पूछा था, सवाल हमने,
अनुत्तरित रहा,
अनेक सवालों की तरह,
टालते रहे वे इसे।
सवाल दर सवाल
उछालता रहा,
नेपथ्य की ओर,
सवाल दर सवालों से बचते बचाते,
सरकते रहे वे।
अंत मे मंच पर बचा मैं,
एकाकी, एकालाप में लीन,
सवाल दर सवालो से घिरा,
नेपथ्य की ओर उत्सुकता,
उत्कंठा से देखता हुआ,
बेबस नहीं, बेसब्री से खड़ा ।
अभी न यवनिका पात हुआ है,
और न मंच की रोशनी गुल है,
बस, नेपथ्य से आने वाली राह,
अंधेरे में डूबी है,
और मैं,
सवालों से अब भी रूबरू हूँ।
© विजय शंकर सिंह
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