ग़ालिब - 23
अहबाब चारासाज़ी ए वहशत न कर सके,
ज़िंदान में भी खयाल बयाबां नदर्द था !!
अहबाब चारासाज़ी ए वहशत न कर सके,
ज़िंदान में भी खयाल बयाबां नदर्द था !!
Ahbaab chaaraa saazee e wahashat na kar sake,
Zindaan mein bhii khayaal bayaabaan nadard thaa !!
- Ghalib
Zindaan mein bhii khayaal bayaabaan nadard thaa !!
- Ghalib
अहबाब - मित्र, साथी, शुभचिंतक
चारासाज़ी - उपचार, इलाज, सुश्रुषा
ज़िन्दान - कारागार
बयाबां - जंगल
चारासाज़ी - उपचार, इलाज, सुश्रुषा
ज़िन्दान - कारागार
बयाबां - जंगल
मेरे दोस्त और शुभचिंतक भी मेरे उन्माद का कोई उपचार नहीं कर सके। मुझे उन्होंने कारागार में तो डाल दिया पर मेरा उन्माद बांध कर रखा नहीं जा सका। वह उन्मुक्त ही रहा ।
ग़ालिब के हर शेर को उसके पंक्तियों के बीच पढ़ना पड़ता है । उन्माद की अवस्था का उपचार कारागार नहीं हो सकता है। यह उन्माद प्रेम का भी हो सकता है और घृणा का भी। कारागार तो देह को ही निरुद्ध कर सकता है पर उन्माद, विचारों का उफान, इच्छा, कामना, चाहत आदि मनोभावों को वह सीमाबद्ध नहीं कर सकता है। इतिहास में ऐसे अनेक ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जब सालों साल लोग कारागार में निरुद्ध तो रहे हैं बल्कि उनका उन्माद और विचार प्रवाह शिथिल नहीं पड़ा। गालिब ने अपने जीवन मे बहुत कष्ट झेले। विपन्नता देखी, 1857 का गदर झेला, मुगल बादशाह द्वारा मिलती हुई पेंशन जब बंद हो गयी तो उसका अभाव झेला, और तो और जब लाट साहब के दरबार, कलकत्ता से बैरंग वापस आये तो उस आत्म सम्मान का क्षय भी झेला, पर उनके विचार, उन्माद पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा। तभी तो उन्होंने यह उम्दा शेर कहा,
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,
जो आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!
जो आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!
© विजय शंकर सिंह
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