Wednesday, 24 August 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (9)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र—IV
षष्ठ अंक--तृतीय दृश्य (पूर्व से क्रमागत) 

(नेपथ्य में): 

अरे पहरेदारों, अपनी-अपनी चौकियों पर सावधान हो जाओ। ग्वाल-पुत्र आर्यक कारागार भेदकर,  संतरी की हत्या कर, बेड़ी तोड़कर, भाग रहा है। उसे पकड़ो, पकड़ो।

(बिना पर्दा गिराये आर्यक का प्रवेश। उसके एक पैर में बेड़ी लटक रही है। कपड़े से सारी देह ढकी हुई है। वह घबराया-सा घूम रहा है।)

(शकार का गाड़ीवान) स्थावरक—(स्वगत) शहर में तो बड़ी अफरा-तफरी मच गई है। तो गाड़ी (जिसमें वसंतसेना अनजाने सवार हो गई है) को जल्दी-जल्दी हाँकता हूँ। (निकल जाता है‌) [आगे का घटित बाद में]  

आर्यक—राजा की क़ैद में बंद होने की महान विपत्ति के विशाल सागर को पारकर, बंधन तोड़कर भागे हुए हाथी की तरह मैं एक पैर में बेड़ी लटकाए विचर रहा हूँ। किसी त्रिकालदर्शी सिद्ध ने कह दिया कि आर्यक राजा होगा। इस भविष्यवाणी से डरकर राजा पालक ने मुझे घर से घसीटकर, कालकोठरी में डालकर, बेड़ी से जकड़ दिया। मेरे मित्र शर्विलक ने उस कालकोठरी से आज ही मुझे मुक्त कराया है। 

(कृतज्ञता के आवेग से निकलते हुए आँसू पोंछकर):

यदि मेरे भाग्य में यही लिखा है कि राजा बनूँगा तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर? फिर भी राजा पालक ने जंगली हाथी की तरह मुझे पकड़कर क़ैद में डाल दिया। भाग्य में जो लिखा है वह तो होकर रहेगा। और राजा तो सबके लिए मान्य है, ऐसे बलवान राजा से कौन विरोध करना चाहेगा? 

हाय, मैं अभागा कहाँ जाऊँ? (सामने देखकर) किसी भले आदमी का घर मालूम पड़ता है। इसका बग़ल का द्वार भी खुला हुआ है। घर बहुत पुराना लगता है। दीवारों के जोड़ टूट गए हैं। किवाड़ों में सिटकिनी तक नहीं है। लगता है, इस घर का मालिक भी मेरी तरह अभागा है और दरिद्रता की मार से इस दशा को प्राप्त हो गया है। 

इसी (चारुदत्त के) घर में घुसकर शरण लेता हूँ।

(नेपथ्य में) बढ़े चलो बैलों, बढ़े चलो।

आर्यक (सुनकर) अरे यह बैलगाड़ी तो इधर ही आ रही है। बिल्कुल शांत है, इसलिए किसी असामाजिक व्यक्ति को तो नहीं ले जा रही होगी। हो सकता है, किसी नवोढा या किसी श्रेष्ठ व्यक्ति को कहीं ले जाने के लिए आ रही हो। या, हो सकता है, भाग्य से मुझे नगर से बाहर निकालने के लिए ही आ रही हो। 

वर्धमानक—लो, मैं गाड़ी का बिछौना लेकर लौट आया। रदनिके, आर्या वसंतसेना से कह दो, गाड़ी तैयार है। वे अब पुष्पकरंडक जीर्णोद्यान चल सकती हैं। 

आर्यक—(सुनकर) तो यह किसी गणिका की गाड़ी है जो कहीं बाहर जा रही है। (चुपके से) इसी में बैठ जाता हूँ। (धीरे से बैलगाड़ी के पास जाता है।)

वर्धमानक—(सुनकर,स्वगत) पायल (वस्तुत: बेड़ी) की आवाज़ सुनाई पड़ रही है। तो आर्या आ गईं। (प्रकट) नाथे हुए बैल चलने को उतावले हो रहे हैं। इसलिए आर्या पीछे से चढें। 

(आर्यक पीछे की ओर से चढ़ जाता है।)

वर्धमानक—पैर उठाकर गाड़ी पर चढ़ते समय पायल की आवाज़ बंद हो गई। गाड़ी भी भारी हो गई। आर्या अब गाड़ी पर बैठ गई होंगी। तो अब चलता हूँ। चलो बैलों।

[षष्ठ अंक का चतुर्थ दृश्य: आगे नाका पड़ता है जहाँ वीरक और चंदनक नाम के दो सेनानायक अपनी-अपनी कुमुक के साथ आर्यक को पकड़ने के लक्ष्य से निगरानी के लिए मौजूद हैं। उनमें से वीरक आर्यक का पुराना दुश्मन है और चंदनक पुराना मित्र। चंदनक शर्विलक का भी घनिष्ठ मित्र है जो आर्यक का मित्र और कारागार से उसके निकल भागने में मुख्य सहायक है। 

गाड़ी रोककर पूछताछ होती है। गाड़ीवान वर्धमानक ने (जानकारी के अनुरूप सच) बता दिया कि गाड़ी आर्य चारुदत्त की है और इस पर आर्या वसंतसेना मनोविनोद के लिए पुष्पकरंपडक उद्यान जा रही है। इस पर चंदनक गाड़ी बिना जाँच के जाने देना चाहता है। वह चारुदत्त और वसंतसेना की कीर्ति से परिचित है और उनका सम्मान करता है। वीरक दोनों को जानता तो है किंतु उन्हें कोई महत्व नहीं देता। वीरक का रवैया उसी के शब्दों में--राजकाज में मैं अपने पिता को भी नहीं जानता। आख़िर चंदनक को परदा उठाकर गाड़ी के भीतर जाँच के लिए जाना पड़ता है। शस्त्रविहीन आर्यक उसका शरणागत होकर रक्षा की याचना करता है और चंदनक शरणागत को अभयदान दे देता है। उसकी यह जानकारी भी काम करती है कि आर्यक निर्दोष है। किंतु बाहर आकर घबराहट में उसके मुँह से निकल जाता है--मैंने ‘आर्य’ को देख लिया। वह तुरंत बात को सुधारकर कहता है—नहीं, आर्या वसंतसेना को देख लिया। इससे वीरक को शक हो जाता है। उसके अविश्वास को चंदनक यह कहकर दूर करना चाहता है कि हम दाक्षिणात्य लोग कई शब्द अशुद्ध बोलते हैं, जैसे दृष्टो को दृष्टा और आर्य: को आर्या। वीरक को विश्वास नहीं होता। इसे लेकर दोनों में कहासुनी हो जाती है और एक-दूसरे को निम्न जाति का बताकर अपमानित करने का दौर चलता है। आख़िर वीरक भी गाड़ी में घुसकर जाँचने का निश्चय करता है। किंतु जैसे ही वह गाड़ी पर चढ़ने लगता है, चंदनक बाल से उसे खींचकर ज़मीन पर गिरा देता है और पद-प्रहार से पिटाई भी कर देता है। वीरक उसे राजा के सामने पेशकर चतुरंग दंड (शिर-मुंडन, कोड़े लगाना, धन-हरण, देश-निकाला) दिलाने की धमकी देता है किंतु चंदनक ‘देख लूँगा’ कहकर टाल जाता है। वह गाड़ीवान को जाने की अनुमति देते हुए कहता है-- रास्ते में कोई पूछे तो बोल देना कि चंदनक और वीरक ने गाड़ी देख ली है। यही नहीं, वह नि:शस्त्र आर्यक को यह कहते हुए अपनी तलवार भी दे देता है कि आर्ये वसंतसेने, मेरा यह चिह्न अपने पास रख लीजिए। 

गाड़ी के नाके से बाहर निकलते ही शर्विलक को गाड़ी का अनुसरण करते देखकर चंदनक भी, पिटे हुए वीरक के प्रतिकार से आशंकित, सपरिवार आर्यक के पक्ष में चलने को उद्यत हो जाता है।] 

षष्ठ अंक का पटाक्षेप।

सप्तम अंक

पुष्पकरण्ड जीर्णोद्यान। चारुदत्त और विदूषक। दो श्लोकों में उद्यान की छटा का वर्णन करने के बाद, विदूषक के कहने पर, चारुदत्त एक साफ़-सुथरी शिला पर बैठ जाता है। 

चारुदत्त—मित्र, पता नहीं, वर्धमानक इतना विलम्ब क्यों कर रहा है! कहीं उसकी गाड़ी के आगे धीमी चाल से चलनेवाली कोई मरियल गाड़ी तो नहीं है जिससे आगे बढ़ने का रास्ता खोज रहा है? या उसकी गाड़ी का कोई पहिया टूट गया? या बैलों को नाधने की रस्सी टूट गई? या किसी ने लकड़ी काटकर, बीच मार्ग पर डालकर उसे अवरुद्ध कर दिया और वह किसी अन्य रास्ते से आने पर विचार कर रहा है? या ख़ुद बैलों को धीमे-धीमे हाँकता, आराम से आ रहा है?

(उधर वर्धमानक-नीत गाड़ी में बैठा) आर्यक—राजकीय रक्षकों को देखकर डरा हुआ, एक पैर में बेड़ी लटकी होने से भागने में असमर्थ, सज्जन चारुदत्त की गाड़ी में बैठकर, मैं उसी तरह सुरक्षित हूँ जैसे कौवे के घोसले में उसके बिना जाने पल रहे कोयल के बच्चे।

अब तो मैं शहर से दूर निकल आया हूँ। तो चुपके से गाड़ी से उतरकर घने पेड़ों की ओट में छिप जाऊँ? या, इस गाड़ी के मालिक से ही क्यों न मिल लूँ? सुना है, आर्य चारुदत्त शरणागतवत्सल हैं। उस भले आदमी को मुझे विपत्तिरूपी सागर से उबरा देखकर निश्चय ही सुख मिलेगा, क्योंकि इस संकट में पड़ी मेरी देह उसी के गुणों के चलते अब तक सुरक्षित है‌।

तब तक गाड़ी उद्यान पहुँच जाती है।

विदूषक को देखकर वर्धमानक उसके पास लाकर गाड़ी खड़ी कर देता है।

वर्धमानक—आर्य मैत्रेय!  

विदूषक—मित्र तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी है। वर्धमानक बुला रहा है। वसंतसेना आ गई होगी। 

चारुदत्त—निश्चय ही हमारे लिए बड़ी ख़ुशख़बरी है।

विदूषक-- (चारुदत्त के साथ गाड़ी के पास पहुँचकर) अरे दासीपुत्र, तुमने इतनी देर क्यों कर दी? 

वर्धमानक—कुपित न हों आर्य। मैं गाड़ी का बिछावन भूल गया था। वही लाने के लिए जाने-आने में देर लग गई।

चारुदत्त—वर्धमानक, गाड़ी घुमाओ। मैत्रेय, वसंतसेना को उतारो। 

विदूषक—क्या इनके पैर में ‘बेड़ी पड़ी’ है जो ख़ुद नहीं उतर सकतीं? (विदूषक गाड़ी का पर्दा खोलता है।) अरे मित्र, यह तो वसंतसेना नहीं, कोई वसंतसेन है। 

चारुदत्त—क्यों परिहास करते हो। प्रेम विलम्ब नहीं चाहता। अथवा मैं स्वयं ही उतार लेता हूँ। (उठता है।)

आर्यक--(चारुदत्त को देखकर) तो ये हैं गाड़ी के मालिक। ये तो सुनने में ही नहीं, देखने में भी रमणीय हैं। अब निश्चित मेरी रक्षा हो जाएगी।  

[और वही होता है। आर्यक के शरणागत के रूप में अपना परिचय देते ही चारुदत्त उसे आश्वस्त करता है--मैं अपनी जान देकर भी तुम्हारी रक्षा करूंगा। फिर तो वसंतसेना की चिंता भूलकर वह आर्यक की रक्षा में ही लग जाता है। गाड़ीवान वर्धमानक से उसके पैर की बेड़ी कटवाकर एक पुराने कुँए में फिंकवा देता है। आर्यक को सावधान करता है कि राजा पालक तुम्हें पकड़ने की हर संभव कोशिश कर रहा है, इसलिए यहाँ से शीघ्र निकल जाओ। इसके बाद, उसकी बाईं आँख फड़कने पर ही उसे वसंतसेना की याद आती है और उसको लेकर व्याकुल हो जाता है।]

सप्तम अंक का पटाक्षेप।

ध्यातव्य यह है कि गाड़ी की अदला-बदली के जिस संयोग से वसंतसेना के प्राणों का संकट खड़ा होता है और उसकी हत्या के आरोप में चारुदत्त आसन्न मृत्युदंड तक पहुँच जाता है, उसी से आर्यक की जीवन-रक्षा भी होती है। और इसी जीवन रक्षा से, ऐन वक़्त पर उसके राजा बन जाने के कारण न केवल चारुदत्त के प्राणों की रक्षा होती है, उसे कुशावती नगरी का राज्य भी मिल जाता है। और नया राजा आर्यक वसंतसेना के लिए ‘वधू’ शब्द का प्रयोग कर उससे चारुदत्त के सम्मानजनक सामाजिक सम्बध का मार्ग प्रशस्त करता है।

दुनिया में दुर्भाग्य और सौभाग्य के बीच की दूरी बहुत फिसलन भरी है।       
(समाप्त) 

कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (8) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/8.html 

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