Wednesday 21 March 2018

एक कविता - एक कविता लिखो / विजय शंकर सिंह

उसने कहा है,
एक कविता लिखो,
मुझ पर ।

मैंने आँखों में झाँका उसके,
दूर तक फैला,
स्पंदित सागर दिखा,
देखता ही रहा, अनंत तक,
क्षितिज के पार कुछ भी न दिखा ।

फिर कुंतल,
घना अरण्य,
राह खोजे तो
खोजते ही रह जाय कोई,
भटकता ही रहे अहर्निश
न थके , न ऊबे !

उत्सुक आँखें,
संधि काल की दिव्य लालिमा से
आभासित आनन,
दृष्टि हटती भी कैसे,
पहाड़ों से उतरती हुयी,
उदय और अस्त होते हुए,
मिहिर के आलोक के समक्ष।

एक अदद कागज़,
और हाँथ में कलम थामे,
ढूंढ रहा हूँ, शब्द दर शब्द,
पलट रहा हूँ पन्ने शब्दकोशों के,
भटकता हूँ,
प्रतीकों की खोज में,
गढ़ता हूँ विम्ब ढेर सारे ।

सजाता हूँ, इन विम्बों को,
संवारता हूँ, प्रतीकों से,
रचता हूं,
एक संसार कविता का ।

उत्सुक हो, हुलास से,
तौलता हूँ जब उसे,
खो जाता हूँ, फिर
सागर की शांत लहरों,
दिव्य अरण्य
उदय और अस्त होती आभा में. 

सिलसिला शुरू हो जाता है,
फिर नये  शब्दों, प्रतीकों
और विम्बों की खोज का ,
मुझे अब भी, तलाश है,
शब्द, प्रतीक और बिंबों की ।

उसने कहा है,
एक कविता लिखो !!

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment