यातायात नियंत्रण और लोग सड़क पर चल कर सुरक्षित तथा सुव्यवस्थित तरह से अपने गंतव्य तक पहुंच सकें, इसका तो प्रशिक्षण पुलिस को दिया गया है, पर पुष्पवर्षा का तो कोई पाठ पढ़ाया ही नहीं गया है !
पुष्पवर्षा भी उनपर जो उन्हीं कानूनों को तोड़ रहे हैं, और उनके द्वारा, जो उन कानूनों को लागू करने के लिये शपथ बद्ध है।
फिर यह नयी प्रथा क्यों ?
अब एक प्रसंग पढ़ लीजिये। 2009 में हरिद्वार कुंभ लगा था। मैं उस समय 24 वीं वाहिनी पीएसी मुरादाबाद में कमांडेंट था और उत्तरप्रदेश से 12 कंपनी पीएसी बल लेकर हरिद्वार कुंभ मेले में गया था। कुल चार महीने का प्रवास था वहां । कुंभ में मुख्य स्नान दिवसों को छोड़ कर शेष दिनों में मुझे बहुत काम नहीं रहता था। रोज़ शाम को मीटिंग होती थी, और दिन भर मैं घूमता टहलता रहता था। अनेक सन्तो के आश्रम थे तो वहां भी आता जाता रहता था। उनसे बातचीत भी होती थी और उनके प्रवचन भी सुनता था। ऐसे ही कुंभ के सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण स्नान दिवस की बात है। उस दिन अर्धरात्रि से ही ड्यूटी लग गयी थी और श्रद्धालुओं का समूह स्नान करने के लिये उमड़ पडा था। भोर के काफी पहले से जो स्नान प्रारंभ हुआ, वह दिन भर और फिर रात को भी चलता रहा। अनवरत स्नान और अनवरत ड्यूटी चलती रही। जब रात के आठ बजे गये तो मेरे गनर ने कहा कि " सर नहा लें आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। यह कुंभ 144 साल बाद पड़ा है। अब तो भीड़ भी कम हो गयी है। कपड़े भी आप के लाया हूँ। " हम हरि की पैड़ी पर ही दूसरी तरफ थे। हम लोगों ने भी वर्दी उतारी और वही हर की पैड़ी पर स्नान कर लिये।
दूसरे दिन मैं पायलट बाबा के आश्रम में गया था। मेरे एक मित्र पायलट बाबा के निकट शिष्य थे, तो पायलट बाबा के यहां आना जाना लगा रहता था। उन्होंने पूछा कि " स्नान हुआ कि नहीं। "
मैंने कहा कि " मुहूर्त तो टल गया था, फिर भी हमने नहा लिया। पर मुहूर्त पर न नहाने का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है। "
पायलट बाबा स्वयं एक एयरफोर्स के फाइटर पायलट रहे हैं, और 1971 के भारत पाक युद्ध मे लड़े भी थे, बाद में उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया था, ने मुझसे कहा,
" आप के लिये मुहूर्त हो या न हो,स्नान हो या न हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। फ़र्क़ पड़ता है आप की ड्यूटी अगर गड़बड़ और मुस्तैद नहीं है तो। इतने लोग, इतना बड़ा हुजूम अगर बिना किसी दुर्घटना के स्नान करके अपने अपने घर लौट जाता है तो आप चाहे स्नान करें या न करें आप को इन सबके पुण्य का अंश प्राप्त होगा ।"
यह कथन बहुत ही प्रेरक था।
दिल्ली के मोतीनगर में एक ऐसी घटना का वीडियो आज सामने आया है . जिसमें एक महिला अपनी कार से जा रही थी, कि उनकी कार कांवड़ लेकर जा रहे एक युवक से अनायास टकरा जाती है. उसके बाद जो होता है वह भयावह है। उसकी कार तोड़ फोड़ दी जाती है, और भी कारें तोड़ी फोड़ी जाती है, दंगे की स्थिति उतपन्न हो जाती है। मौके पर पुलिस पहुंचती तो है पर तमाशबीन की तरह खड़ी रहती है। दिल्ली में कांवरियों की एक सड़क पर तोड़ फोड़ और तमाशबीन पुलिस बल देख कर, बरबस यह बात कौंध जाती है कि यह धर्म और आस्था का कौन सा रूप है जो धारण करने के बजाय स्खलित कर देता है ? यह कौन सी शिव भक्ति है ? शिव का अर्थ ही कल्याण है। फिर यह कौन सा कल्याण और किसका कल्याण है ? यह कौन सी शिव आराधना की पद्धति है ? यह केवल अराजकता, गुंडई और कानून की अवज्ञा है। यह धर्म नहीं, धर्म का अहंकार है।
आज जब पुलिस के अफसर, अपना पेशेवराना काम छोड़ पुष्पवर्षा करते हैं तो यह प्रसंग बरबस याद आ जाता है। पुष्पवर्षा आपत्तिजनक जनक नहीं है। पर पुलिस का ऐसे अवसरों पर मुख्य दायित्व क्या है ? सड़क पर यातायात और सुरक्षा की व्यवस्था करना ताकि कांवर वाले और सामान्य लोग दोनों ही, सुरक्षित निकल जाएं। यह पुलिस का दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है।
कल्पना कीजिये कुम्भ मेला या अन्य मंदिरों में भीड़ नियंत्रित करने के लिये लगाया गया पुलिस बल अपना दायित्व और कर्तव्य भूल कर अगर खुद ही पूजा पाठ और स्नान ध्यान में लिप्त हो जाय तो क्या अव्यवस्था नहीं फैल जाएगी ?
लोग पुष्प वर्षा करे, लंगर लगावें, मेडिकल कैम्प लगाए यह तो सबकी अपनी अपनी श्रध्दा और आस्था पर निर्भर है। सरकार को भी स्वयं यह व्यवस्था करनी चाहिये। पुलिस का काम है यातायात और सुरक्षा के प्रबंध करना। कांवरियों का भी और उनका भी जो उधर से गुज़र रहे है। कल्पना कीजिये, कल कोई सिपाही जो खुद ही ड्यूटी पर हो, कांवर उठा ले और बोल बम बोल कर चल दे तो क्या होगा ? सारी व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाएगी। ड्यूटी सबसे ऊपर है। व्यक्तिगत आस्था यहां गौण है।
वैसे भी किसी भी पुलिस अफसर द्वारा कांवरियों पर की गयी पुष्पवर्षा, न तो भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये है और न ही कांवरियों के प्रति कोई आस्था भाव, यह सरकार की ठकुरसुहाती है। पुलिस का कार्य सरकार के आदेश निर्देश और कानून का पालन करना, कराना औऱ व्यवस्था बनाये रखना है, न कि सत्तारूढ़ दल की राजनैतिक विचारधारा का हमसफर और वाहक बनना। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है।
© विजय शंकर सिंह
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