होली पर नज़ीर अकबराबादी की यह प्रसिद्ध नज़्म पढिये।
***
जब फागुन रंग झमकते हों...
जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारे होली की
तब देख बहारें
की,
जब फागुन रंग झमकते हों...
परियों के रंग दमकते हों,
कुछ शीशे जाम छलकते हों,
महबूब नशे में छकते हों,
जब फागुन रंग झमकते हों,
जब फागुन रंग झमकते हों..
नाच रंगीली परियों का,
कुछ भींगी तानें होली की,
कुछ टेबल खडकेे रंग भरे,
कुछ घुंघुरू ताल छनकते हों,
जब फागुन रंग झमकते हों,
जब फागुन रंग झमकते हों,
मुंह लाल गुलाबी आँखें हो,
और हांथों में पिचकारी हो,
उस रंग भरी पिचकारी को,
अंगिया पर तक कर मारी हो,
सीनों से रंग ढलकते हों,
तब देख बहारें होली की,
जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें होली की
तब देख बहारे होली की
जब फागुन रंग झमकते हों !!
(नजीर अकबराबादी.)
Jab Phagun Rang Jhamakte Ho.
Jab phagun rang jamakate ho
Tab dekh bahare holi ki
Tab dekh bahare holi ki
Jab phagun raang jamakte
Pariyo ke rang damakate ho
Kum shishe jaam chhalakate ho
Mahabub nashe mein chhakate ho,
Jab phagun rang jamakate ho
Jab phagun rang jamakate ho
Nach rangilee pariyo kaa,
Kuchh bhigi tane holi ki
Kuchh tabale khadake rang bhare,
Kuchh ghungharu tal chhanakate ho
Jab phagun rang jamakate ho
Jab phagun rang jamakate ho
Munh lal gulabi aankhe ho,
Aur hathon mein pichakari ho
Uss rang bhari pichakari ko,
Angiya par tak tar mari ho
Sinon se rang dhalakate hon,
Tab dekh baharein holi ki
Jab phagun rang jamakate ho"
Tab dekh bahare holi ki
Tab dekh bahare holi ki
Jab phagun rang jamakate ho.
#Nazeer_Akabarabadi.
***
नज़ीर अकबराबादी (अंग्रेज़ी: Nazeer Akbarabadi, जन्म: 1740 - मृत्यु: 1830)
समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी को नज़ीर साहब ने कविता में तब्दील कर दिया। उन्होंने ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी वस्तुओं पर कविताये लिखी हैं। वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं। लगभग सौ वर्ष की आयु पाने पर भी इस शायर को जीते जी उतनी ख्याति नहीं प्राप्त हुई जितनी कि उन्हें आज मिल रही है। भाषा के क्षेत्र में भी वे उदार हैं, उन्होंने अपनी शायरी में जन-संस्कृति का दिग्दर्शन कराया है और हिन्दी के शब्दों से परहेज़ नहीं किया है। उनकी शैली सीधी असर डालने वाली है और अलंकारों से मुक्त है। शायद इसीलिए वे बहुत लोकप्रिय भी हुए।
नज़ी़र की जन्मतिथि का किसी को पता नहीं है। संभवतः वे नादिरशाह के दिल्ली में हमले के समय 1739 या 1740 ई. में पैदा हुए थे। प्रो. शहबाज़ के कथनानुसार उनका जन्म 1735 ई. में हुआ था। ख़ैर, यह अंतर कोई ख़ास नहीं है। उनका जन्मस्थान दिल्ली था। 1739 ई. में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था।
फिर तो दिल्ली पर मुसीबतों के पहाड़ एक के बाद एक टूट पडे़। 1748, 1751 और 1756 में अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण लगातार होते रहे। चारों ओर डर और खौ़फ़ का माहौल था। नज़ीर के नाना 'नवाब सुलतान खां' आगरा के क़िलेदार थे। दिल्ली के बुरे हालात देखकर ‘नज़ीर’ दिल्ली से अपनी ननिहाल आगरा चले गए। उस समय उनकी आयु 22-23 वर्ष की थी। आगरा उनका प्यारा शहर था। आगरा में ही 'तहवरुनिस्सा बेगम' से ‘नज़ीर’ ने शादी की, जिनसे उनकी दो संताने हुई। एक लड़का 'गुलज़ार अली' और एक लड़की 'इमामी बेगम'। इमामी बेगम के एक लड़की हुई जिसका नाम 'विलायती बेगम' था। विलायती बेगम प्रो. शहबाज़ जो उर्दू के विद्वान थे के समय ज़िन्दा थीं और उन्होंने प्रोफेसर शाहबाज की पुस्तक ‘ज़ि़न्दगानी-ए-बेनज़ीर के लिए बहुत सी आवश्यक सामग्री दी। यह उर्दू साहित्य का सौभाग्य ही है कि इमामी बेगम की लड़की विलायती बेगम सन् 1900 ई. में ज़िंदा थी, जब 'औरंगाबाद कॉलेज' के प्रोफ़ेसर 'मौलवी सैय्यद मुहम्मद अब्दुल गफ़ूर ‘शहबाज़’ ‘नज़ीर’ की लेखनी पर खोज कर रहे थे। विलायती बेगम ही की मदद से प्रो. शहबाज़ ने ‘नज़ीर’ के कलामों को संजोया और इसे दुनिया के सामने बतौर ‘ज़िन्दगानी-ए-बेनज़ीर’ पेश किया वरना ‘नज़ीर’ के साथ ही उनके कलाम भी शायद दफ़न हो जाते।
नज़ीर अकबराबादी की प्रमुख रचनाएँ
बंजारानामा
फ़क़ीरों की सदा
जब खेली होली नंद ललन
रीछ का बच्चा
है दुनिया जिसका नाम
रोटियाँ
बसंत (i)
बसंत (ii)
बसंत (iii)
होली की बहार
होली पिचकारी
दूर से आये थे साक़ी
देख बहारें होली की
न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की
शहरे आशोब भाग-1
शहरे आशोब भाग-2
दरसनाए पैग़म्बरे ख़ुदा
श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में
गुरु नानक शाह
इश्क़ की मस्ती
पेट
राखी
‘नज़ीर’ बहुत पुराने ज़माने में पैदा हुए थे। उन्होंने लम्बी उम्र पाई। उनके मरने के लगभग सौ वर्ष बाद उनकी रचनाओं को ऐतिहासिक महत्त्व मिला। सम्भवतः किसी और साहित्यकार को कीर्ति इतनी देर से नहीं मिली। इसीलिए यह भी सुनिश्चित है कि ‘नज़ीर’ की कीर्ति का स्थायित्व भी अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक होगा। अभी तो सम्भवतः ‘नज़ीर’ के काव्य की मान्यता का शैशवकाल ही है। ‘नज़ीर’ को उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने, जिनमें नवाब मुस्तफ़ा-ख़ां ‘शेफ़्ता’ प्रमुख हैं, निकृष्ट कोटि का कवि माना है। नवाब ‘शेफ़्ता’ द्वारा लिखित उर्दू कवियों के तज़किरे गुलशने-बे-ख़ार की रचना के बहुत पहले ही नज़ीर परलोकवासी हो गए थे। किन्तु यदि ‘शेफ़्ता’ जैसा विद्वान् उनके जीवनकाल ही में उन्हें निकृष्ट कोटि का कवि करार देता तो भी उन्हें चिन्ता न होती। नज़ीर ने कभी खुद को ऊंचा कवि नहीं कहा, हमेशा अपने को साधारणता के धरातल पर ही रखा। उन्होंने अपने व्यक्तित्व का जो भी चित्रण किया है, उसमें अपना हुलिया बिगाड़कर रख दिया है। साहित्यिक कीर्ति के पीछे दौड़ने की तो बात ही क्या, उन्होंने लखनऊ और भरतपुर के दरबारों के निमंत्रणों को अस्वीकार करके जिस तरह मिलती हुई कीर्ति को भी ठोकर मार दी, उसे देखकर आज के ज़माने में जबकि साहित्य क्षेत्र में हर तरफ कुंठा का बोलबाला दिखाई देता है, हमारी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि ‘नज़ीर’ किस मिट्टी के बने थे।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment