Wednesday, 24 August 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (8)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र—III

भास के पूर्वोक्त प्राचीन नाटक दरिद्र चारुदत्त: से वसंतसेना—चारुदत्त प्रेमप्रसंग को लेकर उसे  सत्ता-परिवर्तन की राजनीतिक प्रतिबद्धता से जोड़ने की उद्भावना मृच्छकटिकम्‌ का मौलिक योगदान है। और इसका यह नया नामकरण इस उद्भावना का बीजविंदु। इस नाम की व्यंजना वसंतसेना के चरित्र की धवलता को एक नई दीप्ति भी प्रदान करती है।

षष्ठ अंक--प्रथम दृश्य
वसंतसेना और धूता   

[संवादों (भावानुवाद) से ही पात्रों का चरित्र पर्त-दर-पर्त खुलता जाएगा।]

चारुदत्त का घर। घर की एक सेविका मंच पर प्रकट होती है।

सेविका—क्या अभी तक आर्या वसंतसेना सोई हुई हैं ? चलकर उन्हें जगाती हूँ। (मंच पर घूमती है)    

वसंतसेना चादर से देह ढककर सोती दिखाई पड़ती है।

सेविका—आर्ये, उठें-उठें, भोर हो गया।     

वसंतसेना—(जगकर) क्या रात ही भोर हो गई? 

सेविका—हम लोगों के लिए तो भोर हो गयी, आर्या के लिए अभी रात ही होगी।

वसंतसेना—अरे, तुम्हारे जुआरी जी कहाँ चले गए? 

सेविका—वर्धमानक (भृत्य) को ज़रूरी हिदायत देकर पुष्पकरण्डक नाम के पुराने उद्यान। 

वसंतसेना—उससे क्या कहकर गए हैं? 

सेविका—रात में ही गाड़ी जोड़ लो। आर्या वसंतसेना उसी से जाएँगी। 

वसंतसेना—मुझे कहाँ जाना है? 

सेविका—जहाँ आर्य चारुदत्त गए हैं। 

वसंतसेना--(ख़ुशी से सेविका को गले लगाकर) यह तो बहुत प्रिय बात हुई। क्या है कि रात में मैं उन्हें ठीक से देख नहीं पाई। अब दिन में अच्छी तरह देखूँगी...सखी, यह बताओ, क्या मैं इस घर के अंत:पुर में प्रविष्ट हूँ? 

सेविका—केवल अंत:पुर में नहीं, आप तो हम सब के हृदय में भी समा गई हैं।

वसंतसेना—क्या चारुदत्त के परिवारवाले मेरे यहाँ आने से दु:खी हैं? 

सेविका—हैं नहीं, पर हो जाएँगे। 

वसंतसेना—कब? 

सेविका--जब आर्या यहाँ से जाएँगी। 

वसंतसेना—तब तो पहले मुझे ही दु:खी होना चाहिए। (अनुनय के साथ) सखी, यह रत्नहार लो और जाकर मेरी बहन आर्या धूता को दे आओ। उनसे कह देना—‘मैं आर्य चारुदत्त के गुणों से अभिभूत, उनकी दासी हूँ, इसलिए आपकी भी दासी हूँ, इसलिए यह रत्नहार आपके ही गले की शोभा बनने लायक है।

सेविका—लेकिन इससे तो आर्य चारुदत्त आर्या धूता पर रुष्ट हो जाएँगे। 

वसंतसेना—जाओ तो। बिल्कुल रुष्ट नहीं होंगे। 

सेविका—(हार लेकर) जैसी आपकी आज्ञा। (बाहर निकल जाती है। किंतु थोड़ी ही देर में हार लिए-लिए वापस आ जाती है।) आर्या धूता ने आपके लिए कहा—‘आर्यपुत्र ने आप पर प्रसन्न होकर यह हार दिया था। इसलिए इसे वापस लेना मेरे लिए उचित नहीं।‘ आपके लिए उन्होंने आगे  कहा—‘आपको जानना चाहिए कि आर्यपुत्र ही मेरे सबसे उत्तम आभूषण हैं।‘

[धूता की बात से उसकी जो भी मनोदशा व्यंजित हुई हो और वसंतसेना ने उसका जो भी अर्थ लगाया हो, बात वहीं ख़त्म हो गई‌। धूता को मायके से मिला रत्नहार वसंतसेना के पास ही रह गया।]

षष्ठ अंक—द्वितीय दृश्य: वसंतसेना और रोहसेन: नाटक के नामकरण का कारुणिक प्रसंग  

(चारुदत्त की सेविका रदनिका बालक (रोहसेन) के साथ मंच पर प्रवेश करती है।)     

रदनिका—आओ बेटे, हम इस गाड़ी से खेलें। 

बालक--(रुआसा होकर) मुझे यह मिट्टी की गाड़ी नहीं चाहिए, वही सोने वाली चाहिए। 

रदनिका (लम्बी साँस लेकर, बहुत दु:ख के साथ) बेटा, हमारे घर में सोने का प्रयोग कहाँ होता है! तुम्हारे पिता पर जब पुन: लक्ष्मी की कृपा होगी, तब सोने की गाड़ी से खेलना। (स्वगत) इस बालक को और कैसे बहलाऊँ? आर्या वसंतसेना के पास ही ले चलती हूँ। (वसंतसेना के पास आकर) आर्ये, प्रणाम करती हूँ।

वसंतसेना—आओ रदनिके। अच्छा हुआ, आ गई...यह बालक किसका है? बिना किसी अलंकरण के भी चाँद-से मुखड़ेवाला यह बच्चा मेरे हृदय को आनंद से सराबोर कर रहा है। 

रदनिका—यह आर्य चारुदत्त का पुत्र है। इसका नाम है रोहसेन।          

वसंतसेना—(बाहें फैलाकर) मेरे बेटे, आओ, गले लग जाओ। (गोद में लेकर) इसने ठीक अपने पिता का रूप पाया है। 

रदनिका—रूप ही नहीं, मुझे तो लगता है, उन्हीं का स्वभाव भी पाया है। आर्य चारुदत्त इसी से अपना मनोविनोद करते हैं।

वसंतसेना—लेकिन यह रो क्यों रहा है? 

रदनिका—पड़ोसी सेठ के बेटे की सोने की गाड़ी से खेल रहा था। वह अपनी गाड़ी लेकर चला गया। यह फिर वही गाड़ी माँगने लगा, तो मैंने मिट्टी की गाड़ी बनाकर दे दी। यह कहता है, मुझे मिट्टी की गाड़ी नहीं चाहिए। वैसी ही सोने की गाड़ी लाकर दो। 

वसंतसेना--हाय, यह भी दूसरे की संपत्ति से संतप्त है। हे ईश्वर, कमल के पत्ते पर गिरी जल की बूँदों की तरह मनुष्य के भाग्य से क्यों खेलतो हो! (भावुक होकर) बेटे, मत रो, तुम भी सोने की गाड़ी से खेलोगे।

बालक—रदनिके, ये कौन हैं? 

वसंतसेना—तुम्हारे पिता के गुणों से वशीभूत एक दासी।

रदनिका—बेटे, आर्या तुम्हारी माँ लगती हैं। [पितृभोग्यत्वेन मातृस्थानीया—पिता की भोग्या का स्थान भी माँ का होता है।]

बालक—रदनिके, तुम झूठ बोलती हो। यदि ये मेरी माँ होतीं तो इतने आभूषण क्यों पहनतीं?

वसंतसेना—बेटे ऐसे मोहक मुँह से इतनी कारुणिक बात क्यों बोलते हो? (अपने सारे आभूषण उतारकर रो पड़ती है।) लो, अब तो तुम्हारी माँ बन गई? इन आभूषणों को ले जाओ और इन्हीं से सोने की गाड़ी बनवा लो। 

बालक—नहीं, मैं नहीं लूँगा, तुम रोती क्यों हो?

वसंतसेना—(आँसू पोंछकर) बेटे, अब नहीं रोऊँगी। जाओ, खेलो। (मिट्टी की गाड़ी को अपने आभूषणों से भर देती है।) इनसे सोने की गाड़ी बनवा लेना। 

(बालक को लेकर रदनिका बाहर निकल जाती है।) 

(बैलगाड़ी लाकर खड़ी करने के बाद चारुदत्त के भृत्य वर्धमानक का प्रवेश) 

वर्धमानक—रदनिके, आर्या वसंतसेना को सूचित कर दो, बग़ल के दरवाज़े पर उनके लिए पर्दा लगी गाड़ी खड़ी है।

रदनिका—(भीतर जाकर वसंतसेना से) आर्ये, वर्धमानक गाड़ी लेकर आ गया है।

वसंतसेना—उससे कहो, थोड़ी देर रुके। तब तक मैं तैयार हो जाती हूँ। 
         
रदनिका—(बाहर निकलकर) वर्धमानक, थोड़ी देर रुको। आर्या वसंतसेना तैयार हो रही हैं।

वर्धमानक—मैं भी गाड़ी का बिछौना भूल आया हूँ। जब तक वे तैयार होती हैं, जाकर मैं उसे ले आता हूँ। (गाड़ी लेकर चला जाता है।) 

वसंतसेना—सखी, मेरी प्रसाधन-सामग्री तो ला दो।

षष्ठ अंक—तृतीय दृश्य: घोर त्रासदी का बीजारोपण 
 
दृश्य बदलता है। खलनायक शकार (संस्थानक) का गाड़ीवान स्थावरक रास्ते पर गाड़ी हाँकता दिखाई पड़ता है।

स्थावरक—राजा के साले संस्थानक महोदय ने गाड़ी लेकर शीघ्र पुराने उद्यान पुष्पकरण्डक पहुँचने का आदेश दिया है। बैलों, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। (कुछ दूर जाकर) आज तो गाँवों की गाड़ियों से यह रास्ता ही जाम हो गया है। अब क्या करूँ? (घमंड से) अरे वो गाड़ीवानों, हटो, रास्ता छोड़ो। (गाड़ीवानों की बात सुनकर) क्या कहा, यह किसकी गाड़ी है? राजा के साले संस्थानक महोदय  की है। अरे गँवारो, हटो, रास्ता दो। क्या कहा, पल भर रुको, ज़रा पहिए में सहारा लगा दो।  तुम्हें पता है, मैं कौन हूँ? राजा के साले संस्थानक का बहादुर गाड़ीवान हूँ। भला मैं अपनी गड़ी घुमाकर तुम्हारी गाड़ी के लिए रास्ता दूँगा! लेकिन हाय, यह बेचारा तो अकेला है, पहिए में सहारा लगाने को कह रहा है। मुझे गाड़ी घुमा लेनी चाहिए। तो घुमाकर आर्य चारुदत्त के बगीचे में खड़ी कर देता हूँ। (गाड़ी घुमाकर, चारुदत्त के घर के सामने खड़ीकर, उससे उतरता है और रास्ते से फँसी गाड़ियाँ हटाने में मदद करने चला जाता है।) 

सेविका--(वसंतसेना से) आर्ये, बैलगाड़ी की धुरी की आवाज़ सुनाई पड़ रही है। शायद गाड़ी आ गई।             

वसंतसेना‌--मेरा भी चित्त चंचल हो रहा है। चलो, दरवाज़े का रास्ता दिखाओ। 

[दरवाज़े तक आकर, खड़ी हुई बैलगाड़ी देखकर, सेविका को आराम करने के लिए कहकर, वापस भेज देती है। वसंतसेना ने वर्धमानक को देखा नहीं है। वह अभी बिछावन लेकर लौटा नहीं है। तो (स्थावरक की) जो गाड़ी सामने दिखती है, उसी पर वह पीछे से बैठ जाती है।]  

वसंतसेना—(गाड़ी पर बैठते ही दाहिनी आँख फड़कती है।) यह क्यों फड़क रही है? कोई अनिष्ट? जो भी हो, चारुदत्त के दर्शन से निवारण हो जाएगा।

स्थावरक—(लौटकर, स्वगत) मैंने गाड़ियों को हटा दिया। अब चलूँ। (गाड़ी पर बैठता है और बैलों को हाँककर गाड़ी आगे बढ़ाता है।) क्या बात है, गाड़ी भारी लग रही है! हो सकता है, रास्ते से गाड़ियाँ हटाने के कारण मेरे थक जाने से, यह गाड़ी भी मुझे भारी लग रही हो। तो चलें। (प्रकट) चलो बैलों, आगे बढ़ो। 

इस तरह वसंतसेना, अनजाने ही, पुष्पकरंडक उद्यान में उसका इंतज़ार कर रहे चारुदत्त के पास जाने के बजाय, वह संस्थानक (शकार) के पास चल पड़ती है जहाँ उसके जीवन की सर्वाधिक भयंकर त्रासदी उसकी प्रतीक्षा में है। 
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (7) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/7.html 

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