उन्होंने सूअर खा कर त्रिपुरा में वोट लिया है। यह उनकी पुरानी आदत है भावनाओं के ज्वार पर सागर पार करने की। अतिथि ने सूअर खाया। आतिथेय प्रसन्न हुआ और वोट दे कर चला आया। न राजनीति की बातें, न जनहित के मुद्दे, न सबका साथ और सबका विकास का चिर परिचित जुमला। वोट लेना भी एक कला है। कहीं ठर्रा पिला कर, तो कहीं दिखावे के लिये नैतिकता का लबादा ओढ़ कर, तो कहीं रो कर, तो कहीं अतिश्योक्ति बहा कर, तो कहीं कोई और नुस्खा अपना कर राजनेता वोट लेते ही रहते हैं। हम भी दयार्द्र हो अपना सबसे बहुमूल्य अधिकार इन पर लुटा देते हैं और फिर भरपूर कोसते भी हैं। गाय के साथ भी यही कथा है। कहीं गाय पूजने से वोट मिलता है तो कहीं गाय खाने से। देश ही विचित्र हैं। एक का पूज्य दूसरे का भोज्य हो जाय और फिर भी लोग सदियों से साथ साथ रहते आयें, यह इसी महान देश मे सम्भव है।
राजनीति का उद्देश्य ही सत्ता प्राप्त करना रहा है। यह राजनीति ही थी जिसने राम को उनके हक़ से वंचित रख कर चौदह साल वन में भटकाया। यह राजनीति ही थी जिसने मर्यादा पुरुषोत्तम से अकारण बाली की हत्या जैसा अक्षत्रियोचित कृत्य कराया। यह राजनीति ही थी, जिसने दौपदी का अत्यंत वरिष्ठ और गरिष्ठ महानुभाओं के बीच अपमान कराया, यह राजनीति ही थी जिसने एक महावंश का सर्वनाश कर दिया। राजनीति के कुटिल चाल की कथा अनन्त है और सर्वव्यापी भी। सुअर खा कर वोट तो मिल गया पर सुअर खा कर सरकार नहीं चलाई जा सकती है। सरकारें जिन्हें अंग्रेज़ी में गवर्नेंस कहते हैं, उन्माद, लफ्फाजी और भावुकता से नहीं चलती है। मिथ्यावाचन से जितना अधिक वोट मिलता है उतना ही मिथ्यावाचन से सरकारें दरकती भी है। जब सवाल उठते हैं तो बड़बोले भी मौन धारण कर लेते हैं। सरकार बना लेना और जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतर कर सरकार चलाना दोनों अलग अलग बातें हैं। सरकार चलती है विशाल हृदयता से, कानून के कानूनी ढंग से पालन करने और कराने से और जनता को उससे किये वायदे पूरे करने से। सरकार तो सुअर खाने के लिये सबको समय पर और बिना किसी अड़चन के उपलब्ध कराए , इस से चलती है। ( सुअर से यहां मेरा तात्पर्य जनता को उसकी आवश्यकताओं से हैं ).
© विजय शंकर सिंह
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