Tuesday, 28 August 2018

इश्क़ तौफ़ीक़ है, गुनाह नहीं - आज फ़िराक़ का जन्मदिन है, उनकी चर्चा और उनका स्मरण / विजय शंकर सिंह

फ़िराक़ साहब ( 28 अगस्त 1896 से 3 मार्च 1982 ) एक जीनियस थे। रहने वाले गोरखपुर के, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के टॉपर, और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही अंग्रेज़ी के अध्यापक, और उर्दू के एक अज़ीम शायर। ज़िंदगी का सफर भी उनका, कुछ गमें जानां तो कुछ दौरां। कभी प्रेयसी का गम, तो कभी ज़माने का गम। निजात इस गम से ? ' मौत से पहले आदमी, इस गम से निजात पाए क्यों ' यह फ़िराक़ के जन्म से आधी सदी से पहले सुपुर्दे खाक हो चुके, इसी सिलसिले के एक और महान शायर ग़ालिब पहले ही कह चुके हैं। आज उन्ही फ़िराक़ का जन्मदिन है।

गोरखपुर के बारे में मेरे एक मित्र का कहना है कि यह शहर जंगलों में बसा था। अब तो यह भरापूरा शहर है। इसी शहर में 28 अगस्त 1896 को फ़िराक़ साहब का जन्म हुआ था। फिराक गोरखपुरी तो ये बाद में हुये, इनका असल नांम रघुपति सहाय था। शिक्षा प्राप्ति के बाद वे सिबिल सेवा के लिये चुने गए, पर 1920 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। आज़ादी के आंदोलन में वे जेल गए। एक साल जेल में भी रहे। उनका संपर्क कांग्रेस के नेताओं से भी था। वे जवाहरलाल नेहरू के साथ वे कुछ दिनों के लिये कांग्रेस के अवर सचिव भी रहे थे। पर राजनीति में फिर उसके बाद वे सक्रिय नहीं हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे 1930 से 1959 तक अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। उन्होंने डॉक्टरेट नहीं की थी, पर खुद को किसी भी अंग्रेज़ी के किसी विद्वान से कम नहीं समझते थे। और वे थे भी नहीं।

आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के लिए राह बनाने वालों में अग्रणी शायर फ़िराक गोरखपुरी अपने दौर के मशहूर लेखक भी, आलोचक भी और शायर भी थे। शुरू में फ़िराक़ साहब की शायरी के हुस्न को लोगों ने उस तरह नहीं पहचाना क्योंकि वो रवायत से थोड़ी हटी हुई शायरी थी। जब उर्दू में नई ग़ज़ल शुरू हुई तो लोगों ने फ़िराक़ की तरफ़ ज़्यादा देखा। फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

फ़िराक़ के जीवन से जुड़े कई रोचक प्रसंग हैं जिनसे उनके जीवन और मेधा के अनेक आयाम नज़र आते हैं। उर्दू शायरी पर अनेक शायरों के कलाम को देवनागरी में उपलब्ध कराने वाले प्रकाश पंडित ने अपनी पुस्तक फ़िराक़ और शायरी में उनसे जुड़ा एक रोचक संस्मरण लिखा है, मैं उसे यहां उद्धृत कर रहा हूँ,

" एक बार बम्बई की एक ‘महफ़िल में, जिसमें सरदार जाफ़री, जानिसार ‘अख़्तर’, साहिर लुधियानवी, ‘कैफ़ी’ आज़मी इत्यादि कई प्रगतिशील शायर मौजूद थे, ‘फ़िराक़’ साहब ने बड़े गौरव से एक शेर पढ़ा-

मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम-झूम जाती थी।

सरदार जाफ़री ने यह समझकर कि फ़िराक़ साहब ने ज़िन्दगी पर मौत को प्रधानता दी है, ऊँची ज़बान से ललकारा, ‘‘फ़िराक़ साहब ! गुस्ताखी मुआफ हो, हमें आप शेर सुनाइए, बकवास मत कीजिए।’’
‘फ़िराक़’ साहब भला इस गुस्ताख़ी को कैसे मुआफ़ कर सकते थे तुरन्त भड़ककर बोले, ‘‘मैं तो शेर ही सुना रहा हूँ, बकवास तो आप कर रहे हैं।’’

और इसके बाद उपस्थित सज्जनों ने ‘फ़िराक़’ साहब की ज़बान से ज़िन्दगी और मौत की फ़िलासफ़ी की ऐसी ऐसी बातें सुनी कि यदि स्वयं ज़िन्दगी और मौत साकार होतीं, तो इन बातों से पनाह माँगने लगतीं।

बातें करने का भी फ़िराक़ साहब को उन्माद की हद तक शौक है-जीवन दर्शन से लेकर वे मेंढकों की विभिन्न जातियों तक के बारे में बेथकान बोल सकते हैं बल्कि ढूंढ़-ढूंढकर बोलने के अवसर निकालते हैं। हैदराबाद में एक महत्त्वपूर्ण उर्दू कान्फ्रेंस थी। कान्फ्रेंस के चौथे दिन की एक बैठक में फ़िराक़ साहब को अभिभाषण देना था। कान्फेंस के प्रबन्धक तो ख़ैर पहले से उन्हें सूचना दे चुके थे कि भाषण पहले से प्रकाशित किया जाएगा, कान्फ्रेंस में भाग लेने वाले शायरों अदीबों ने भी उनसे बहुत आग्रह किया कि वे शीघ्रातिशीघ्र भाषण लिख लें। इस उद्देश्य के लिए, यानी उनसे भाषण लिखवाने के लिए, दो व्यक्ति मुक़र्रर किए गए जो जब मौक़ा मिलता, काग़ज़ क़लम लेकर बैठ जाते कि लिखवाइए। फ़िराक़ साहब एक आध वाक्य लिखवाने के बाद ही उन्हें इस प्रकार बातों में उलझा लेते कि वे स्वयं भाषण की बात भूल जाते। चौथा दिन आ पहुँचा और भाषण की केवल चार पंक्तियाँ पूर्ण हुईं। लोगों ने फ़िराक़ साहब को क़लम काग़ज़ देकर जबर्दस्ती एक कमरे में बंद कर दिया ताकि दोपहर तक, जैसे भी हो, वे भाषण पूरा कर लें। दोपहर के अधिवेशन के समय जब वालंटियर उन्हें लिवाने उनके निवास-स्थान पर पहुँचे तो फ़िराक़ साहब को मकान के किसी कमरे में भी न पाकर बहुत चकराए। निराश होकर लौट रहे थे कि रसोईघर से बातें करने की आवाज़ आई। झांककर देखा तो फ़िराक़ साहब बैंगन हाथ में लिए बैंगन के भुरते के बारे में बावर्ची से बातें कर रहे थे।

यही नहीं, काग़ज़ों का पुलंदा लेकर जब वे जलसे में अपना अभिभाषण पढ़ने लगे तो केवल चार पंक्तियाँ पढ़कर ही उन्होंने पुलंदा एक तरफ रख दिया और माइक्रोफ़ोन थामकर बोले, ‘‘लिखे हुए अभिभाषण की क्या ज़रूरत है ? बड़ी मुद्दत के बाद हैदराबाद आने का मौक़ा मिला है। दोस्तों से दो बातें ही कर लें !’’
और अभिभाषण के नाम पर वे निरन्तर दो घण्टे तक बातें करते रहे और मेज़ पर पड़ा कोरे काग़ज़ों का पुलंदा प्रबन्धकों का मुँह चिढ़ाता रहा। "

उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए।

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।

फ़िराक़ साहब केवल शायर ही नहीं थे, बल्कि वे अंग्रेज़ी साहित्य के विद्वान भी थे। उनका दावा था कि ,
"भारत में अंग्रेज़ी सिर्फ़ ढाई लोगों को आती है। एक मैं, दूसरे डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू को आधी अंग्रेज़ी आती है।"
फ़िराक़ साहब के बारे में एक क़िस्सा बहुत प्रचलित है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रिटायर होने के बाद उन्हें सरकारी बंगला खाली करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को नोटिस आया। नोटिस अंग्रेज़ी में था और उन्होंने उसमें दसियों ग़लतियां निकाल कर प्रशासन को वापस थमा दिया और कहा कि अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर को नोटिस भेजा है, ग़लतियां सुधार कर लाइए। नोटिस दोबारा भेजा गया और उन्होंने उसमें फिर कई ग़लतियां निकाल दी। इसके बाद प्रशासन ने उन्हें न नोटिया दिया और ना ही बंगला खाली करने को कहा। वे अंतिम समय तक उसी बंगले में रहे।

एक प्रसंग और पढ़े,
" उनका जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफ़ेसर एमेरिटस शमीम हनफ़ी से लगभग एक दशक का साथ रहा। उनके बारे में हनफ़ी साहब रेहान फजल को बताते हैं- 'साहित्य की बात एक तरफ़, मैंने फ़िराक़ से बेहतर बात करने वाला अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। मैंने उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के चोटी के लोगों से बात की है लेकिन फ़िराक़ जैसा किसी को भी नहीं पाया। इस संदर्भ में मुझे सिर्फ़ एक शख़्स याद आता, डाक्टर सेमुअल जॉन्सन, जिन्हें बॉसवेल मिल गया था, जिसने उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड की। अगर फ़िराक़ के साथ भी कोई बॉसवेल होता और उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड करता तो उनकी वैचारिक उड़ान और ज़रख़ेज़ी का नमूना लोगों को भी मिल पाता। "

उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अद्भुत संसार रचा था । फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रची-बसी रही।

उनकी शायरी के किस्से, उनसे जुड़े तमाम प्रसंग, उनकी सनक की कहानियां, इतनी अधिक संख्या में मुझे संदर्भों में मिलीं कि यह संदेह होने लगा कि इनमें सच क्या है और झूठ है। महान लोगों के साथ अमूमन ऐसा ही होता है। इतनी अधिक लोकश्रुत और बहुश्रुत क्षेपक उभर कर आ जाते हैं कि कभी कभी यह सब दन्तकथाओं जैसी लगने लगती हैं। लेकिन इन कहानियों और किस्सों से फ़िराक़ के बहुआयामी व्यक्तित्व का पता चलता है। उनपर काम करने वाले डॉ मुकेश पांडेय ने उनके व्यक्तित्व को इन शब्दों में उकेरा है,
" अदा-अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय था उनमें।
फ़िराक़ की शख़्सियत में इतनी पर्तें थी, इतने आयाम थे, इतना विरोधाभास था और इतनी जटिलता थी कि वो हमेशा से अपने चाहने वालों के लिए पहेली बन कर रहे। वह थे आदि विद्रोही, धारा के विरुद्ध तैरने वाले बाग़ी। "

मशहूर शायर अनवर जलालपुरी ने एक शायर और साहित्यकार के रूप में मूल्यांकन करते हुये कहा कि,  " फ़िराक़ साहब से पहले उर्दू में सिर्फ अल्लामा इक़बाल ही ऐसी शख़्सियत हैं, जो एशिया और यूरोप के उलूम (ज्ञान) पर गहरी नज़र रखते थे। दोनों इलाहों के मजहबों के फलसफों पर भी उनकी गहरी नज़र होती थी। 'फ़िराक़' दूसरी बड़ी शख़्सियत हैं जो एशिया और यूरोप के मुल्कों के मजहबी फलसफों और दोनों इलाकों के साहित्य पर भी बेइंतहा गहरी नज़र रखते थे। "
फ़िराक़ खुद अपनी शायरी के बारे में क्या कहते हैं, यह उन्हीं की लेखनी से पढ़ लें,
"मैं शायरी का एक मकसद यह भी समझता हूं कि जिन्दगी के खुशगवार और नाखुशगवार हालात व तजुर्बात का एक सच्चा जमालियाती एहसास हासिल किया जाय। जिन्दगी का एक विजदानी शऊर हासिल करना वह आसूदगी अता करता है जिसके बगैर जिन्दगी के सुख-दुख दोनों नामुकम्मल रहते हैं। यही एहसास मेरी शायरी के रहे हैं; इसके अलावा हर कौम की अपनी एक तारीख होती है, उसका एक मिजाह होता है, फिर तमाम इंसानियत की जिन्दगी की भी तारीख होती है और उस जिन्दगी की कुछ कदरें होती हैं। कौमी जिन्दगी और आलमी जिन्दगी की इन कदरों और हिन्दुस्तान के कल्चर के मिजाज को अपनी शायरी में समोना मुल्की और आलमी जिन्दगी के पाकीजा जज्बात को जबान देना मेरी शायरी का मकसद रहा है। उर्दू शायरी में बहुत सी खूबियों के बावजूद कुछ कदरो की कमी रही है। १९३६ के बाद मेरी कोशिश यह होने लगी है कि मैं मसायल को आलमगीर इंसानियत की तरक्की की रोशनी में पेश करूं, जिन्दगी जैसी है उसे मुतास्सिर होना कौमी कलचर और कौमी मिजाज के तसव्वर पर झूमना उसे अब मैं नाकाफी समझने लगा। अब दुनिया और जिन्दगी पर झूमने के बदले दुनिया और जिन्दगी को बदलने का तसव्वर काम करने लगा।"

फ़िराक़ साहब के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।
आप थे हंसते-खेलते मयखाने में फ़िराक,
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए !!

© विजय शंकर सिंह

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