Wednesday, 29 August 2018

जावेद अख्तर की कविता - नया हुक्मनामा / विजय शंकर सिंह

किसी का हुक्म है, सारी हवाएं
हमेशा चलने से पहले बताएं,
के इनकी सम्त क्या है
हवाओं को बताया ये भी होगा
चलेंगी जब तो क्या रफ्तार होगी
के आंधी की । अब नहीं है.
हमारी रेत की ये सब फ़सीलें
ये कागज़ के महल जो बन रहे हैं
हिफ़ाज़त इनकी करना है ज़रूरी
और आंधी है पुरानी इनकी दुश्मन,
ये सभी जानते हैं
किसी का हुक्म है दरिया की लहरें
ज़रा ये सरकशी कम कर लें, अपनी
हद में ठहरें
उभरना, फिर बिखरना, और बिखरकर फिर उभरना
ग़लत है उनका ये हंगामा करना
ये सब है सिर्फ़ वहशत की अलामत,
बग़ावत की अलामत
बग़ावत तो नहीं बर्दाश्त होगी
ये वहशत तो नहीं बर्दाश्त होगी
अगर लहरों को है दरिया में रहना
तो उनको होगा अब चुपचाप बहना

किसी का हुक्म है, इस गुलशिता में
बस एक रंग के ही फूल होंगे
कुछ अफ़सर होंगे जो ये तय करेंगे
गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का
यक़ीनन फूल तो यकरंग होंगे,
मगर ये रंग होगा कितना गहरा,
और कितना हल्का, ये अफ़सर तय करेंगे
किसी को कोई ये कैसे बताए
गुलिस्तां में कहीं भी फूल यकरंगी नहीं होते
कभी हो ही नहीं सकते
के हरेक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं
जिन्होंने बाग यकरंगी बनाना चाहे थे,
उनको ज़रा देखो
के जब एकरंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो
वो अब कितने परेशां हैं, वो कितने तंग रहते हैं

किसी को अब कोई कैसे बताए
हवाएं और लहरें कब किसी का हुक्म सुनती हैं
हवाएं हाकिमों की मुट्ठियों में,
हथकड़ी में, क़ैदखानों में नहीं रुकतीं
ये लहरें रोकी जाती हैं, तो दरिया कितना भी हो पुरसुकूं
बेताब होता है
और इस बेताबी का अगला क़दम सैलाब होता है
किसी को ये कोई कैसे बताए....
***
© विजय शंकर सिंह

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