Thursday, 2 August 2018

क्या हम, गिरोहबंद पूंजीवाद से होते हुए गिरोहबंद पत्रकारिता की ओर बढ़ रहे हैं ? / विजय शंकर सिंह

एबीपी न्यूज़ के अभिसार शर्मा और पुण्य प्रसून बाजपेयी को उनके चैनल ने हटा दिया है। कारण ? चैनल चाहे जो भी तर्क दे, अपनी सफाई में जो भी कहे, इन दो पत्रकारों की पत्रकारिता और इनके कार्यक्रमों से सरकार, असहज होने लगी थी। सरकार जब सच से असहज होने लगे तो समझ लीजिये तानाशाही का संक्रमण उसके रक्त में प्रवेश कर गया है। आज प्रेस या पत्रकार सरकार या सत्ता के खिलाफ जो लिखते पढ़ते और बोलते हैं, उससे सरकार असहज हो रही है। आज देश मे सरकार का मतलब संविधान में दिया गया सरकार का प्राविधान सामूहिक नेतृत्व या कैबिनेट नहीं , यह तो धीरे धीरे अतीत में खो गया मित्रों, सरकार का मतलब अब केवल प्रधानमंत्री और अमित शाह जो सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष हैं, जिनके बारे में  कभी, अरुण शौरी ने प्रेस क्लब में भाषण देते हुए कहा था कि यह ढाई लोगों की सरकार है, यह सरकार अब असहज हो रही थी। ढाई में आधा हिस्सा अरुण जेटली का भी था, जो फिलहाल मेडिकल अवकाश पर हैं। उनके स्वास्थ्य लाभ की शुभकामना है। अब यह केवल दो ही लोगों की सरकार है। सत्ता का यह ज़बरदस्त केंद्रीकरण है।

सच अक्सर असहज कर देता है। तीर की तरह, कहीं न कहीं बिंधा हुआ निरन्तर असहज करता रहता है। सच की प्रतिक्रिया क्रोध में नहीं अभिव्यक्त होती है, वह अभिव्यक्त होती है असहजता में, भय में, मुँहचोरी में । और जब यह असहजता बढ़ जाती है तो, अचानक चीख में बदल जाती है । यह चीख भय की चीख नहीं, प्रतिशोध की चीख होती है। प्रतिशोध भी बलशाली व्यक्ति का नहीं डरे , हदसे और घबराये हुए मन का होता है। सच से इतना आक्रांत हो जाता है मन, कि वह सारे कपाट  बंद कर कहीं बैठ, प्रतिशोध के साजिशी जाले बुनने लगता है। यह भय,  अधिकार के क्षरण का भय होता है। यह भय अक्सर तानाशाहों को ही ग्रसता है। क्यों कि अधिकार के प्रति लिप्सा और लालसा उन्हें उक्त अधिकार के एकत्रीकरण की ओर निरन्तर ठेलती रहती है। ऐसे ही जब सत्ता और सरकार, सच सुन सुन कर आज असहज हो गयी तो उसने सारे गवाक्ष बंद कर लिए और वह इस साज़िश और फिक्र  में मुब्तिला हो गयी कि उसका अधिकार, उसकी ताकत और उसकी सत्ता कैसे महफूज़ रह पाएगी। उस सच का कोई जवाब नहीं था, उसके पास, कोई तर्क नहीं था उसके पास, फिर वे करते क्या, इसे रुखसत करो, इसे दफा हो जाने के लिये कहो, और फिर चैनल ने, जो हुक़्म मेरे आका कह कर सत्ता का हुक्म बजा ही दिया।

दुनिया के इतिहास के पन्नों को पलटें या आज के सायबर युग में डाउनलोड करें और अध्ययन करें तो तानाशाहों की एक विचित्र आदत आप ज़रूर पाएंगे। वे सनकी होते हैं, आत्मकेंद्रित होते हैं, आत्ममुग्धता के भाव से लबरेज़ होते हैं, जान जाने से डरते हैं, भ्रम में जीते हैं, और वाचाल होते हैं। वे अधिकार के केंद्रीकरण में विश्वास रखते हैं। उन्हें किसी पर भी यकीन नहीं रहता है। जो उनके बेहद निकट होते हैं, वे उन पर भी यकीन नहीं करते हैं, उनकी भी जासूसी कराते रहते हैं। लोकतंत्र से तानाशाही का संक्रमण ऐसे ही होता है।

पुण्य प्रसून का एक कार्यक्रम था, मास्टरस्ट्रोक। यह कार्यक्रम पहले आज तक पर दस तक के रूप में आता था, पर जब बाबा कम व्यापारी अधिक रामदेव से उन्होंने यह पूछ लिया कि आप जो इतनी महंगी गाड़ी में चलते हैं तो बाबा किस बात के तो सन्यासी का मन भी राग द्वेष ईर्ष्या से भर गया और उसने भी विज्ञापन न देने का पैंतरा चल दिया । फिर चैनल के मालिक करते क्या ? रामदेव का विज्ञापन, पुण्यप्रसून के पत्रकारिता पर भारी पड़ा वे आजतक से निकाल दिए गए।

फिर वे आये, एबीपी न्यूज़ में। यह चैनल थोड़ा मुखर था। सरकार की अधिक छानबीन करता था। उसमें इन्होंने मास्टरस्ट्रोक के नाम से अपना कार्यक्रम शुरू किया । यह दिन भर की खबरों का लेखा जोखा था। यह कार्यक्रम लोकप्रिय हुआ और इतना लोकप्रिय हुआ कि सरकार इसके प्रसारण से असहज होने लगी। कभी सिग्नल के साथ छेड़छाड़ की गई, कभी सोशल मीडिया पर उक्त कार्यक्रम को काउंटर करने के लिये अफवाहबाज़ी की गई, पर पुण्यप्रसून का मास्टरस्ट्रोक बाउंड्री पार करता रहा और सरकार असहज होतो रही। सिग्नल के छेड़छाड़ से कोई बहुत दिक्कत नहीं हुई, क्यों कि रिकॉर्डेड प्रोग्राम यूट्यूब पर उपलब्ध थे तो लोग उसे देख लेते थे। अंत मे जब सच इतना असहज करने लगा कि सरकार ने अपने कान तो बंद कर ही लिए टीवी का स्विच ही ऑफ कर दिया। अभिसार शर्मा और पुण्यप्रसून की बेबाक पत्रकारिता, सच को व्यक्त करने की शैली और सत्ता विरोधी रुख ने उन्हें आज एबीपी से बाहर ही कर दिया।

यह एक सामान्य संकेत नहीं है। यह केवल दो पत्रकारों का किसी चैनल को छोड़ना नहीं है। यह संकेत है कि सत्ता या सरकार एक ऐसी मनोदशा में आ गयी है कि वह अपनी आलोचना सुन ही नहीं सकती है। जब लोकतंत्र में सत्ता अपनी आलोचना न सुन सके, उससे असहज होने लगा, उसका प्रतिशोध प्रेस पर निकलने लगे तो समझ लीजिये लोकतंत्र का स्वरूप धीरे धीरे बदल रहा है। और यह बदलाव समाज और जन के लिये घातक है। सरकार को अगर यह कभी लगा कि, ये दोनों पत्रकार कुछ गलत, अभद्र और मिथ्या परोस रहे थे तो सरकार को उनके खिलाफ कार्यवाही करना चाहिये था। सरकार को जनता के संज्ञान में यह लाना चाहिये था कि ये दोनों पत्रकार गलत और भरमाने वाली रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इनके प्रसारण का खंडन प्रसारित करने के लिये भी सरकार चैनल को बाध्य कर सकती थी। पर जब सच,  सच ही हो तो, क्या खंडन और क्या मंडन। अब केवल एक ही मुद्दा आज सबसे प्रमुख है, वह है लोकतंत्र की आत्मा, अभिव्यक्ति की आज़ादी का। प्रेस की आज़ादी का।  जिस तरह से एबीपी न्यूज़ से अभिसार शर्मा और पुण्यप्रसून बाजपेयी को हट जाने पर मजबूर किया गया है वह यही प्रमाणित करता है कि सत्ता बेहद डरे और आपरधिक मनोवृत्ति के लोगों के हांथों में केंद्रित है। यह सत्ता न केवल काकीस्टोक्रेसी यानी मूढ़तन्त्र, बन गयी है बल्कि क्रोनी कैपिटलिज़्म गिरोहबंद पूंजीवाद की तर्ज़ पर क्रोनी जर्नलिज़्म गिरोहबंद पत्रकारिता की ओर बढ़ रही है।

अगर कोई आज़ाद प्रेस के पक्ष में नहीं खड़ा है तो ऐसे लोग मुर्दे हैं और मुर्दों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है। सरकार के साथ खड़े हों, या सत्ता के पक्ष में खड़े हों,या किसी भी विचारधारा के पक्ष में खड़े हों, पर खड़े हों, इससे कोई समस्या नहीं है।  सत्ता भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही अस्तित्व में आती है। सत्ता का विरोध और आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है। हम सब अपनी अपनी मर्ज़ी, विचारधारा और सोच से अपना अपना पक्ष तय करते हैं और अपने अपने ठीहे चुनते हैं। पर कहने, सुनने, बोलने, आलोचना करने, आंदोलन करने की आज़ादी के पक्ष में अगर आप खड़े नहीं हैं तो आप जिंदा नहीं हैं।

© विजय शंकर सिंह

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