से दजोंग से भारत की ओर भेजा गया था वह वापस जब हम उतर रहे थे तो मिला जो भारतीय अधिकारियों से मिल कर वापस आ रहा था। इन लोगों ने भारत के अधिकारियों से मुलाक़ात भी की और यह बताया कि भारत मुझे राजनीतिक शरण देने को सहमत है। यह समाचार मेरे लिये सुखद और राहत भरा था, क्योंकि मैं बिना वैध अनुमति के भारत मे प्रवेश करना नहीं चाहता था ।

दलाई लामा ने जवाहरलाल नेहरू को जो पत्र 26 मार्च 1959 को लिखा था, वह इस प्रकार है। पत्र तिब्बती भाषा में था, जिसके अंग्रेज़ी अनुवाद का मैं हिंदी अनुवाद कर रहा हूँ। अंग्रेज़ी में अनूदित यह पत्र भी इस लेख के अंत मे दे दे रहा हूँ।

सेवा में, 

पंडित जवाहरलाल नेहरू,

प्रधानमंत्री, भारत।

जब से तिब्बत, लाल चीन के नियंत्रण में आया है, और 1951 से तिब्बत सरकार ने अपना प्रभुत्व खोया है, तब से मैं और तिब्बत सरकार के अधिकारीगण तथा, तिब्बत के नागरिक, तिब्बत में शांति बनाए रखने के लिये अथक प्रयास कर रहे हैं, लेकिन चीन की सरकार तिब्बत सरकार के इस कदम में अक्सर बाधा डाल रही है। 

तिब्बतियों को बौद्ध धर्म के प्रति अगाध प्रेम औऱ विश्वास है, और उनके लिये उनका धर्म उनके जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। बौद्ध धर्म को समाप्त करने के लिये चीन की सरकार ने कुछ ऐसे लेख पत्र पत्रिकाओं में छपवाये हैं, जो बुद्ध के उपदेशों के सर्वथा विपरीत हैं और इनका प्रचार भी बहुत जोरों से किया जा रहा है। इससे तिब्बत में अप्रसन्नता का वातावरण बन रहा है और सभी ( तिब्बती नागरिक ) चीनी प्रशासन के इस कुकृत्य से नाराज़ हैं। 

10 मार्च 1959 को मैं, और कशाग ( तिब्बती सरकार का मंत्रिमंडल ) चीनी सेना के ल्हासा मुख्यालय पर एक सांस्कृतिक समारोह में भाग लेने के लिये आमंत्रित थे। तब मेरे पास ल्हासा की जनता के कई प्रतिनिधिमंडल आए और मुझसे उस कार्यक्रम में भाग न लेने के लिये कहा, उन्हें आंशका थी कि उक्त अवसर पर मेरे साथ कुछ भी दुर्घटना  घट सकती है। ( तिब्बती ) जनता ने ल्हासा की सड़कों पर जुलूस निकाला और खुल कर नारे लगाये कि वे चीन के अधीन नहीं रहेंगे और स्वतंत्र होना चाहते हैं। इसके बाद सेना की एक बड़ी टुकड़ी मेरे पास मेरी सुरक्षा के लिये आयी। 

तिब्बत की सरकार ने चीन से सामान्य सम्बंध बनाये रखने का भरसक प्रयास किया, लेकिन चीन ने तिब्बत सरकार की सारी शक्तियों को अपने अधिकार में कर लिया है, और वे युद्ध की भी तैयारी कर रहे हैं।

17.3.1959 को चीनियों ने मेरे आवास को निशाना बनाते हुए दो गोले दागे। हालांकि वे अधिक हानि नहीं पहुंचा सके, पर हमारा जीवन खतरे में था। मैं और मेरे कुछ विश्वस्त सहयोगी, रात में ही दस बजे आवास से निकल कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये और 26.3.1959 को लहुंत्से दजोंग पहुंच गए।

भारत और तिब्बत के धार्मिक संबंध हज़ार सालों से हैं और दोनों देश एक दूसरे के भाई हैं। इसके अतिरिक्त पंडित नेहरू और भारतीय लोग पूरी दुनिया मे मानवीय मूल्यों की सहायता के लिये जाने जाते हैं।

इन कठिन परिस्थितियों में हम भारत मे त्सोना के रास्ते से प्रवेश करेंगे। मुझे आशा है कि आप कृपा करके भारतीय सीमा में हमारे लिये सभी आवश्यक व्यवस्था करेंगे।
हमे आप की दयालुता पर विश्वास है और आप को मेरी शुभकामनाएं हैं।

दलाई लामा
तेनजिन ग्यात्सो
26.3.1959.।

दलाई लामा के भारत मे शरण लेने के संबंध में भारत सरकार की रिपोर्ट के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि, 27 मार्च 1959 को टीएस मूर्ति जो तवांग के सहायक राजनीतिक अधिकारी, ( असिस्टेंट पोलिटिकल ऑफिसर ) थे, ने दिल्ली से से दलाई लामा के भारत मे संभावित प्रवेश के निर्देश प्राप्त किये। वे दलाई लामा की अगवानी के लिये 31 मार्च 1959 को सुबह 9 बजे चुथांगमु नामक जगह जहां से दलाई लामा को तिब्बत से भारत की सीमा में प्रवेश करना था, पहुंच गए। दलाई लामा की एडवांस पार्टी जिसमे तिब्बत के कनिष्ठ अधिकारी थे, 29 मार्च को ही चुथांगमु पहुंच गयी थी। एडवांस पार्टी ने बताया कि 31 मार्च को दोपहर 2 बजे दलाई लामा और उनके परिवार सहित अन्य लोगों के पहुंचने की उम्मीद है।चीन को भनक न लगे इस लिये दलाई लामा की टोली में सामान ढोने वाले, पोर्टर कम है। यहां से उन्हें और अधिक पोर्टर की ज़रूरत पड़ेगी।

31 मार्च 1959 को 1400 बजे यानी 2 बजे दोपहर दलाई लामा और उनकी टोली, खेंज़ीमाने नामक स्थान जो भारत तिब्बत की सीमा पोस्ट थी पर पहुंची। दलाई लामा एक याक पर सवार थे और थके थे। वहीं तवांग के सहायक पोलिटिकल अधिकारी मूर्ति ने उनकी अगवानी की और बिना वहां रुके वहां से वे दलाई लामा की टोली के साथ तवांग के लिये रवाना हो गए। 
O
Here is the translation of the original letter in Tibetan. 

To 

Pt Jawaharlal Nehru
Prime Minister of India

Ever since Tibet went under the control of Red China and the Tibetan Government lost its powers in 1951, I, my Government officers and citizens have been trying to maintain peace in Tibet but the Chinese Government has been gradually subduing the Tibetan Government.

The Tibetans have great love for and faith in Buddhism and their religion is more precious to them than their lives. In order to root out Buddhism, the Chinese published some articles in the press against Lord Buddha’s teachings and circulated them widely. This has created unhappy atmosphere amongst the Tibetans and they have started disliking intensely the Chinese Administration.

On 10.3.1959, I, members of the Kashag and other high ranking officers were invited to the Chinese Army Headquarters in Lhasa ostensibly to attend a cultural show. The people of Lhasa came to me and requested me not to attend the function as they suspected foul play. They announced openly in the streets that they would not remain any longer under China and would become independent. After this a large armed party came to my residence to guard me.

The Government of Tibet have tried their best to maintain good relations with China but the Chinese have been trying to take away powers from the Tibetan Government and in some areas they are making preparations for war.

On 17.3.1959 at 4 p.m. the Chinese fired two shells in the direction of my residence. They could not do much damage. As our lives were in danger, I and some of my trusted [word missing] manage to escape the same evening at 10 p.m. and moving south to reach Lhuntse Dzong on 26.3.1959.

India and Tibet have had religious relations for thousand years and they are like brothers without any differences. Moreover Pt. Nehru as also the Indian people are known throughout the world for their support of humanitarian causes.

In this critical situation we are entering India via Tsona. I hope that you will please make necessary arrangements for us in the Indian territory.
Confident of your kindness and with good wishes,

Dalai Lama
Tenzin Gyasto
26.3.1959.
O
© विजय शंकर सिंह

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