Sunday 25 March 2018

स्वप्निल श्रीवास्तव की एक कविता - हंसी अब निर्मल नहीं रह गयी है / विजय शंकर सिंह

तानाशाही की हंसी में धूर्तता
और हत्यारे की हंसी में प्रतिशोध
छिपा है ।

राष्ट्राध्यक्षों की हंसी अनेकार्थी होती है
उसे वाद्ययंत्रों पर गाया जा सकता है
कभी-कभी वह शोकसभाओं में रोने
के काम आती है ।

मुसहिबों की हंसी का कोई अर्थ नहीं
वे बादशाह की हँसी का अनुसरण
करते हैं ।

हास्य कलाकारों ने हंसी को सर्वाधिक
विनष्ट किया है,
हंसी को उन्होंने व्यवसायिक बना दिया है ।

हंसी शब्दकोश में हंसी के पर्यायवाची
बदल गये हैं,
हंसी बोझिल और करुण
हो गयी है ।

हंसी बच्चों के होठों पर
बची हुई है लेकिन उन पर
शैतानों की नज़र है।

( स्वप्निल श्रीवास्तव )
***
© विजय शंकर सिंह

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