Sunday 7 August 2022

आबिद हसन 'सफरानी' : सुभाष चन्द्र बोस के दल का वह सेनानी जिसने दिया था, ‘जय हिन्द’ का नारा!


साल था 1941 और नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को ब्रिटिश राज से आज़ाद कराने के लिए हिटलर की मदद लेने बर्लिन पहुँच चुके थे। उनका मानना था कि भारत को आज़ादी केवल सशस्त्र आंदोलन से ही मिल सकती है। इसी सोच से प्रेरित होकर इस स्वतन्त्रता सेनानी ने अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाना शुरू किया।

नेताजी के दो उद्देश्य थे। पहला, एक निर्वासित भारत सरकार की स्थापना करना और दूसरा, ‘आज़ाद हिन्द फौज’ का गठन करना। उनकी योजना इस फौज में 50,000 सैनिकों को शामिल करने की थी, जिनमें से अधिकतर भारतीय सैनिक थे जो रोममेल अफ्रीका कॉर्प्स के द्वारा बंधक बनाए गए थे। इनके अलावा भारतीय युद्ध कैदी भी थे।
 नेताजी आईएनए को एक उच्च कोटि की सेना बनाना चाहते थे, जिसका प्रशिक्षण जर्मन आर्मी के स्तर का हो। वे एक ऐसी सेना गठित करना चाहते थे, जिसके सैनिक भारत की स्वतन्त्रता को एकमात्र लक्ष्य मान कर अपने साथी सैनिकों के कंधे से कंधा मिला कर चलें। ऐसा करने के लिए यह ज़रूरी था कि इस सेना में अटूट एकता और सामंजस्य हो।

यह नेताजी के लिए काफी चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि भारतीय सैनिक खुद को अपनी जाति व धर्म के समूह तक ही सीमित रखते थे। इसका कारण था कि ब्रिटिश-भारतीय सेना में इन सैनिकों को इनकी जाति और धर्म के अनुसार रेजीमेंट में संगठित किया जाता था, उदाहरण के लिए राजपूत, बलूची, गोरखा, सिख आदि।

इस समस्या से निपटने के लिए नेताजी धर्म पर आधारित अभिवादन, जैसे हिन्दूओं के लिए  ‘राम-राम’, सिखों के लिए ‘सत श्री अकाल’ और मुसलामानों के लिए ‘सलाम अलैकुम’ को हटा कर कोई ऐसा अभिवादन अपनाना चाहते थे, जिससे कोई धार्मिक पहचान नहीं जुड़ी हो, ताकि सैनिकों के बीच दूरियाँ कम हों और वे एक-दूसरे से जुड़ पाएँ। इसलिए उन्होंने ‘जय हिन्द’ के अभिवादन को अपनाया।  

जिस व्यक्ति ने यह धर्मनिरपेक्ष अभिवादन दिया, वे हैदराबाद के आबिद हसन सफ़रानी थे जो नेताजी के विश्वसनीय सहयोगी और आइएनए में मेजर थे।

आबिद हसन हैदराबाद के ऐसे परिवार में बड़े हुए जो उपनिवेशवाद का विरोधी था। किशोरावस्था में ही ये महात्मा गाँधी के अनुयायी बन गए और इन्होंने साबरमती आश्रम में कुछ समय बिताया।
 आगे चल कर जब इनके सारे साथी इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने चले गए, तब आबिद ने इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के लिए जर्मनी जाने का फैसला किया। यहीं 1941 में पहली बार इनकी मुलाक़ात नेताजी से भारतीय युद्ध कैदियों से मिलने के दौरान हुई।
 
इस करिश्माई नेता से प्रेरित हो आबिद ने पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर आबिद नेताजी के निजी सचिव और इनके जर्मनी में ठहरने के दौरान उनके दुभाषिया बन गए। इसके बाद ही, आईएनए के प्रशिक्षण के दौरान नेताजी ने अपने करीबी सहयोगियों से एक ऐसे अभिवादन को लेकर बात की जो जाति-धर्म के बंधन से परे हो और सेना में एकीकरण को प्रोत्साहित करे।

यह आबिद ही थे जिन्होंने तब छोटा, लेकिन प्रभावशाली संबोधन ‘जय हिन्द’ अपनाने का सुझाव दिया, जिसे तुरंत ही नेताजी की स्वीकृति मिल गयी। नेताजी द्वारा जल्द ही इसे आईएनए क्रांतिकारियों के अभिवादन के लिए औपचारिक रूप से अपना लिया गया और वे इसका उपयोग अपने भाषणों में करने लगे। आगे चलकर इसे भारत के पहले राष्ट्रीय नारे के रूप में अपनाया गया। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 को इसे अपने ऐतिहासिक भाषण में इस्तेमाल किया।
 
1942 में नेताजी के गुप्त दक्षिण-पूर्व एशियाई दौरे पर आबिद उनके साथ थे। यह यात्रा एक जर्मन पनडुब्बी (अंटरसीबूट 180) से की जा रही थी। इस यात्रा के दौरान जहाँ आबिद क्रू के साथ हंसी-मज़ाक करते रहते थे, वहीं नेताजी अपना समय पढ़ने-लिखने या जापानियों के साथ समझौता करने के बारे में योजना बनाने में लगाते थे।
 
अपने संस्मरण ‘द मैन फ्रॉम इम्फ़ाल’ में आबिद ने बोस के बारे में लिखा,
“मैं जितने लोगों को जानता हूँ, वे उन सब से अधिक काम कर रहे थे। वे शायद ही रात के 2 बजे से पहले सोते होंगे और मुझे एक भी ऐसा दिन याद नहीं, जब सूर्योदय के समय वे बिस्तर पर मिले होंगे। पूर्वी-एशिया के संघर्ष को ले कर उनके पास बहुत सारी योजनाएँ थीं और वे सब पर काम करते थे। जैसे कि इनकी आदत थी, हर किसी चीज़ पर ये विस्तारपूर्वक काम करते थे।“
 
अप्रैल 21, 1943 के तड़के इस जर्मनी पनडुब्बी का सामना जापानी पनडुब्बी से हुआ और इनके बीच सांकेतिक भाषा में बात हुई। इस बात को जानते हुए भी कि उस समय समुद्र की लहरें उफान पर थीं, नेताजी और आबिद ने एक पटरी पर कदम रखा और तूफानी लहरों को पार करते हुए जापानी पनडुब्बी I-29 पर चढ़ गए।
 
इसमें भले ही कुछ मिनट लगे, पर यह एक बेहद साहसिक काम था, जिसका उदाहरण किसी दूसरे युद्ध में नहीं मिलता। उफनती लहरों के बीच एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में जाने की यह पहली घटना थी। इसके बाद इन दोनों पनडुब्बियों ने लहरों में गोता लगाया और अपने-अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ीं। हिटलर के रेंच में दो साल बिताने के बाद अब दोनों जापान की इंपीरियल नेवी के मेहमान बन गए।

I-29 पनडुब्बी में जाने के बाद जापानी कप्तान टेयओका ने इन भारतीय मेहमानों को अपना केबिन दे दिया। बोस और आबिद को उनके इस शानदार ‘क्रॉसिंग’ और जापानी राजा के जन्मदिन की खुशी में गर्म करी परोसी गयी। सफ़रानी ने इस अनुभव के बारे में लिखा है कि ऐसा लगा मानो यह घर लौटने जैसा था।

टोक्यो पहुँचने के बाद नेताजी ने आईएनए की कमान संभाल ली और फिर इनके जीवन के सबसे सुंदर अध्याय की शुरुआत हुई। यह वो समय था, जब आईएनए का अभियान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र में बढ़ रहा था। इसी समय इस साहसी सैनिक ने सांप्रदायिक एकता और मान के प्रतीक के रूप में अपने नाम में ‘सफ़रानी’ जोड़ लिया था।

कहा जाता है कि आईएनए में हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों के बीच झंडे के रंग को ले कर मतभेद था। एक तरफ जहाँ हिन्दू चाहते थे कि झंडा केसरिया रंग का हो, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम हरे रंग का झंडा चाहते थे। जब हिन्दुओं ने अपनी मांग वापस ले ली, तब आबिद उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें मान देने के लिए इन्होंने अपने नाम के आगे ‘सफ़रानी’ जोड़ने का निश्चय किया।

1943 में जब नेताजी ने आईएनए द्वारा गठित अल्पकालीन सरकार के लिए रबीन्द्रनाथ टैगोर के ‘जन–गण–मन’ को गान के रूप में चुना, तब आबिद को इसका हिन्दी में अनुवाद करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इनका अनुवाद ‘सब सुख चैन’ का संगीत राम सिंह ठाकुरी ने दिया था, जो जल्दी ही एक लोकप्रिय गान बन गया।

आबिद ने 1944 में 4 महीने लंबा इम्फाल का युद्ध लड़ा, जिसे ब्रिटिश आर्मी द्वारा लड़ा गया ‘सबसे लंबा युद्ध’ कहा जाता है। दुर्भाग्य से इसमें इन्हें हार का सामना करना पड़ा और खिन्न मन से इन्हें वापस रंगून लौटना पड़ गया। अगस्त 1945 में सुभाष चन्द्र बोस की सिंगापुर से टोक्यो की अंतिम विमान यात्रा में आबिद उनके साथ जाने वाले थे, पर आखिरी समय में उन्हें किसी काम के कारण रुकना पड़ गया। दुर्घटना के तुरंत बाद आबिद को गिरफ्तार कर लिया गया और नेताजी के बारे में कई सवाल पूछे गए, पर इस वफादार सहयोगी ने कुछ भी बताने से मना कर दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में 1946 की आइएनए की जांच के बाद आबिद को आखिरकार  छोड़ दिया गया और ये स्वदेश लौट गए। कुछ दिनों के लिए ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में रहे, पर जल्द ही इस संगठन को छोड़, हैदराबाद में बस गए। स्वतन्त्रता के बाद ये भारतीय विदेश सेवा मे शामिल हो गए।

एक राजनयिक के रूप में लंबे और शानदार करियर के बाद आबिद 1969 में डेनमार्क में राजदूत के रूप में रिटायर हुए और हैदराबाद वापस आ गए। इन्होंने कई देशों में भारतीय राजदूत के रूप में काम किया। इनका निधन 1984 में 73 वर्ष की उम्र में हुआ।

कम ही लोग जानते होंगे कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भतीजे अरबिंदो बोस ने आगे चलकर आबिद हसन की भतीजी सुरैया हसन से विवाह किया!

महेंद्र सिंह विष्ट
(Mahendra Singh Vist 
#vss

No comments:

Post a Comment