तसलीमा नसरीन की पहली पुस्तक लज्जा जब पढ़ी तो धर्म के जिस विकृत रूप का दर्शन हुआ उससे धर्म एक मुक्तिदाता नहीं एक पाखंड और पौरोहित्यवाद का संगठित गिरोह लगा। यह उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुआ था और तसलीमा साहित्य के जगत में छा गयी थी। बांग्ला साहित्य के एक विद्वान से जब मैंने लज्जा की साहित्यिक चर्चा करने को कहा तो उनका कहना था, एक साहित्य की दृष्टि से लज्जा कोई बहुत महत्वपूर्ण कृति नहीं हैं। उन्होंने कहा इसका महत्व उतना साहित्यिक नहीं है जितना यह धर्म की कट्टरता को, बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न, को व्यक्त करता है। लज्जा के बाद तस्लीमा निरन्तर खबरों में रहने लगी। फिर एक एक कर के उनकी आत्मकथा के सभी भाग मैं पढ़ गया। उनके बचपन की कथा, द्विखण्डिता, विदेश में शरण लेने की कहानी, आदि से उनके संघर्षशील जीवन की एक झलक मिलती है। तसलीमा को अंततः बांग्लादेश छोड़ना पड़ा। ऐसा भी नहीं था उनके साथ बांग्लादेश में उस समय कोई खड़ा नहीं था। थे लोग पर कट्टरपंथी जो उन्मादित आवारा भीड़ खड़ी कर देते हैं उनका मुकाबला मुश्किल होता है। यह आवारा भीड़ ही कट्टरपंथी और धर्मांध लोगों की जीवनी शक्ति होती है। निर्वासित हो कर उन्होंने कोलकाता में शरण ली। कोलकाता में भी वहां के कट्टरपंथी लोगों ने चैन से नहीं रहने दिया। वाम मोर्चा के शासनकाल में भी उन्हें कोलकाता छोड़ना पड़ा। वे दिल्ली आयीं। सेना के सुरक्षित गेस्टहाउस में रहीं। फिर उन्हें कहा गया जब तक मामला गर्म है विदेश चली जाँय। वे यूरोप निकल गयी। स्वीडन की शरण मे रहीं। पर गंगा, मेघना, पद्मा, ब्रह्मपुत्र की नदियां और हिलसा उन्हें याद आती रही। कभी चुपके से आना फिर चुपके से विदेश सरक जाना, यही यायावरी उनकी नियति बनी रही और आज भी है। आज कल कहां है पता नहीं। लेकिन कोलकाता उनके मन मे बसा रहा । कोलकाता उनका दूसरा घर रहा। उनके होने का पता तभी चलता है जब वे धर्म की कट्टरता, या ईश्वर के विरुद्ध कुछ बोल देती हैं या उन्हें किसी साहित्यिक सम्मेलन में बुला कर कट्टरपंथी तत्वों के दबाव में फिर बैरंग वापस कर दिया जाता है। पर तसलीमा न तो कुछ कहने से बाज आती हैं और न कुछ लिखने से। आज तसलीमा नसरीन का #जन्मदिन है।
उन्हें जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला। अपने उदार तथा स्वतंत्र विचारों के लिये तसलीमा को देश-विदेश में सैकड़ों पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान किये गये हैं।
इनमें से कुछ ये हैं-
आनन्द साहित्य पुरस्कार, नाट्यसभा पुरस्कार, बांलादेश, यूरोपियन पार्लामेन्ट द्वारा विचार स्वातंत्य के लिये दिया जाने वाला शखारोव पुरस्कार, फ्रान्स सरकार द्वारा प्रदत्त मानवाधिकार पुरस्कार, फ्रान्स का 'एडिक्ट ऑफ नान्तेस' पुरस्कार, स्विडिश इन्टरनेशनल पेन द्वारा प्रदत्त कुर्त टुकोलस्की पुरस्कार,
संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार के लिये हेलमैन-ह्यामेट ग्रान्ट सम्मान ।
तसलीमा नसरीन की आलोचना धर्मभीरु और धर्मांध तो करते ही हैं पर धर्म और ईश्वर पर आस्था न रखने वाले नास्तिक वर्ग के कुछ लोग भी उनसे असहज हो जाते हैं। वे उन्हें पसंद तो करते हैं, पर खुल कर कह नहीं पाते। लोगों को लगता है कि तसलीमा समाज और परिवार की जो बहुत कुछ आवश्यक वर्जनाएं हैं उन सबको भग्न कर देना चाहती हैं। कुछ को लगता है वे अनावश्यक सबसे उलझती रहती हैं। पर हर कोई एक जैसा तो हो नहीं सकता। वे भी एक अलग शख्सियत हैं। इसमे कोई दो राय नहीं है कि तसलीमा ने धर्म के कट्टरता का खुल कर विरोध किया और उनके इसी मुखरता के कारण उनका भारत मे भी बहुत विरोध हुआ है और आज भी है। जयपुर साहित्य उत्सव में उन्हें आमंत्रित कर फिर उन्हें बोलने से मना कर दिया गया । प्रगतिशील विचारधारा के कुछ लेखकों ने भी, उनके साथ सहानुभूति रखते हुये भी उनसे दूरी बनाए रखी। इस्लामी कट्टरपंथी तत्वों ने तो उनके खिलाफ खुल कर कई फतवे जारी कर रखे हैं। पर वे न झुकीं और न हीं टूटीं। दुनियाभर में बहुत सी भाषाएं है, उनमें रोज़ कुछ न कुछ साहित्य रचा जा रहा है। लोग उसे पढ भी रहे हैं। कुछ सहमत भी हो रहे होंगे कुछ असहमत भी होंगे। पर दोनों के सहमत और असहमत होने के विंदु भी अलग अलग होंगे। पर किसी भी लेखक के विरुद्ध आहत भाव से फतवे जारी करना यह स्वयं इस बात को बताता है कि जब तर्क नहीं मिलते हैं तो अपशब्द ही निकलते हैं। तसलीमा का लेखन अभी भी जारी है। उनकी जिजीविषा और धर्मांध, कट्टर, पाखंडी, हिंसक और आक्रामक पौरोहित्यवाद के विरुद्ध उनका प्रतिरोध अभी भी सजग और सन्नद्ध है। वे स्वस्थ और प्रसन्न रहें तथा रचना कर्म में लगी रहें, यह मेरी शुभकामना है।
आज उनकी दो कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ, कृपया पढ़े।
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आई हूँ अस्त होने
( तसलीमा नसरीन )
पूरब में तो मैं जन्मी ही हूँ
पूरब में ही नाची हूँ मैं, अपना यौवन दिया है
पूरब में तो जो ढालना था मैंने ढाला ही है
अब जब कुछ भी नहीं बचा
जब कच्चे बाल पक गए
अब जबकि आँखों में मोतियाबिन्द है, धूसर-धूसर
जब ख़ाली-ख़ाली है सब कुछ
सब कुछ वीरान ... अस्त होने पश्चिम में आई हूँ।
अस्त होने दो, अस्त होने दो
यदि अस्त नहीं होने देते तो मुझे छुओ
थोड़ा-सा छुओ, बहुत ज़रा-सा छुओ
रोमों और सीने को
त्वचा की ज़ंग हटाकर छुओ त्वचा को, चुम्बन दो
गले को धर दबोचो
मौत की इच्छा को मार दो
सातवीं मंज़िल से फेंक दो! स्वप्न दो, बचा लो।
पूरब की साड़ी के आँचल को बाँध कर
पश्चिम की धोती की पटलियों से
रंग लाने के लिए मैं जाऊँगी आसमान के पार
जहाँ ढेर सारे रंगों के बर्तन रखे हुए हैं
कोई साथ चलेगा ?
पश्चिम से पूरब की ओर
दक्षिण से उत्तर में घूम-घूम कर
अब मैं उत्सव का रंग लाने जा रही हूँ
किसी और की इच्छा हो तो चले
किसी की भी इच्छा हो तो
दोनों आसमानों को ज़िन्दगी-भर के लिए मिला देने के लिए, चले।
यदि ये मिल जाएँ तो अस्त नहीं होऊँगी मैं
उस अखण्ड आकाश में मैं नहीं होऊँगी अस्त
काँटेदार तार की बागड़ बनाकर गुलाब का बग़ीचा लगाऊँगी
मैं अस्त नहीं होऊँगी,
इस पार से उस पार तक प्यार की खेती होगी
दिगन्त के पार तक तैरते-तैरते
मैं गंगा पद्मा और ब्रह्मपुत्र को एकाकार कर दूँगी
अस्त नहीं होऊँगी मैं...।
( मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी )
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नीलकण्ठ नारी
( तसलीमा नसरीन )
पीने के लिए मैं जो भी पात्र चुनती हूँ
उसमें होता है ज़हर, लेकिन पास ही
नासपाती का मधुर रस, अनार और अंगूर का बादामी शरबत।
हमेशा मैं रंग देखकर ग़लती कर बैठती हूँ
जो रंग ज़्यादा चमकीला होता है
उसके मोह में तुरन्त झुक जाती हूँ मैं
और पाती हूँ, कण्ठ से होकर उतरता है गरल।
यह मेरी व्यर्थता है कि
सौ गुलाबों के बीच से भी मैं हाथ मे उठा लेती हूँ
कनेर के पीले फूल।
( मूल बांग्ला से अनुवाद : मुनमुन सरकार.)
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© विजय शंकर सिंह
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