Friday, 5 August 2022

शंभूनाथ शुक्ल / कोस कोस का पानी (53) बिजली की झालरों के बीच से गुजरना!

यह 1971 के 15 अगस्त का वाक़या है। मुझे लाल क़िला से तिरंगा लहराने को देखने की लालसा थी। मैं 14 अगस्त की रात इलेवन अप पकड़ कर सुबह साढ़े पाँच दिल्ली आ गया। तब उम्र रही होगी 16-17 की। घर पर बताया भी नहीं। बताते तो घर वाले आने न देते। कानपुर स्टेशन आया और दिल्ली की टिकट ली कुल 13 रुपए 80 पैसे की। पुरानी दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर ही शौचादि क्रिया संपन्न की और बाहर निकल कर एक खोखे में चाय पी तथा डबल रोटी में मक्खन लगवा कर खाया। यह सब आठ आने में हो गया था। लाल क़िले की प्राचीर को ट्रेन से ही देख लिया था इसलिए यह तो समझ गया था कि गंतव्य आस-पास ही है। लेकिन परदेस में किसी से पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी और ट्रेन जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में चल दिया। कौड़िया पुल चौराहे से लाल क़िला दिख गया और मैं उसी तरफ़ चल दिया। चलते-चलते मैं गेट के पास तक पहुँच गया, इसके आगे पुलिस वाले डंडा लिए खड़े थे। मुझे एक सीट ख़ाली दिखी, मैं रेलिंग फाँद कर उसमें जा बैठ गया। शायद वे सीटें वीआईपी के परिजनों के लिए थीं पर तब कौन पूछता था। एक-एक कर लोग आने लगे। खुली जीप में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आईं। लोग खड़े हो गए और उनके जैकारे लगाने लगे। पलक झपकते ही वे लालक़िले की प्राचीर पर पहुँच गईं और तिरंगा फहराया। इसके बाद राष्ट्रगान हुआ और फिर उनका भाषण। आठ-साढ़े आठ तक खेला ख़त्म। सब लोग चल दिए, कुछ गाड़ियों में बैठ कर कुछ पैदल। 

मैं भी एक दिशा में चल दिया। सामने ज़ामा मस्जिद थी। मैंने पढ़ रखा था कि शाहजहाँ की बनवाई इस मस्जिद में एक लाख लोग एक साथ नमाज़ पढ़ सकते हैं। तब हिंदू-मुस्लिम का कोई भेद न दिमाग़ में था न रियल लाइफ़ में। मैं मस्जिद में गया, देखी और फिर भीड़ के साथ पता नहीं किन संकरी गलियों में गुम हो गया। बाहर निकला तो सामने राम लीला मैदान था। आगे बढ़ता गया और फिर एक स्टेशन दिखा। पता चला यह नई दिल्ली स्टेशन है। पूछा कि क्या कानपुर कोई ट्रेन जा रही है? तूफ़ान खड़ी थी। मैं चढ़ गया, मुझे मालूम था कि 15 अगस्त को ट्रेन में टिकट नहीं लेनी पड़ती। ट्रेन ठीक साढ़े दस बजे चली। गोविंदपुरी, फ़रीदाबाद, मथुरा होते हुए आगरा आया। जब आगरा से बढ़ी तो बरसात होने लगी। यमुना पार करते हुए ताज महल दिखने लगा और एत्माद पुर तक दिखता रहा। बारिश की फुहारों में ताज को देखना इतना अच्छा लग रहा था कि कूद कर ताज को चूमने का मन करने लगा। फिर टूँडला आया और फिर कई स्टेशन बाद इटावा। तब तक शाम हो आई। अब शीघ्र घर पहुँचने को मन अकुलाने लगा। एक-एक कर स्टेशन गुजरने लगे और जब गाड़ी कानपुर की सीमा पर पहुँची तो वह वाक़ई तूफ़ान बन गई। पनकी पावर हाउस, आईईएल, दादा नगर इंडस्ट्रीयल एरिया की लाइटें ऐसी दिख रही थीं मानों बिजली की झालरों के बीच से ट्रेन आँधी की तरह भाग रही है। दादा नगर का रेलवे पुल (तब इसे विजय नगर पुल बोलते थे) पार करने के बाद ट्रेन की गति कुछ कम हुई। दादा नगर कॉलोनी के बाद गंदा नाला और फिर गोविंद पुरी स्टेशन। मुझे लगा यहीं पर कूद जाऊँ। गोविंद नगर स्थित मेरा घर वहाँ से आधा मील था। यह सोचते-सोचते मैंने ट्रेन से छलांग लगा थी। बग़ल की दूसरी पटरी की रोड़ी मेरे सिर पर लगीं। उठा तो देखा ख़ूनम-खून। लेकिन फुर्ती से घर को चल दिया। अम्माँ की याद आ रही थी। बीच में एक जगह नल दिखा पर शुक्र है कि उस समय सप्लाई नहीं थी। अन्यथा मैं वहीं सिर धार के नीचे रख कर धोता। नाला फाँदा और भागते हुए घर पहुँचा। जीने के नीचे महिंदर चाचा ने देख लिया। वहीं से चिल्लाए- “पंडत जी शिम्बू आ गया” अम्माँ-पिताजी रोते हुए दौड़ कर फुर्ती से आए और फिर मेरा शरीर उनके हाथों में झूल गया। 

शंभूनाथ शुक्ल
© Shambhunath Shukla

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