मृच्छकटिकम् संस्कृत का एक परंपराभंजक और क्रांतिधर्मी नाटक है। किसी पौराणिक या ऐतिहासिक घटित और उसके ज्ञात चरित्रों के बजाय इसकी कथावस्तु और सारे पात्र काल्पनिक हैं। ऐसे नाटकों को संस्कृत में प्रकरण की संज्ञा दी गई है (भरत का नाट्यशास्त्र)। किंतु काल्पनिक होते हुए भी एक सुखद विडम्बना के तौर पर यह नाटक अपने समय के सामाजिक यथार्थ का ऐसा बेबाक और अंतर्दर्शी आख्यान रचता है कि संस्कृत काव्य-धारा में अप्रतिम कृति बन जाता है। इस दृष्टि से यह आधुनिक भावबोध से अनुस्यूत एक कालजयी कृति है।
सामाजिक यथार्थ-बोध के अतिरिक्त मृच्छकटिकम् एक उज्वल प्रेमकथा भी है जिसमें प्रेमी और प्रेमिका अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने की उदात्त भावना से आप्यायित हैं। किंतु इसका केंद्रीय प्रतिपाद्य राजनीतिक विद्रोह है -- अत्याचारी शासन के विरुद्ध गोपालक समाज के एक सामान्य युवक के नेतृत्व में सत्ता-परिवर्तन, जो अपने कथ्य और प्रतिबद्धता में इसे संस्कृत नाट्य-परंपरा की एक अनन्य कृति का दर्जा देता है। दरअसल सामाजिक जीवन और प्रेमीयुगल दोनों अन्यायी शासन से प्रताड़ित हैं और उसी के प्रतिकार में राजनीतिक क्रांति को सहयोग देते हुए अंतत: उसे सम्भव बनाते हैं। इस तरह यह नाटक अपने विद्रोही स्वर के बावजूद संस्कृत के सुखांत नाटकों की परम्परा में ढल जाता है।
इस नाटक की एक और विशेषता उल्लेखनीय है। कथाभूमि उज्जयिनी की होने के बावजूद (संस्कृत से इतर) प्राकृत बोलनेवाले इसके भिन्न-भिन्न पात्र अपने जन्म-प्रदेश तथा सामाजिक स्तर के अनुरूप उसके भिन्न-भिन्न रूपों में बोलते हैं। इस तरह प्राकृत के शौरसेनी, अवंतिका, प्राच्या, मागधी, शकारी, चाण्डाली और ढक्की रूपों का प्रयोग हुआ है जिनमें से अंतिम तीन को ‘विभाषा’ की श्रेणी में रखा जाता है। उज्जयिनी एक महानगरी थी जहाँ जीविका की तलाश में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आए लोग निवास करते थे। उनकी भाषा उनके क्षेत्र को प्रतिबिंबित करती है। यथार्थता के प्रति अतिशय आग्रह और उसका निर्वाह करने की अप्रतिम क्षमता।
किंतु न तो मृच्छकटिकम् के प्रणेता की पहचान सुनिश्चित है, न इसका रचनाकाल। इतना ज़रूर है कि इसकी कथा का लगभग अर्द्धांश पूर्ववर्ती नाटककार भास के नाटक ‘दरिद्र चारुदत्त:’ से लिया गया है। भास के दो प्रसिद्ध नाटकों--स्वप्नवासवदत्तम् तथा प्रतिज्ञायौगंधरामायणम्--के नायक राजा उदयन का प्रासंगिक उल्लेख भी है (कुछ विद्वानों के अनुसार उदयन बुद्ध के समकालीन एक ऐतिहासिक राजा थे)। किंतु शेष नाटक की कथा इसके प्रणेता की अपनी उद्भावना है जिसमें राजनीतिक परिवर्तन वाला कार्य-व्यापार सन्निविष्ट है।
लेकिन सवाल है कौन प्रणेता ?
एक विलक्षण विचित्रता के तौर पर नाटक के प्रारम्भ में पारम्परिक नांदी पाठ के बाद सूत्रधार महोदय नाटक की पारंपरिक प्रस्तावना के संदर्भ में पहले तीन श्लोकों (3,4,5) द्वारा नाटक के प्रणेता का प्रशस्तिमय परिचय दे डालते हैं। सूत्रधार के अनुसार गजराज की तरह मस्त चालवाले, चकोर की तरह सुंदर आँखोंवाले, चंद्रमा की तरह सुंदर मुखवाले, सुगठित शरीरवाले, अतिशय बलवान् और क्षत्रियों में श्रेष्ठ शूद्रक नामक एक विख्यात कवि हुए। वे ऋग्वेद, सामवेद, गणित, (चौंसठ) कलाओं, वाणिज्य-विद्या और हस्ति-विद्या में पारंगत थे। भगवान् शंकर की कृपा से उन्हें दिव्यदृष्टि प्राप्त थी। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी संपादित किया। और अंत में पुत्र को राज्य सौंपकर, सौ साल दस दिन की आयु पूरी करने के बाद, अग्नि में प्रवेश किया। ऐसे युद्धकुशल, सदा सतर्क वेदज्ञों में प्रधान, तपस्वी, शत्रु के हाथियों से मल्लयुद्ध के लिए सदा इच्छुक, शूद्रक नामक राजा हुए...आगे दो श्लोकों (6,7) में मृच्छकटिकम् नाटक के संक्षिप्त परिचय के साथ उन्हीं शूद्रक को इसका प्रणेता बताया गया है।
इतना वाचाल सूत्रधार आपने किसी अन्य संस्कृत नाटक में देखा है? प्रक्षिप्तीकरण में महारत हासिल करनेवालों का देश है यह। किंतु यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार के अतिशय प्रेम में प्रक्षेपक महोदय भूल ही गए कि कोई पूरी आयु बिताकर अग्नि में प्रवेश करने के बाद, लौटकर नाटक लिखने कैसे आएगा ! सो इतना तो निश्चित हो गया कि मृच्छकटिकम् के प्रणेता शूद्रक नाम के कोई राजा नहीं थे। तो इसका प्रणेता कौन था, कहाँ और कब पैदा हुआ था और उसने कहाँ और कब इस नाटक का प्रणयन किया ???
वैसे तो उपरोक्त असंभाव्य और इसलिए असत्य कथन तीनों श्लोकों के कथ्य को आधारहीन बना देता है किंतु यदि प्रणेता का नाम शूद्रक मान भी लिया जाय तो कौन शूद्रक? शूद्रक नाम के कई व्यक्तियों का संदर्भ इतिहास में मिलता है। तो (नाम सहित) कोई भी विवरण विश्वसनीय नहीं।
तो छोड़िए। हमें आम खाने से मतलब या गुठलियाँ गिनने से? और प्राचीन भारतीय परंपरा में साहित्यकार और कलाकार भी उसी से मतलब रखते थे। कोई कवि (संस्कृत में नाटककार भी कवि है) या वास्तुकार या मूर्तिकार या चित्रकार अपने नश्वर जीवन के बारे में साँस तक नहीं लेता। इस नाटक के प्रणेता ने भी, और चाहे जो क्रांति की हो, इस परंपरा का निष्ठा से पालन किया है। यह तो कोई धूर्त पंडित रहा होगा जिसने बाद में इतना बड़ा भ्रम उत्पन्न करने का भगीरथ प्रयत्न किया। गनीमत यह हुई कि वह धूर्त के साथचित्रकार-साथ मूर्ख भी निकला।
तो हम अपने विषय पर आते हैं।
शर्विलक। मृच्छकटिकम् का एक प्रमुख पात्र। पेशे से चोर। चौर्यकला में अतिनिपुण। जन्म के संयोग से ब्राह्मण। ब्राह्मण है तो चौर्यशास्त्र का भी ज्ञाता है। चौराचार्य कनकशक्ति की परम्परा में दीक्षित एक ब्राह्मण चोर।
फ़िलहाल शर्विलक नाटक की नायिका -- उज्जयिनी की सबसे सुंदर और सबसे सम्पन्न गणिका वसंतसेना -- की क्रीतदासी मदनिका के प्रेम में आसक्त है। मदनिका भी उससे एकनिष्ठ प्रेम करती है — वैसे ही जैसे वसंतसेना नाटक के नायक चारुदत्त से एकनिष्ठ प्रेम करती है। मदनिका को ऋणमुक्त कराने के लिए शर्विलक को धन की आवश्यकता है। इसके लिए वह अपने उपकरणों से सुसज्जित होकर रात में चोरी करने निकला है। संयोग से वह चारुदत्त के घर के पास पहुँच जाता है। चारुदत्त भी जन्म के संयोग से ब्राह्मण किंतु कर्म से व्यापारी है। कभी बहुत सम्पन्न था किंतु दीनों, दलितों, असहायों की सहायता करते-करते स्वयं दरिद्र हो गया। इस समय उसके घर में चोरी करने लायक उसका कुछ भी नहीं, किंतु वसंतसेना की धरोहर आभूषणों की एक मंजूषा है जिसे खलनायक शकार द्वारा पीछा किए जाते समय वह चारुदत्त को सौंप गई थी। चारुदत्त बैठके में सो रहा है। उसका मित्र मैत्रेय (विदूषक) उसके आग्रह पर मंजूषा को लेकर उसी के पास सो रहा है।
तृतीय अंक। द्वितीय दृश्य। मंच पर शर्विलक का प्रवेश।
शर्विलक--
कृत्वा शरीरपरिणाहसुखप्रवेशं शिक्षाबलेन च बलेन कर्ममार्गम्।
गच्छामि भूमिपरिसर्पणधृष्टपार्श्वो निर्मुच्यमान इव जीर्णतनुर्भुजंग:॥3:9॥
[चौर्यशास्त्र में अपनी शिक्षा के बल तथा शारीरिक बल के सहारे अपनी देह के आकार के अनुपात में सेंध लगाकर, पृथ्वी पर लगातार सरकने के कारण देह के छिलने से केंचुल छोड़े हुए वृद्ध साँप की तरह सेंध में घुसता हूँ।]
(आकाश की ओर देखकर प्रसन्नता से)
तो क्या चंद्र भगवान् अस्त होने जा रहे हैं ?
नृपतिपुरुषशंङ्कितप्रचारं परगृहदूषणनिश्चितैकवीरम्।
घनतिमिरनिरुद्धसर्वभावा रजनिरियंरजनिरियं जननीव संवृणोति॥10॥
[राजकीय पहरेदारों की तरह शंकित दृष्टि से देखनेवाला, दूसरों के घर में सेंध लगाने में प्रवीण मुझको, सघन अंधकार से सभी पदार्थों को अदृश्य करनेवाली यह रात माँ की तरह अंधकार रूपी स्नेहांचल से ढक रही है।]
वृक्षवाटिका वाले परिसर की प्राचीर में छेद करके वह भीतर आ जाता है और अब बैठके में सेंध लगाने को तत्पर है।
कामं नीचमिदं वदन्तु पुरुषा: स्वप्ने च यद्वर्द्धते
विश्वस्तेषु च वञ्चनापरिभवश्चौर्यं न शौर्यं हि तत्।
स्वाधीना वचनीयतापि हि वरं बद्धो न सेवाञ्जलि:
मार्गो ह्येष नरेन्द्रसौप्तिकवधे पूर्वं कृतो द्रौणिना॥11॥
[लोगों के सो जाने पर किए जानेवाले चोरी के कार्य को लोग नीच कहते हैं। ठीक भी है, विश्वस्त लोगों को वंचित और तिरस्कृत करना चोरी ही है, वीरता नहीं। किंतु किसी के सामने दास की तरह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने की अपेक्षा चोरी का धंधा स्वाधीन होने से वरेण्य है। और यह धंधा है बहुत पुराना। द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा ने चोरी से ही युधिष्ठिर के पुत्रों को मारा था।]
तो सेंध लगाई किस जगह जाए ?
देश: को नु जलावसेकशिथिलो यस्मिन्न शब्दो भवेत्
भित्तीनाञ्च न दर्शनान्तर्गत: संधि: करालो भवेत्।
क्षारक्षीणतया च लोष्टककृशं जार्णं क्व हर्म्यं भवेत्
कस्मिन् स्त्रीजनदर्शञ्च न भवेत् स्यादर्थंसिद्धिश्च मे॥12॥
[लगातार पानी पड़ने से दीवार का कौन सा हिस्सा नरम हो गया है जहाँ सेंध लगाते समय आवाज़ न हो। सेंध काम भर की बड़ी तो हो किंतु इतनी बड़ी भी नहीं कि आसपास से गुज़रनेवालों की निगाह में आ जाए। फिर यह भी देखना होगा कि कौन सी जगह है जहाँ लोना लगने से दीवार कमज़ोर हो गई है। यह भी कि किस जगह सेंध लगाई जाए कि घर की स्त्रियों से सामना हुए बिना लक्ष्य पूरा हो जाए।]
वह दीवार टटोलकर देखता है और ऐसी जगह पा जाता है जहाँ सूर्योपासना के क्रम में प्रतिदिन पानी गिराने से मिट्टी गीली हो गई है, साथ ही चूहों द्वारा निकाली गई मिट्टी का ढेर भी लगा है। वह सोचता है, आसानी से सेंध लगाने की उपयुक्त जगह मिल जाना चौराचार्य स्कंदपुत्र के अनुसार चोरी की सफलता का पहला लक्षण है।
फिर वह विचार करता है कि सेंध किस आकार की लगाई जाए। इस सम्बंध में चौर्यविद्याविशारद कनकशक्ति का मत है कि पक्की ईंटों की दीवार से ईंटें खींचकर, कच्ची ईंटों की दीवार से ईंटों को काटकर और मिट्टी की दीवार को पानी से फुलाकर, तथा काठ की दीवार को चीरकर सेंध लगानी चाहिए। चारुदत्त के बैठके की दीवार पक्की ईंटों की है, तो ईंटों को खींचकर ही सेंध लगाना होगा।
अब वह सेंध के आकार पर विचार करता है।
पद्मव्याकोशं भास्करं बालचन्द्रं वापीविस्तीर्णं स्वस्तिकं पूर्णकुम्भम्।
तत् कस्मिन् देशे दर्शयाम्यात्मशिल्पं दृष्ट्वा श्वो यं यद्विस्मयं यान्ति पौरा:॥13॥
[प्रस्फुटित कमलपुष्प के आकार की सेंध काटूं, या सूर्य की तरह गोलाकार, या खंडित चंद्रमा की तरह टेढ़ी, या बावड़ी की तरह चौकोर, या स्वस्तिक की तरह तिकोनी, या पूर्णकुंभ की तरह नीचे फैली हुई और ऊपर सँकरी, ताकि सुबह उसे देखकर नागरिक अचंभित रह जाएँ ?]
शर्विलक पक्की ईंटें खींचकर, पूर्णकुंभ के आकार की सेंध काटने का निश्चय करता है और कहता है--
अन्यासु भित्तिषु मया निशि पाटितासु क्षारक्षतासु विषमासु च कल्पनासु।
दृष्ट्वा प्रभातसमये प्रतिवेशिवर्गो दोषांश्च मे वदति कर्मणि कौशलञ्च॥14॥
[रात की इस निस्तब्धता में लोना लगी इस दीवार में काटी गई इस भयंकर सेंध को जब लोग कल प्रात:काल देखेंगे, भले मेरे चौर्य कर्म की निंदा करें किंतु सेंध लगाने की मेरी कला की प्रशंसा अवश्य करेंगे।]
फिर वह मनोवांक्षित फलदाता कुमार कार्तिकेय, देवपरायण चौराचार्य कनकशक्ति और भास्करनंदी को प्रणाम करता है। किन्हीं योगाचार्य को भी प्रणाम करता है जिनका वह पहला शिष्य है और जिन्होंने उस पर प्रसन्न होकर उसे योगरोचना प्रदान कर दी है। देह में योगरोचना का लेप करता है। उसकी तासीर ऐसी है कि अब उसे न तो कोई पहरेदार देख सकता है, न शस्त्राघात से उसे कोई घाव लग सकता है।
तब उसे याद आता है कि जगह नापने की रस्सी तो वह साथ में लाया ही नहीं। तभी उसका ध्यान अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) की ओर चला जाता है। ‘अरे यह यज्ञोपवीत तो ब्राह्मण के लिए बहुत काम की वस्तु है। ख़ासकर मुझ जैसे (चोर) ब्राह्मण के लिए।‘
एतेन मापयति भित्तिषु कर्ममार्गमेतेन मोचयति भूषणसम्प्रयोगान्।
उद्घाटको भवति यन्त्रदृढे कपाटे दष्टस्य कीटभुजगै: परिवेष्टनञ्च्॥16।।
[सेंध लगाने के लिए यज्ञोपवीत से दीवार नापी जा सकती है। इसकी मदद से शरीर में पहने हुए आभूषणों का कोंढ़ा (हुक) खोला जा सकता है। इससे किवाड़ों में कसकर लगाई गई सिटकिनी आसानी से खुल जाती है। यही नहीं, ज़हरीले कीड़े या साँप के काटने पर सम्बंधित अंग को इससे कसकर बाँधा जा सकता है।]
आख़िर सेंध कट जाती है। उसके रास्ते भीतर से निकलती दीपक की पीली लौ अंधकार में डूबी काली धरती पर ऐसे शोभायमान हो रही है जैसे काली कसौटी पर खींची गई स्वर्णरेखा। पहले वह सेंध में कठपुतली घुसाता है। कोई हलचल न होने वह चोरगुरु कार्तिकेय को प्रणाम कर स्वयं घुसता है। दो लोग सोये हुए दिखते हैं। पहले वह अपनी सुरक्षा का अग्रिम इंतज़ाम करने के लिए दरवाज़ा खोलने जाता है। पुराना घर होने से पल्ले चरमराते हैं। पानी खोजकर उन पर छीटें डालता है। फिर भी आवाज़ होने की आशंका से पीठ के सहारे धीरे-धीरे खोलता है। फिर दोनों सोनेवालों की निद्रा की जाँच करता है। उन्हें डराकर देखता है। उनकी साँसे स्वाभाविक गति से और समान अंतर पर चल रही हैं। आँखें ठीक से बंद हैं। शरीर के अंग शिथिल हैं। हाथ-पैर बिस्तर से बाहर लटक रहे हैं। निश्चय हो जाता है कि दीपक की रोशनी से अप्रभावित दोनों गाढ़ी नींद सो रहे हैं तो चारों ओर देखता है। चारुदत्त संगीत-प्रेमी और पुस्तक-प्रेमी है तो वहाँ मृदंग, पखावज, छोटे ढोल, वीणा, बाँसुरियाँ और पुस्तकें ही नज़र आती हैं। शर्विलक सोचता है, कहीं वह किसी संगीत-शिक्षक के घर में तो नहीं घुस आया, या गृहस्वामी वाक़ई दरिद्र है, या राजा और चोर के डर से वहाँउसने धन को धरती में गाड़ रखा है। धरती में गड़ा धन पता करने की विद्या (मेटल डिटेक्टर की जननी) उसे मालूम है। वह मंत्रप्रेरित सरसों फेंकता है किंतु सरसों किसी जगह बढ़ती नहीं। गृहस्वामी को सचमुच दरिद्र समझकर वह जाने को होता है।
कि तभी विदूषक स्वप्न में बड़बड़ाने लगता है। (चारुदत्त को संबोधित)—हे मित्र मुझे सेंध दिखाई पड़ रही है। मैं चोर को भी देख रहा हूँ। लो, यह आभाषणों की मंजूषा अपने पास रख लो।
शर्विलक को लगता है, उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है। एक बार विदूषक को मार डालने का विचार आता है। फिर वह समझ जाता है कि यह आदमी कमज़ोर दिमाग़ का होने से स्वप्न में बड़बड़ा रहा है। तभी वह देखता है कि एक फटी-पुरानी नहाने की धोती में लपेटकर बाँधी गई आभूषण-मंजूषा दीपक के प्रकाश में चमचमा रही है। धोती से वह जान जाता है कि बड़बड़ानेवाला ब्राह्मण है। एक बार सोचता है, पोटली को पकड़ ले, फिर सोचता है कि यह तो मेरी ही तरह सत्कुल में उत्पन्न (ब्राह्मण) है, इसको सताना उचित नहीं। फिर से निकल जाने को तत्पर होता है।
विदूषक फिर बड़बडाता है — हे मित्र (चारुदत्त), तुम्हें गो-ब्राह्मण की शपथ है, यदि तुम इस मंजूषा को न लो।
शर्विलक—अब इस गो-ब्राह्मण की शपथ की उपेक्षा तो की नहीं जा सकती। तो ले ही लेता हूँ। किंतु दीपक जल रहा है...इसे बुझाने के लिए मेरे पास पतिंगे तो हैं ही।
एक पतिंगा छोड़ देता है। वह विचित्र ढंग से दीपशिखा पर घूमता हुआ अपने पंख से उसे बुझा देता है। घुप अँधेरा।
शर्विलक सोचता है, मैं भी तो उस पतिंगे की तरह इस ब्राह्मण के कुल को अंधकारमय करने पर तुला हूँ। जब कि स्वयं एक अपरिग्रही, वेदज्ञ ब्राह्मण का पुत्र हूँ। किंतु क्या करूं ! वह जो मदनिका नाम की गणिका है, उसी के चलते मुझे ऐसा अधम कार्य करना पड़ रहा हूँ।
शर्विलक, विदूषक से आभूषण लेने आगे बढ़ता है। विदूषक को उसकी उंगलियों का स्पर्श होता है।
विदूषक—मित्र (चारुदत्त), तुम्हारी उंगलियाँ तो बहुत ठंडी हैं।
शर्विलक—हाय, यह तो मेरी असावधानी से हुआ। पानी के स्पर्श से मेरी उंगलियाँ ठंडी जो हो गई हैं।
उंगलियों को काँख में दबाकर गर्म करता है। और फिर आभूषण-मंजूषा की पोटली ले लेता है।
विदूषक ने पूछा—ले लिया ?
शर्विलक—क्या करता, ब्राह्मण की शपथ टाली नहीं जा सकती।
विदूषक—अब मैं सुख की नींद सो सकता हूँ। जैसे अपना सारा सामान बेचकर व्यापारी निश्चिंत सो जाता है।
शर्विलक—ब्राह्मण देवता, अब सौ साल तक सोते रहो। मुझे कष्ट यही है कि एक सामान्य गणिका के लिए मैंने एक ब्राह्मण को हमेशा के लिए अंधकार में डाल दिया। या अपनी आत्मा को ही पतित कर दिया....धिक्कार है इस दरिद्रता को। जिस कार्य की मैं स्वयं निंदा करता हूँ, इस दरिद्रता के कारण अवश होकर करना पड़ा।
तभी किसी के पैरों की आहट सुनाई पड़ती है।
शर्विलक—कहीं कोई चौकीदार तो नहीं...किंतु मुझे चौकीदारों का क्या डर !
मार्जार: क्रमणे, मृग: प्रसरणे श्येनो ग्रहालुञ्चने
सुप्तासुप्त्मनुष्यवीर्यतुलने श्वा, सर्पणे पन्नग:।
माया रूपशरीरवेशरचने, वाग़् देशभाषांतरे,
दीपो रात्रिषु, संकटेषु डुडुभो, वाजी स्थले, नौर्जले॥
[मैं तो कूदकर भागने में बिलाव, तेज़ दौड़ने में हिरण, झपट्टा मारकर छीनने में बाज, सोते-जगते आदमी की शक्ति मापने में कुत्ता, सरककर चलने में साँप, रूप और वेश-परिवर्तन में माया, विभिन्न प्रांतों की भाषा बदलने में वाग्देवी सरस्वती, रात के लिए दीपक, संकट के समय सियार, धरती पर घोड़ा और पानी में नाव की तरह हूँ।]
तब तक चारुदत्त की दासी रदनिका आ जाती है। पहले तो शर्विलक बिना देखे उसे मार डालना चाहता है। किंतु देखने के बाद—अरे, यह तो स्त्री है--कहकर आभूषणों के पोटली लिए हुए निकल जाता है। उसका गंतव्य है वसंतसेना का भवन जहाँ उसकी प्रेमिका मदनिका मिलेगी।
(क्रमशः)
कमलकांत त्रिपाठी
© Kamala kant tripathi
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