Thursday, 22 March 2018

भगत सिंह का साहित्य - 14 - इंकलाब जिंदाबाद के उद्घोष पर मॉडर्न रिव्यू के संपादक के नाम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का पत्र / विजय शंकर सिंह


मॉडर्न रिव्यू ( Modern Review ) कोलकाता से प्रकाशित होने वाली एक अंग्रेज़ी पत्रिका थी। इसका प्रकाशन 1907 में प्रारम्भ हुआ था। इसके संस्थापक रामचंद्र चटर्जी थे जो बंगाल के भद्रलोक और पढ़े लिखे बुद्धिजीवी समाज के एक प्रमुख स्तम्भ थे। इस पत्रिका में तत्कालीन राजनीति , अर्थ व्यवस्था, सामाजिक स्थितियों पर पर निबंध, कहानियां, कविताये, आदि प्रकाशित होते रहते थे। इस पत्रिका में अनेक लेख जवाहरलाल नेहरू ने भी चाणक्य के कूट नाम से भी लिखे थे। कविता प्रबुद्ध भारतीयों के बीच बहुत लोकप्रिय थी। प्रबासी नाम से इसका बांग्ला रूपांतरण भी प्रकाशित होता था।

शहीद यतीन्द्रनाथ दास थे तो बंगाल के पर वे लाहौर जेल में बंद थे। जेलों में कैदियों की दशा बहुत खराब थी। इसी दुरवस्था को ले कर उन्होंने भूख हड़ताल की और 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में 13 सितम्बर 1929 को शहीद हुए थे। उन्होंने जेलों में दुरवस्था के बारे में सरकार का ध्यानाकर्षण करने के लिये यह आमरण अनशन किया था। उनके निधन पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी । लाहौर उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ पड़ा था।  शव यात्रा में भारी संख्या में लोग, दुर्गा भाभी के नेतृत्व में जुलूस के रूप में निकले। लोगों में आक्रोश को देख कर सरकार ने जुलूस को रोकने की कोशिश भी नहीं की। शव यात्रा में इंकलाब जिंदाबाद के नारे खूब लगाए गए। यह उस समय का सबसे लोकप्रिय नारा था। लेकिन माडर्न रिव्यू’ के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय ने उनकी शहादत के बाद भारतीय जनता द्वारा शहीद के प्रति किए गए सम्मान को तो सराहा पर उनके ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे की आलोचना की। उनके अनुसार इंकलाब के लिये हिंसा का रास्ता भटकाव वाला होता है।  भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने माडर्न रिव्यू के सम्पादक को उनके उस सम्पादकीय का निम्नलिखित उत्तर दिया था। भगत सिंह ने संपादक के नाम एक पत्र लिख कर,  इंकलाब का अर्थ उन्हें स्पष्ट किया।
भगतसिंह ने अपने विचार स्पष्ट रूप से भारतीय जनता के सामने रखे। उनके विचार में, क्रांति की तलवार विचारों की धार से ही तेज होती है। वे विचारधारात्मक क्रान्तिकारी हालात के लिए संघर्ष कर रहे थे। अपने विचारों पर हुए सभी वारों का उन्होंने तर्कपूर्ण उत्तर दिया।
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श्री सम्पादक जी,
मार्डन रिव्यू।

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अंक में एक टिप्पणी ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है। आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी सम्पादक की रचना में दोष निकालना तथा उसका प्रतिवाद करना, जिसे प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे लिए एक बड़ी धृष्टता होगी। तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है।

यह आवश्यक है, क्योंकि इस देश में इस समय इस नारे को सब लोगों तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है। इस नारे की रचना हमने नहीं की है। यही नारा रूस के क्रांतिकारी आंदोलन में प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यासों ‘बोस्टन’ और ‘आईल’ में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रान्तिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है। इसका अर्थ क्या है? इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सशस्त्र संघर्ष सदैव जारी रहे और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिए भी स्थाई न रह सके। दूसरे शब्दों में, देश और समाज में अराजकता फैली रहे।

दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है, जो संभव है कि भाषा के नियमों एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध न हो पाए, परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारों को पृथक नहीं किया जा सकता, जो इसके साथ जुड़े हुए हैं। ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीकृत अर्थ के द्योतक हैं, जो एक सीमा तक उनमें उत्पन्न हो गए हैं तथा एक सीमा तक उसमें निहित है।
उदाहरण के लिए हम यतीन्द्रनाथ ज़िन्दाबाद का नारा लगाते हैं। इससे हमारा तात्पर्य यह होता है कि उनके जीवन के महान आदर्शों तथा उस अथक उत्साह को सदा-सदा के लिए बनायें रखें,जिसने इस महानतम बलिदानी को उस आदर्श के लिए अकथनीय कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी। यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिए अचूक उत्साह को अपनाएँ। यही वह भावना है,जिसकी हम प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार ‘इन्क़लाब’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए। इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगों के हितों के आधार पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न विशेषताएँ जोड़ी जाती हैं। क्रान्तिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है। हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का प्रयास किया था।

इस वक्तव्य में हमने कहा था कि क्रांति (इन्क़लाब) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता। बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं। इसमें भी सन्देह नहीं है कि कुछ आन्दोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते। विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अन्तिम परिणाम क्रांति हो।

एक वाक्य में क्रान्ति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एव आकांक्षा’ है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं। यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। यही परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं।
क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए, जिससे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा अभिप्राय जिसको हृदय में रख कर हम ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ का नारा ऊँचा करते हैं।

भगतसिंह, बी. के. दत्त
22 दिसम्बर, 1929
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This was published in The Tribune of December 24, 1929. To THE EDITOR MODERN REVIEW.

You have in the December (1929) issue of your esteemed magazine, written a note under the caption "Long Live Revolution" and have pointed out the meaninglessness of this phrase. It would be impertinent on our part to try to refute or contradict the statement of such an old, experienced and renowned journalist as your noble self, for whom every enlightened Indian has profound admiration. Still we feel it our duty to explain what we desire to convey by the said phrase, as in a way it fell to our lot to give these "cries" a publicity in this country at this stage. We are not the originators of this cry. The same cry had been used in Russain revolutionary movement. Upton Sinclair, the well known socialist writer, has, in his recent novels Boston and Oil, used this cry through some of the anarchist revolutionary characters. The phrase never means that the sanguinary strife should ever continue, or that nothing should ever be stationary even for a short while. By long usage this cry achieves a significicance which may not be quite justifiable from the grammatical or the etymological point of view, but nevertheless we cannot abstract from that the association of ideas connected with that. All such shouts denote a general sense which is partly acquired and partly inherent in them. For instance, when we shout "Long Live Jatin Das", we cannot and do not mean thereby that Das should Physically be alive. What we mean by that shout is that the noble ideal of his life, the indomitable spirit which enabled that great martyr to bear such untold suffering and to make the extreme sacrifice for that we may show the same unfailing courage in persuance of our ideal. It is that spirit that we allude to. Simiarly, one should not interpret the word "Revolution" in its literal sense. Various meanings and significances are attributed to this word, according to the interests of those who use or misuse it. For the established agencies of exploitation it conjures up a feeling of blood stained horror. To the revolutionaries it is a sacred phrase. We tried to clear in our statement before the Session Judge, Delhi, in our trial in the Assembly Bomb Case, what we mean by the word "Revolution" We stated therein that Revolution did not necessarily involve sanguinary strife. It was not a cult of bomb and pistol. They may sometimes be mere means for its achievement. No doubt they play a prominent part in some movements, but they do not - for that very reason -become one and the same thing. A rebellion is not a revolution. It may ultimately lead to that end. The sense in which the word Revolution is used in that phrase, is the spirit, the longing for a change for the better. The people generally get accustomed to the established order of things and begin to tremble at the very idea of a change. It is this lethargical spirit that needs be replaced by the revolutionary spirit. Otherwise degeneration gains the upper hand and the whole humanity is led stray by the reactionary forces. Such a state of affiars leads to stagnation and paralysis in human progress. The spirit of Revolution should always permeate the soul of humanity, so that the reactionary forces may not accumulate (strength) to check its eternal onward march. Old order should change, always and ever, yielding place to new, so that one "good" order may not corrupt the world. It is in this sense that we raise the shout "Long Live Revolution"

Yours sincerely
(Sd/-.)
Bhagat Singh B. K. Dutt
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Date Written: December 22, 1929
Author: Bhagat Singh and B. K. Dutt
Title: Letter to the Editor, Modern Review (Sampadak Modern Review ke nam patra)
Source: Letter written to the Editor Modern Review explaining the slogan of ‘Long Live Revolution’. This was published in The Tribune of December 24, 1929.

© विजय शंकर सिंह

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