Sunday, 18 March 2018

काल गणना - विक्रम और शक संवत - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

विक्रम संवत ।
विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत 57 ई.पू. आरम्भ होती है। इसका प्रणेता नेपाल के लिच्छव वंशके प्रथम राजा धर्मपाल भूमिवर्मा विक्रमादित्य को माना जाता है। इस तथ्यको गुजरात के खोजकर्ता पं.भगवानलाल इन्द्रजी ने भी सही ठहराया है। लेकिन विद्वान इस धारणा पर एकमत नहीं हैं।

एक अन्य धारण के अनुसार यह संवत् भारतवर्ष के सम्राट विक्रमादित्य ने शुरु किया था लेकिन काल गणना में यह धारणा सही नहीं ठहरती है । क्योंकि मगध के सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयनी और अयोध्या पर विजय प्राप्त किया और खुद को 'विक्रमादित्य' सम्राट की उपाधि दी ।

एक अन्य प्रचलित धारणा के अनुसार,जो विक्रम संवत्‌ ईसा से 57 वर्ष पहले अस्तित्व में आया था, काल गणना की पद्धति से,  सम्राट विक्रमादित्य, जिन्होंने मालवों का नेतृत्व कर विदेशी ‘शकों’ को धूल धुसरित किया था,द्वारा विक्रम संवत के प्रारंभ किये जाने की अवधारणा से मेल खाता है।  यह परमार वंश के राजा थे। जिनके पराक्रम की अनेक कथायें, और किंवदंतियां लोकमानस में आज भी जीवंत हैं। इन्हें शकारि भी कहा गया है। बृहत्संहिता की व्याख्या करते हुए 966 ईसवी में ‘उत्पल’ ने लिखा कि शक साम्राज्य को जब सम्राट विक्रमादित्य ने पराभूत कर दिया,तब नया संवत अस्तित्व में आया, जिसे आज विक्रम संवत कहा जाता है। यह धारणा अधिक मान्य लगती है।

विदेशी शकों को उखाड़ फेंकने के बाद तब के प्रचलित शक संवत के स्थान पर विदेशियों और आक्रांताओं पर विजय स्तंभ के रूप में विक्रम संवत स्थापित हुआ। आरम्भ में इस संवत्‌ को कृत संवत के नाम से जाना गया। कालांतर में यह, विक्रम संवत्‌ के रूप में प्रसिद्ध हो गया।

द्वादश माह के वर्ष एवं सात दिन के सप्ताह का आग़ाज़ विक्रम संवत से ही आरम्भ हुआ। विक्रम संवत में दिन, सप्ताह और मास की गणना सूर्य व चंद्रमा की गति पर निश्चित की गई। यह काल गणना अंग्रेज़ी कैलेंडर से बहुत आधुनिक और विकसित प्रतीत होती है। इसमें सूर्य, चंद्रमा के साथ अन्य ग्रहों को तो जोड़ा ही गया,साथ ही आकाशगंगा के तारों के समूहों को भी शामिल किया गया, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है। एक नक्षत्र चार तारा समूहों के मेल से निर्मित होता है, जिन्हें नक्षत्रों के चरण के रूप में जाना जाता है। कुल नक्षत्र की संख्या सत्ताईस मानी गयी है, जिसमें अट्ठाईसवें नक्षत्र अभिजीत को शुमार नहीं किया गया। सवा दो नक्षत्रों के समूहों को एक राशि माना गया। इस प्रकार कुल बारह राशियां वजूद में आईं, जिन्हें बारह सौर महीनों में शामिल किया गया।पूर्णिमा पर चंद्रमा जिस नक्षत्र में गतिशील होता है, उसके अनुसार महीनों का विभाजन और नामकरण हुआ है। सूर्य जब नई राशि में प्रविष्ट होता है वह दिवस संक्रांति कहलाता है। पर चूँकि चंद्रवर्ष सूर्यवर्ष यानि सौर वर्ष से ग्यारह दिवस,तीन घाटी, और अड़तालीस पल कम है, इसीलिए हर तीन साल में एक एक मास का योग कर दिया जाता है, जिसे बोलचाल में अधिक माह,मल मास या पुरूषोत्तम माह कहा जाता है।

शक संवत ।
राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत भारत की बेहद प्रचलित काल निर्णय पद्धति है। शक संवत्‌ का आरम्भ ईसा से लगभग अठहत्तर वर्ष बाद शुरू होता है। कनिष्क का राज्याभिषेक 78 ई में हुआ था। इसके मूल में सम्राट कनिष्क की भी महती भूमिका मानी जाती है। शक संवत को ‘शालिवाहन’ भी कहा जाता है। पर शक संवत के शालिवाहन नाम का उल्लेख तेरहवीं से चौदहवीं सदी के शिलालेखों में मिलता है। कहीं कहीं इसे सातवाहन भी कहा गया है। संभावना है कि सातवाहन नाम पहले साल वाहन या शाल वाहन बना और कालांतर में ये ‘शालिवाहन’ के स्वरूप में प्रख्यात हुआ। शक संवत के साल का आग़ाज़ चन्द्र सौर गणना के लिए चैत्र माह से और सौर गणना के लिए मेष राशि से होता है।

© विजय शंकर सिंह

1 comment:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 20/03/2018 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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