Saturday, 11 August 2018

एससीएसटी एक्ट में सरकार तथा संसद द्वारा किया गया संशोधन - एक संक्षिप्त टिप्पणी / विजय शंकर सिंह .

एक विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई करते हुये, सुप्रीम कोर्ट ने एससीएसटी एक्ट के कतिपय प्रावधानों के बारे में कुछ नयी व्यस्थायें और निर्देश दिया था। जिनपर काफी विवाद हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश ये थे ~
1. तत्‍काल गिरफ्तारी से राहत दी गयी है और जांच के बाद अभियुक्त की  गिरफ्तारी की जाय।
2. अभियोग की विवेचना, डीएसपी  रैंक के पुलिस अधिकारी द्वारा कराया जाना अनिवार्य है।
3. मुक़दमा कायम करने के पहले, सात दिन के भीतर आरोपों की जांच कर के तथ्यों का पता लगाया जाय।
4. सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए अप्‍वाइंटिंग अथॉरिटी से और सामान्‍य नागरिक को गिरफ्तार करने के लिए जिले के एसएसपी की इजाजत जरूरी होगी।
5. मौजूदा कानून में कोई बदलाव नहीं, सिर्फ तत्‍काल गिरफ्तारी के प्रावधान में ढील की गयी है।
6. इस अभियोग के दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत मिल सकती है, बशर्ते न्‍यायिक समीक्षा के दौरान अदालत को प्रथम दृष्‍टया मामला झूठा लगे तो ।
ज्ञातव्य है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दर्ज होने वाले मुकदमों में अग्रिम जमानत का प्राविधान अधिनियम में ही नहीं है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की खामी पाते हुए जोड़ दिया।
7. शीर्ष अदालत ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में तत्काल स्वतः गिरफ्तारी की बजाय पुलिस को 7 दिन के भीतर जांच करनी चाहिए और फिर आगे सुबूतों के आधार पर, कार्यवाही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी कहा कि सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती। गैर-सरकारी कर्मी की गिरफ्तारी के लिए, जिले के एसएसपी की मंजूरी जरूरी होगी। इन सारे परिवर्तन के पीछे सुप्रीम कोर्ट की यह धारणा थी कि इससे इस अधिनियम का दुरुपयोग रुक सकेगा।

अब देखिये मूल अधिनियम में क्या प्राविधान थे ~
1. अभियोग की विवेचना डीएसपी रैंक का अधिकारी करेगा।
2. यह अपराध अजमानतीय है।
3. अग्रिम जमानत का प्राविधान इस अधिनियम में नहीं है।
4. गिरफ्तारी के लिये किसी की अनुमति लेने की जरूरी नहीं है।

किन अपराधों पर यह अधिनियम लागू होगा ?
इसे यहां देखें ~
1. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध होने वाले क्रूर और अपमानजनक व्यवहार और अपराध करना।
2. यदि कोई व्यक्ति किसी अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के सदस्य से व्यापार करने से इनकार करता है तो इसे आर्थिक बहिष्कार कहा जाएगा।
4. किसी अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सदस्य के साथ काम करने या उसे काम पर रखने/नौकरी देने से इनकार करना।
5. अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के सदस्य को सेवा न प्रदान करना अथवा उन्हें सेवा प्रदान करने नही देना।
6. सामान्यतः व्यापार जैसे किया जाता है उस तरीके में जानबूझकर बदलाव लाना क्योंकि अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति का सदस्य इसमें शामिल है।
7. जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के साथ संपर्क में आने से इनकार करता है या उसे अन्य समूहों से अलग रखने की कोशिश करता है।

सरकारी अधिकारी के कर्तव्य पालन न करने पर भी दंड का प्रावधान है ~
1.एक सरकारी अधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन न करने के लिए दंडित किया जा सकता है।
2. यदि कोई सरकारी अधिकारी (जो कि अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है) , अभिप्रायपूर्वक/जानबूझकर इस अधिनियम के तहत दिए गए कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तो उसे 6 महीने से 1 साल तक के कारावास की सज़ा दी जा सकती है। एक अधिकारी पर केस तभी किया जा सकता है जब मामले की जाँच हो चुकी हो, और जाँच की रिपोर्ट में यह रास्ता सुझाया गया हो।

सरकारी अधिकारियों के कर्तव्य भी तय किये गये हैं। वे हैं ~
1 एफआईआर, FIR या शिकायत दर्ज करना;
2. हस्ताक्षर लेने से पहले पुलिस थाने में दिए गए बयान को पढ़ कर सुनाना;
3. जानकारी देने वाले व्यक्ति को बयान की प्रतियाँ देना;
पीड़ित या गवाह का बयान रिकॉर्ड/ दर्ज़ करना;
4  एफआईआर FIR दर्ज़ करने के 60 दिन के अन्दर अपराध की जाँच करना और चार्जशीट/ आरोप पत्र न्यायालय में पेश करना।
5. दस्तावेज़ तैयार करना और दस्तावेज़ों का सटीक अनुवाद करना I

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यतया दो बातें कहीं थीं ~
1. सरकारी कर्मचारियों के आरोपित होने पर बिना उसके नियोक्ता अधिकारी की अनुमति के बिना, उसकी गिरफ्तारी न की जाय।
2. सामान्य व्यक्तियों की अगर वे अभियुक्त हैं तो,, बिना जिले के एसएसपी या डीसीपी जहां जैसी स्थिति हो, की अनुमति के बिना गिरफ्तारी नहीं की जाय।
3. अगर न्यायालय को यह लगता है कि प्रथम दृष्टया अभियोग कमज़ोर है तो वह अभियुक्त को अग्रिम जमानत दे सकता है। 4. अग्रिम जमानत का प्राविधान जो मूल अधिनियम में नहीं था उसे यहां कुछ निर्देशो के साथ जोड़ दिया गया है। ( उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में अग्रिम जमानत का प्राविधान है ही नहीं )
5. सात दिन के अंदर प्रारंभिक जांच पूरा करने का निर्देश भी दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद  अनुसूचित जाति जनजाति ( अत्याचार निवारण अधिनियम ) संशोधन विधेयक 2018, में संसद में सरकार ने संशोधन प्रस्तुत किया जो संसद ने पारित कर दिया है।
क्या संशोधन किया गया है, इसे देखें ~
1. मुकदमा कायम करने के पूर्व किसी भी प्रकार के प्रारंभिक जांच की ज़रूरत नहीं है और न ही किसी के अनुमति या अनुमोदन की।
3. थाने पर शिकायत मिलते ही जैसे कि अन्य अपराधों के बारे में मुकदमा दर्ज होता है, वैसे ही इस मामले में भी, उचित धारा में अभियोग पंजीकृत हो और अग्रिम कार्यवाही हो।
4. अग्रिम जमानत का प्राविधान समाप्त कर दिया गया है। 3. गिरफ्तारी हेतु किसी की भी अनुमति नहीं लेनी होगी, चाहे अभियुक्त सरकारी सेवक हो या सामान्य व्यक्ति । विवेचक कानून के अनुसार गिरफ्तारी करेगा।

उत्तर प्रदेश में जब बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी थी, इस अधिनियम के दुरुपयोग की शिकायतों के उपचार के लिये एक शासनादेश जारी किया था। उसके अनुसार ~
1. 20 मई 2007 को उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव शम्भुनाथ के हस्ताक्षर से एक शासनादेश जारी हुआ जिसमे, कहा गया था कि गम्भीर अपराधों हत्या और बलात्कार ही अधिनियम में दिये गए प्राविधानों के अंर्तगत दर्ज होंगे शेष अन्य अपराध, प्रारम्भिक जांच के बाद कायम किये जायेंगे।
2. यौन उत्पीड़न या बलात्कार के मामले में, शिकायत प्राप्त होने पर पहले मेडिकल जांच होगी और जांच से अगर यह लगता है कि यह अपराध हुआ है तो मुकदमा कायम होगा।
3. इसके बाद 29 अक्टूबर 2007 को इसी सम्बंध में दूसरा पत्र तत्कालीन मुख्य सचिव प्रशांत कुमार के दस्तखत से ज़ारी किया गया। जिसमे यह कहा गया कि,
यह संज्ञान में आने पर कि इस अभियोग के अंतर्गत कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत रंजिश के कारण अपने प्रतिद्वंद्वी को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से मुक़दमे कायम कर रहे हैं तो, ऐसे मामलों में जब शिकायत झूठी पायी जाय तो, आईपीसी की धारा 182 के अंतर्गत मिथ्या शिकायत करने के आरोप में कार्यवाही की जाय।

इस प्रकार 2018 के इस संशोधन से, अधिनियम अपने मूल स्वरूप में वापस आ गया है।

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