Sunday 19 August 2018

एससीएसटी एक्ट के दुरुपयोग का एक उदाहरण / विजय शंकर सिंह

जिला गौतमबुद्ध नगर, नोयडा का एक प्रकरण पढें ~
कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान 1st पैरा रेजिमेंट के जाबांज अधिकारी रहे है तथा 1965 की प्रसिद्ध हाजीपीर की लड़ाई में भाग लेकर घायल हुए थे । 1971 के बांग्लादेश के युद्ध के दौरान सेना की एक टुकड़ी का न्रेतृत्व भी किया था ! सियाचिन ग्लेशियर के कब्जे के ऑपरेशन में भी कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान का महत्वपूर्व योगदान रहा है वह थलसेना अध्यक्ष के एडीसी भी रह चुके है तथा Indian Institute of Mountaineering and Skiing के प्रिंसिपल भी रह चुके है उनको वीरता व् अन्य राष्ट्र सेवाओ को लेकर 16 मैडल भी प्रदान किये है

सामाजिक क्षेत्र में भी कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान का उल्लेखनीय योगदान रहा है तथा सेवा निवृत्ति के बाद वह गोरखपुर , जौनपुर , आजमगढ़, महू व् अन्य पूर्वाचल के नवयुवको को सेना में भर्ती हेतु निशुल्क ट्रेनिंग भी देते रहे है । कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान के पिता प्रोफेसर जेएन सिंह चौहान, गुरु गोरख नाथ मंदिर ट्रस्ट गोरखपुर के ट्रस्टी तथा ट्रस्ट द्वारा संचालित महाराणा प्रताप सिंह शिक्षा परिषद् के 15 वषों तक लगातार अध्यक्ष भी रहे है।

कर्नल चौहान का उनके पड़ोस की मकान संख्या 646 सेक्टर 29 नोएडा में रहने वाले हरीश चन्द्र से विगत 3 वर्षो से हरीश चन्द्र के द्वारा किये गए अवैध कब्जे एवं निर्माण को लेकर विवाद चला आ रहा था । हरीश चन्द्र एक पीसीएस अधिकारी हैं, और वर्तमान में  नोएडा अथारिटी में डिप्टी सीईओ रह चुके है । कुछ अवैध कब्जे एवं निर्माण को लेकर कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान ने उनके खिलाफ नोएडा अथारिटी में कई बार  शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन हरीश चन्द्र ने अपने रसूख का इस्तेमाल कर इन शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं होने दी।

कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान की पत्नी एवं बच्चे विदेश में है और घर में अपने सहायक राजीव के साथ वह अकेले रह रहे थे । विगत 14 अगस्त को कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान घर के सामने के पार्क में बैठकर आगरा जाने के लिए कैब का इन्तेजार कर रहे थे उसी दौरान हरीश चन्द्र अपनी पत्नी उषा चन्द्र ,सरकारी गनर रोहित नागर व अन्य स्टाफ के साथ पार्क में पहुंचकर कर्नल साहब से दुर्व्यवहार किया,मारपीट की तथा हंड्रेड नम्बर, कर पुलिस को बुलाकर अपने रसूख का इस्तेमाल कर कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान को गिरफ्तार करा दिया ! जिसकी सारी घटना सीसीटीवी में कैद है।

नोयडा के सेक्टर 20 थाने की पुलिस उनको गिरफ्तार कर के सेक्टर 20 थाने ले गयी तथा बाद में सेक्टर 20 थाने की पुलिस कर्नल वीरेन्द्र प्रताप सिंह चौहान के घर गयी तथा घर से उनके घरेलू सहायक राजीव व फ़ौज में भर्ती को इच्छुक दो अभियार्थी विजय एवं त्रिपाठी जो कि उनसे मिलने गोरखपुर से आये हुये थे और जिनका दूर दूर तक इस घटना से कोई भी संबंध नहीं था,  इन तीनो पर भी एससीएसटी  एक्ट, अपहरण, छेड़छाड़ और अन्य धाराएं लगाकर कर्नल चौहान के साथ जेल भेज दिया ! कर्नल चौहान को हथकड़ी लगा कर अदालत में पेश किया गया, जो सुप्रीम कोर्ट के प्राविधान के भी विपरीत है।

इस प्रकरण में हरीश चंद्र एक पीसीएस अधिकारी है जो अनुसूचित जाति के हैं और कर्नल चौहान जो एक सेनाधिकारी रह चुके हैं, सवर्ण जाति के हैं। मामला हरीश  चंद्र द्वारा नोयडा में कुछ ज़मीन के कब्जे का है। कर्नल साहब इसी कब्जे की शिकायत नोयडा अथॉरिटी से करते रहे हैं और उस पर कोई कार्यवाही अथॉरिटी द्वारा की गयी या नहीं यह पता नहीं पर हरीश  चंद्र जी उस शिकायत से चिढ़ कर कर्नल चौहान  के घर जाते हैं, वहां कहा सुनी होती है और मारपीट भी । तब हरीश चंद्र कर्नल चौहान के खिलाफ  शिकायत करते हैं और कर्नल साहब के विरुद्ध एससीएसटी एक्ट सहित मारपीट आदि आईपीसी की धाराओं के अंर्तगत मुक़दमा कायम हो जाता है और वे थाने पकड़ कर ले जाये जाते हैं। थाने में फिर एडीएम सुरेश चंद्र पर भी कर्नल चौहान से मारपीट करने के आरोप में क्रॉस केस कायम किया गया है।

यहां इस कानून का स्पष्ट दुरुपयोग किया गया है। मुक़दमा कायम होते ही गिरफ्तारी का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि उधर एफआईआर दर्ज हुई और इधर अभियुक्त जेल में भेज दिया जाय। कानून कभी भी मेकैनिकल नहीं होता है। इसका उपयोग हर समय विवेक का प्रयोग कर के किया जाता है। विवेक का भी प्रयोग काल परिस्थिति और अवसर देखकर किया जाना चाहिये। हो सकता है हरीश चंद्र जी ने यह मुक़दमा सही लिखाया हो पर आईओ यानी पुलिस का यह दायित्व और कर्तव्य है कि वह कानून की नीयत के अनुसार ही अपने अधिकारों का प्रयोग करें। गिरफ्तारी तुरन्त हो यह आदेश ही असंवैधानिक हैं और आज तक कोई भी अफसर तुरन्त गिरफ्तारी का आदेश नहीं देता है, और वह दे भी नहीं सकता है। यह पुलिस को तय करना है कि गिरफ्तारी के लिये पर्याप्त साक्ष्य हैं या नहीं। गिरफ्तारी का उद्देश्य किसी को अपमानित करना या अपना भौकाल बनाना नहीं है, इसका उद्देश्य है, कि,
* अभियुक्त सुबूतों के साथ कोई छेड़छाड़ न कर सके,
* अभियुक्त फरार न हो सके,
* अभियुक्त इतना दुर्दांत या आदतन अपराधी हो ताकि गिरफ्तार न किये जाने पर पुनः कोई अपराध न कर दे,
* वह घोषित सक्रिय अपराधी या हिस्ट्रीशीटर हो जो अपने अपराधी क्षवि से अन्य गवाहों को आतंकित न कर दे।

इस मामले में दोनों ही व्यक्ति, कर्नल चौहान और हरीश चंद्र जी,  अधिकारी और सभ्रांत वर्ग के हैं। दोनों की ही आपसी कोई खुन्नस है। वह खुन्नस भी स्पष्ट है। कर्नल चौहान ने हरीश चंद्र जी के खिलाफ कब्जे आदि की शिकायत नोयडा अथॉरिटी में की तो उन्होंने इस अधिनियम के अंतर्गत मुक़दमा लिखवा दिया और पुलिस ने एक्ट  के प्राविधान का दुरुपयोग, बिना विवेक और पूरी जांच के कर दिया। यहां पुलिस द्वारा अतिशय तेजी जो दिख रही है उसका एक कारण हरीश चंद्र जी का एडीएम होना भी है। कल्पना करें अगर उनके स्थान पर एफआईआर दर्ज कराने वाला व्यक्ति अगर असरदार या पीसीएस न हो कर एक सामान्य एससीएसटी वर्ग का होता तो क्या इतनी ही तत्परता से नोयडा पुलिस हरकत में आती ? मेरा उत्तर है, बिल्कुल नहीं। यह अधिनियम के प्राविधान का दुरुपयोग है और हरीश चंद्र के पद के प्रभाव का भी दुरुपयोग है।

सरकार ने संशोधन में इस धारा को मूल स्वरूप में ला दिया है, यह सच है। लेकिन सरकार या संसद का यह बिल्कुल इरादा नही है कि इस एक्ट का दुरुपयोग हो और यह अधिनियम आपसी खुन्नस निपटाने का एक उपकरण बन जाय।  पर उस कानून को लागू करने वाली एजेंसी पुलिस का यह महत्तर दायित्व और वैधानिक कर्तव्य है कि वह इसकी विवेचना में विवेक का प्रयोग करें। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि अनुसूचित जाति के लोगों का सामाजिक उत्पीड़न नहीं होता है, बल्कि वास्तविकता यह है कि बहुत अधिक उत्पीड़न आज भी है। पर पुलिस को यह सतर्कता पूर्वक और, गम्भीरता से जांच कर निर्णय लेना होगा कि कौन सा आरोप उत्पीड़न है और कौन सा नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

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