नायिका वसंतसेना का चरित्रांकन: वसंतसेना-चारुदत्त प्रेम-प्रसंग ~
प्रेम-प्रसंग और उसका कलात्मक निर्वाह (विशाखदत्त के मुद्राराक्षसम् जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर) संस्कृत नाटकों का प्राणतत्व है। किंतु मृच्छकटिकम् का प्रेम-प्रसंग कई दृष्टियों से अनूठा और अनन्य है। इस नाटक में प्रेम की पहल प्रेमिका वसंतसेना की ओर से होती है जब कि अमूमन यह प्रेमी की ओर से होती रही है। नायक चारुदत्त एक अभिजात कुलोत्पन्न ब्राह्मण है और अपने ब्राह्मणीय आचारों एवं मर्यादाओं के प्रति सदा सतर्क रहता है। कर्म से वणिक है किंतु अपने परोपकारी स्वभाव तथा अतिशय दानशीलता के चलते एक सम्पन्न सेठ से दरिद्र ब्राह्मण बन गया है। इसके बावजूद अब भी वह उज्ज्यिनी का एक जाना-माना, सम्मानित नाम है। चारुदत्त से वसंतसेना का प्रेम गणिका का प्रेम नहीं, एक उदात्त संवेदना की उपज, एकनिष्ठ प्रेम है। प्रेम-प्रसंग का सूत्र-संचालन हमेशा वसंतसेना के हाथ में होने से चारुदत्त इस प्रसंग का निर्वाह करनेवाला एक उदासीन नायक भर है। किंतु चारुदत्त के सहज सौजन्य, उसकी सदाशयता, गुणग्राहकता, मर्यादाशीलता, कृतज्ञता और संवेदनशीलता के चलते वसंतसेना हतोत्साहित होने के बजाय प्रोत्साहित ही होती है। कारण, वसंतसेना का प्रेम मात्र शरीरी वासना से उद्भूत नहीं है; वह प्रियदर्शन युवक चारुदत्त के गुणों, उसकी कर्तव्यपरायणता तथा उसके आत्मसम्मान से भी उतनी ही अभिभूत है जितनी उसके आकर्षक व्यक्तित्व से। चारुदत्त के हितों की रक्षा के लिए वह कुछ भी, जीवन तक, उत्सर्ग करने को तत्पर है। वह चारुदत्त ही नहीं, उसके बेटे रोहसेन और पत्नी धूता से भी प्रेम करती है और उन्हें स्नेह/ सम्मान की दृष्टि से देखती है। वस्तुत: पूरे नाटक में वसंतसेना एक ख्यात गणिका के विलासमय परिवेश में रहने के बावजूद गणिका के बजाए एक सुशील, भावप्रवण, अतिशय रूपवती और चारुदत्त-मयी युवती के रूप में दिखाई पड़ती है। एक ऐसा स्त्री-व्यक्तित्व जो किसी भी सहृदय पुरुष के लिए काम्य हो सकता है।
प्रेम का बीजारोपण उज्जयिनी के कामदेवायतन नामक उद्यान में होता है जहाँ वसंतसेना चारुदत्त को पहली बार देखती है। उज्जयिनी में दोनों हस्तियाँ सुपरिचित होने से उद्यान का यह घटित गोपन न रहकर वहाँ के नागर जीवन में आम हो जाता है। एक तरह से यह प्रथम दृष्टि का प्रेम है जिसमें वसंतसेना तत्काल चारुदत्त पर मुग्ध हो जाती है। उसका दारिद्र्य और उसके गुणों का ख़ुलासा धीरे-धीरे बाद में होता है और उसी के साथ वसंतसेना में प्रेम का वह बीज निरंतर पुष्ट होता जाता है।
[उद्यान का यह प्रथम मिलन नाटक के दृश्य-विधान में नहीं है, बाद के उल्लेखों से ही ज्ञात होता है।]
प्रथम अंक में रात्रि के अंधकार में कामुक खलनायक शकार (जो राजा पालक का साला और कृपापात्र है) अपने एक मित्र और सेवक के साथ वसंतसेना का पीछा कर रहा है। शकार के एक कथन से वसंतसेना को ज्ञात होता है कि वह अनजाने ही चारुदत्त के घर के पास पहुँच गई है। शकार से बचने के लिए, अँधेरे का फ़ायदा उठाकर, वह चारुदत्त के घर में घुस जाती है। अंधेरे में चुपचाप खड़ी वसंतसेना को चारुदत्त अपनी सेविका रदनिका समझकर उसे अपने (बालक) पुत्र रोहसेन को भीतर ले जाने और अपना उत्तरीय देकर उससे ढकने को कहता है। वसंतसेना उत्तरीय तो ले लेती है, उसमें बसी चंपक (चमेली) के पुष्पों की सुगंध से उसे चारुदत्त के ‘यौवन की रमणीयता’ का भी बोध हो जाता है, किंतु घर के भीतर जाने से वह हिचकती है। तभी विदूषक रदनिका के साथ प्रवेश करता है। चारुदत्त विदूषक से पूछता है कि यह दूसरी स्त्री कौन है जिसे अनजाने ही अपना उत्तरीय देकर (स्त्री को) दूषित करने पर खेद ज़ाहिर करता है। वसंतसेना मन ही मन कहती है--मैं दूषित नहीं, भूषित हुई हूँ। चारुदत्त भी अँधेरे के बावजूद उसकी सुंदरता के एहसास से भर गया है। वह उसे शरद ऋतु के बादलों से ढकी चाँदनी जैसी लगती है। किंतु तुरंत उसे अपनी मर्यादा का ध्यान आ जाता है और उससे कहे बिना रहा नहीं जाता कि परस्त्री को देखना उचित नहीं। तब विदूषक उसे सूचित करता है कि यह तो वसंतसेना (गणिका) है जो कामदेवायतन उद्यान में प्रथमदर्शन के बाद से ही उस पर अनुरक्त है, इसलिए परस्त्री दर्शन की उसकी शंका निराधार है (निहितार्थ: गणिका ‘परस्त्री’ नहीं होती)। अब चारुदत्त को ग्लानि होती है कि वसंतसेना ने प्रेम प्रकट भी किया तो अवसर खो देने के बाद, जब उसका सारा वैभव नष्ट हो चुका है; चारुदत्त के अनुसार अब तो वसंतसेना का उसके प्रति अनुराग उसी तरह अर्थहीन है जैसे कुछ कर पाने में असमर्थ बलहीन पुरुष का क्रोध, जो उसी की देह को जलाता है।
बाहर खड़े शकार ने विदूषक की मारफ़त संदेश भेजा है कि कामदेवायतन उद्यान में देखने के बाद से ही चारुदत्त के पीछे पड़ी वसंतसेना को उसके हवाले कर दिया जाए, अन्यथा वह चारुदत्त का आजीवन शत्रु बन जाएगा। चारुदत्त अवज्ञापूर्वक शकार को मूर्ख बताकर टाल देता है। वह सोचता है--‘घर के भीतर जाओ’ ऐसा कटु आदेश देने पर भी जिस युवती ने मेरी दयनीय स्थिति देखकर घर के भीतर पैर नहीं रखा, मेरे सामने मुँह तक नहीं खोला, वह तो उपास्य देवी की तरह है। अपने सौजन्य में चारुदत्त वसंतसेना से सेविका की तरह व्यवहार करने के लिए क्षमा माँगता है। तब जाकर वसंतसेना के बोल फूटते हैं—अपराध तो मेरा है आर्य, बिना आज्ञा, चुपके से आपके घर में घुस आई। चारुदत्त की प्रवीण और मधुर बातें अधिकाधिक सुनने की प्रबल इच्छा होने और सुरक्षा का वाजिब कारण होने के बावजूद, बिन बुलाये आ जाने से वसंतसेना रात बिताने के लिए चारुदत्त के घर रुकने को शिष्टाचार के विरुद्ध मानती है। किंतु (मिलने का सिलसिला बनाए रखने के लिए) अपने आभूषण उसके पास रख जाना चाहती है (देखें आगे—द्वितीय अंक)। इस बहाने कि इन्हीं आभूषणों के कारण पापी लोग उसके पीछे पड़े हैं (जो सच नहीं है, शकार की कुदृष्टि वसंतसेना पर है, उसके आभूषणों पर नहीं)। चारुदत्त उसे सावधान भी करता है, कि उसका घर धरोहर रखने लायक नहीं। इस पर वसंतसेना का जवाब उसकी बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्पन्नमति और चारुदत्त के प्रति उसके भावों का परिचायक है—आर्य, यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि धरोहर तो किसी योग्य पुरुष के पास रखी जाती है, न कि योग्य घर में। इस पर चारुदत्त निरुत्तर हो जाता है। अब वसंतसेना चारुदत्त के मित्र (विदूषक) मैत्रेय के साथ अपने घर लौटने की इच्छा व्यक्त करती है और चारुदत्त विदूषक को उसके साथ जाने को कहता है। वसंतसेना के साथ जाने पर अपने पिट-पिटा जाने का भय बताकर विदूषक चारुदत्त से कहता है--इस हंसगामिनी के साथ चलते हुए राजहंस की तरह आप ही सुशोभित होंगे। चारुदत्त साथ जाना स्वीकार कर लेता है। वसंतसेना के घर सुरक्षित पहुँच जाने पर चारुदत्त अनुरागमयी वाणी में उससे कहता है—आपका घर आ गया, अब आप भीतर जाएँ। और वसंतसेना अनुरागमयी निगाहों से ही उसे देखती हुई (मंच से) निकल जाती है। प्रेम-प्रसंग की दूसरी कड़ी का समापन।
द्वितीय अंक में वसंतसेना-चारुदत्त प्रेम-प्रसंग के तीन दृश्य हैं।
पहले दृश्य में प्रेमी से मिलने को उत्कंठित नायिका की तरह वसंतसेना अपनी सखीवत् सहायिका मदनिका के साथ मंच पर चुपचाप बैठी दिखाई पड़ती है। उसकी एक सेविका उसकी माँ का आदेश लेकर आती है कि वह पहले स्नान करके देवताओं की पूजा कर ले। वसंतसेना—प्रिय सेविके, माँ से जाकर कह दो कि मैं आज स्नान करूँगी ही नहीं; किसी देवपूजक ब्राह्मण से पूजा करा लें। सेविका के लौट जाने पर मदनिका उससे संकोच के साथ पूछती है—आर्ये, मैं कोई दोषारोपण नहीं कर रही, बस प्रेमवश पूछ रही हूँ, आप इतनी उद्विग्न क्यों हैं।
वसंतसेना—तुम्हें क्या लगता है?
मदनिका—आपको इस तरह उदास देखकर तो यही लगता है कि आप किसी के प्रेम में पड़ गई हैं।
वसंतसेना—ठीक लगता है; तुम तो किसी के हृदय की थाह लेने में निपुण हो गई हो; तुमने अपना नाम मदनिका (हृदय लेने में समर्थ--कामदेव) सार्थक कर दिया।
मदनिका—वह युवक है कौन, कोई राजा या राजा का स्नेहपात्र (राजपुरुष)?
वसंतसेना—दोनों में से कोई नहीं, मैं रमण करना चाहती हूँ, सेवा नहीं।
मदनिका—तो कोई विद्याविभूषित ब्राह्मण युवक?
वसंतसेना—नहीं, ब्राह्मण तो मेरे लिए पूज्य हैं।
मदनिका—तो कोई वैभवशाली वणिक युवा?
वसंतसेना—नहीं, वणिक लोग तो अपनी प्रेमिका को विरह की आग में जलती छोड़कर व्यापार के सिलसिले में देशांतर की यात्रा पर ही रहते हैं।
मदनिका—न ये, न वो, तो आख़िर है कौन वह?
वसंतसेना—तुम मेरे साथ कामदेवायतन उद्यान तो गई थी न?
मदनिका—हाँ, गई थी।
वसंतसेना—तब अनजान बनकर क्यों पूछ रही हो?
मदनिका—अब समझ गई, वही युवक जिसने आपको शरण दी थी।
वसंतसेना—उसका नाम क्या है?
मदनिका—वे तो सेठों के निवास-खंड में रहते हैं।
वसंतसेना—मैं नाम पूछ रही हूँ।
मदनिका—आर्य चारुदत्त?
वसंतसेना ख़ुश हो जाती है—हाँ, ठीक समझा।
मदनिका—लेकिन आर्ये, मैंने सुना है, वे तो परम दरिद्र हैं।
वसंतसेना—इसीलिए तो उन्हें चाहती हूँ; दरिद्र पुरुष से प्रेम करनेवाली गणिका लोकनिंदित नहीं होती।
मदनिका—लेकिन भला बौर-रहित आम पर कभी मधुकरी (मधुमक्खी) बैठती है?
वसंतसेना—इसीलिए उसे मधुकरी (मधु उत्पन्न करनेवाली) कहते हैं।
मदनिका—आर्ये, यदि उन्हें इतना चाहती हैं तो अभिसार में (दूती द्वारा सूचित संकेत-स्थान पर) उनसे मिल क्यों नहीं लेतीं?
वसंतसेना—यदि कुछ देने में उन्होंने अपने को असमर्थ पाया तो पुन: उनके दर्शन ही दुर्लभ हो जाएँगे।
मदनिका—अब समझ में आया, इसीलिए आपने अपने आभूषण उनके यहाँ रख छोड़े हैं।
वसंतसेना—ठीक समझा तुमने।
तभी नेपथ्य से कुछ आवाज़ें आती हैं। इस व्यवधान से दोनों का अंतरंग वार्तालाप रुक जाता है।
(क्रमश:)
मृच्छकटिकम् (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/2.html
कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant tripathi)
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