आज 7 अगस्त है। आज, गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर की पुण्य तिथि है ~
टैगोर कुछ समय से बीमार थे। वे शांतिनिकेतन छोड़कर कलकत्ते जाने की तैयारी कर रहे थे, और शायद यह जानते भी थे कि वे अपने प्यारे विश्वविद्यालय में अब नहीं लौट सकेंगे। बंगाली नव वर्ष पर उन्होंने विश्व भारती में अपने आस-पास हो रही हत्याओं और तबाहियों पर अपना क्षोभ व्यक्त किया। द्वितीय विश्व युद्ध के चरम क्षणों में दिया गया यह भाषण न केवल शांतिनिकेतन में बल्कि आम जनता के बीच में दिया गया उनका आखिरी भाषण था। इन कारणों से यह बेहद मर्मस्पर्शी और दमदार है : इतिहास से मोह भंग हो चुके इंसान का इंसानों पर भरोसे का आख्यान।
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आज मैं अपने जीवन के अस्सी वर्ष पूरे कर रहा हूँ। जब मैं अपने बीते हुए जीवन के कई लंबे वर्षों को पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरे विकास के शुरुआती वर्षों के इतिहास का स्पष्ट परिदृश्य उभरता है जिसमें मैं अपने व्यवहार और अपने देशवासियों की मानसिकता में आए बदलावों को देखकर अचंभित हो जाता हूँ : यह बदलाव अपने भीतर महान त्रासदी छिपाए हुए हैं।
पूरी दुनिया के इंसानों से हमारा संपर्क अंग्रेज लोगों के जरिए ही था जिनसे हम शुरुआती दिनों में मिले। यह उनके महान साहित्य के कारण था कि भारतीय बंदरगाहों पर आने वाले नए लोगों के बारे में हमने अपनी धारणाएं बनाईं। उन दिनों हमने जो सीखा, न ही वह न तो पर्याप्त और न ही वैविध्यपूर्ण, और न ही उसमें प्रमाण आधारित कोई वैज्ञानिक चेतना ही थी। चूँकि उनका विस्तार बेहद कम था, उन दिनों के पढ़े-लिखे लोगों तक ही अंग्रेजी साहित्य और भाषा की पहुँच थी। उनके रात-दिन बर्क की बातों, मैकाले के लंबे वाक्यों, शेक्सपियर के नाटकों और बायरन की कविताओं से परिपूर्ण हुआ करते थे और इससे भी ज्यादा 19वीं शताब्दी की अंग्रेजी राजनीति के विशाल हृदय उदारवाद से वे आप्लावित थे।
हालाँकि, उस समय हमारी आज़ादी को लेकर शुरुआती कोशिशें हो रही थी, लेकिन हमने पूरे मन से अंग्रेजी लोगों की उदारता में भरोसा भी नहीं खोया था। यह विचार हमारे नेताओं के मन में इतना गहरे बैठा था कि उन्हें उम्मीद थी कि जीतने वाले लोग अपनी मर्ज़ी से ही हारे हुए लोगों के लिए आज़ादी का रास्ता तैयार कर देंगे। यह विश्वास इस तथ्य पर आधारित था कि इंग्लैंड उस समय अपने देशों से अन्य देशों में हिंसा के शिकार लोगों को शरण प्रदान करता था। राजनैतिक शहीद जो अपने लोगों की इज़्ज़त के लिए तकलीफ़ उठाते थे उन्हें अंग्रेज़ों के द्वारा बेझिझक स्वागत मिलता था। मैं अंग्रेजों में इस उदारवादी इंसानियत के सबूत को देखकर प्रभावित हुआ था और इसलिए उन्हें बेहद इज़्ज़त से देखता था। उनके राष्ट्रीय स्वभाव में इस उदारता ने साम्राज्यवादी गर्व को भंग नहीं किया था। उसी समय इंग्लैंड में एक किशोर के तौर पर मुझे संसद के भीतर और बाहर जॉन ब्राइट के भाषणों को सुनने का मौका मिला। किसी भी राष्ट्रीय सीमा को धता बताते हुए उन उदार मना भाषणों के क्रांतिकारी उदारवाद ने मेरे दिमाग पर इतना गहरा असर छोड़ा था कि उसका कुछ हिस्सा आज भी मेरे साथ मौजूद है, इस समय की खिन्न मनोदशा और मोह भंग होने की स्थिति में भी।
जाहिर है हमारे शासकों की महान दयालुता पर हमारा इतना निर्भर होना कोई गर्व करने वाली बात नहीं थी लेकिन जो बात अद्भुत थी वह यह थी कि हमने मानवीय महानता को विदेशियों में देखने की पूरे दिल से हिम्मत की। मानवता के सबसे खूबसूरत और अच्छे तोहफे किसी एक राष्ट्र या नस्ल की जायदाद नहीं हो सकते; न तो इनकी पहुंच कम होगी और न ही यह किसी कंजूस आदमी के ज़मीन के नीचे दफ़न ख़ज़ाने जैसे हैं। इसीलिए जिस अंग्रेजी साहित्य ने पहले हमारे दिमाग का पोषण किया था, वह आज भी हमारे दिलों के खालीपन से गहरा संबंध रखता है।
अंग्रेजी के शब्द सिविलाइजेशन (सभ्यता) के लिए कोई हूबहू बंगाली शब्द खोजना मुश्किल है। इस देश में हम सभ्यता के जिस रुप से परिचित हैं उसे मनु ने सदाचार (यानि सही आचरण) कहा है, ऐसा आचरण जो नस्ल की परंपराओं से तय हो। अपने आप में थोड़े समय द्वारा सम्मानित यह सामाजिक ढाँचा एक खास भौगोलिक इलाके, धरती का वह हिस्सा जिसे ब्रह्मावर्त कहा गया और जो दोनों ओर सरस्वती और दृश्दावती नदियों से बंधा था, में पनपा और सही सही माना गया। इस तरह एक पाखंडी रीतिवाद को मुक्त विचार और सही आचरण तय करने का मौका मिला, जिसे मनु ने ब्रह्मावर्त में देखा और जो जल्द ही एक सामाजिक उत्पीड़न में बदल गया।
मेरे बालपन के दिनों में सभ्य और अंग्रेजी शिक्षा से पोषित पढ़े-लिखे बंगाली जनों का व्यवहार इन सामाजिक रूढ़ियों के प्रति एक तरीके के क्षोभ से भरा हुआ था। मैंने अभी-अभी जो कहा है, राजनारायण बोस ने जो उन दिनों के पढ़े लिखे लोगों के बारे में लिखा है, उसे देखिए तो बात और स्पष्ट हो जाएगी। इन तयशुदा मानकों की बजाय हमने अंग्रेजी शब्द ‘सिविलाइजेशन’ के विचार को ज्यों का त्यों अपना लिया।
हमारे अपने परिवार में इस विचार का स्वागत हुआ क्योंकि इसने हमारे जीवन के हर क्षेत्र में वैचारिक और नैतिक प्रभाव डाला। उस वातावरण में पैदा होकर, जो असल में हमारे साहित्य के प्रति झुकाव से भरा हुआ था, मैंने अंग्रेजी को हृदयंगम लिया। जब मैंने यह देखना शुरू किया कि जो सभ्यता के महान सत्य को स्वीकार करते हैं, वह बिना सोचे-समझे राष्ट्रीय स्वाभिमान की बात को नकार देते हैं और उसके बाद कष्टकारी मोहभंग से भरा दौर आया जिसमें रास्ते जुदा हो गए।
एक समय ऐसा आया जब मुझे अपने आपको जबरन साहित्य के आस्वाद मात्र से अलग कर लेना पड़ा। जब मेरा कठोर तथ्यों से साबका पड़ा तो हिंदुस्तानी जनता की भीषण गरीबी देखकर मेरा हृदय कांप उठा। अपने सपनों से इस तरह झकझोर कर उठा दिए जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि किसी भी और आधुनिक राज्य में अस्तित्व के सबसे स्वाभाविक जरूरतों की नाउम्मीद कमी नहीं थी। और तब भी यह वह मुल्क था जिसने अपने स्रोतों से अंग्रेजी लोगों के धन और वैभव को इतने लंबे समय तक पाला-पोसा था। जब मैं सभ्यता की महान दुनिया के विचारों में खोया था तब मैं यह दूर-दूर तक नहीं सोच सकता था कि इंसानियत के यह महान आदर्श इस क्रूर प्रहसन में जाकर खत्म होंगे। लेकिन आज मेरी आंखों में इस तथाकथित सभ्य नस्ल की करोड़ों हिंदुस्तानियों की भलाई के ख़िलाफ़ नफरत भरी उदासीनता का उदाहरण झांकता है।
मशीन को कब्जे में कर अंग्रेजों ने जिस तरह से अपने महान राज्य पर संप्रभुता हासिल की है, उसे उन्होंने एक बंद किताब बना रखा है जिस तक इस सहायताविहीन देश के पहुंच की बाधित है। और इस पूरे समय हमारी ही आंखों के सामने जापान ने खुद को एक ताकतवर और वैभव संपन्न देश में बदला है। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है कि जापान ने किस सम्मानजनक तरीके से प्रगति के फल को अपने देशवासियों से साझा किया है। मॉस्को में रहते हुए मुझे यह भी देखने का सौभाग्य मिला है कि किस महान ताकत से रूस ने बीमारी और अशिक्षा के खिलाफ़ जंग लड़ी है और वे धीरे-धीरे अज्ञानता और गरीबी को कम करने में सक्षम हुए हैं जिससे एक बड़े महाद्वीप के चेहरे से अपमान पोंछा जा सका है। उनकी सभ्यता सभी तरह के बेबुनियाद वर्गों और फिरकों से आज़ाद है। इस तेज और महान प्रगति को देखकर मुझे खुशी के साथ-साथ जलन भी हुई। सोवियत प्रशासन की जो एक बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी, वह यह थी कि उसने धार्मिक विभेदों पर किसी भी तरह के संघर्ष को जगह नहीं दी और न ही किसी एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ गैर बराबर राजनीतिक ताकतें देकर खड़ा किया। इसे ही मैं वास्तव में एक सभ्य प्रशासन मानता हूँ जो लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करे।
जहाँ दूसरी साम्राज्यवादी ताक़तों ने अपने अधीन नस्लों को अपने राष्ट्रीय लोभ के लिए बलि पर चढ़ा दिया, वहीं सोवियत संघ में मैंने इस बड़ी जगह पर फैले हुए कई तरह की राष्ट्रीयताओं के लोगों के विभिन्न जरूरतों को पूरा करने की वास्तविक कोशिश करते हुए देखा। जो लोग और जनजातियाँ अभी कल तक घुमंतू एवं असभ्य थे, उन्हें सभ्यता के फ़ायदों को आसानी से हासिल करने के लिए न केवल प्रेरित बल्कि तैयार भी किया जा रहा है। इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए उनकी शिक्षा पर काफी धन खर्च किया जा रहा है। जब मैं और कहीं देखता हूँ तो कुछ 200 के करीब राष्ट्रीयताएं- जो कुछ साल पहले तक प्रगति के विभिन्न चरणों पर थीं- वे शांति से प्रगति और बन्धुत्व की तरफ बढ़ रही हैं, और जब मैं अपने देश को देखता हूँ और पाता हूँ कि एक बेहद विकसित होती हुए और समझदार लोग बर्बरता की अव्यवस्था की तरफ बहते हुए चले जा रहे हैं। इस हालत में, मैं इन दो तरह की सरकारों की तुलना करने से अपने आपको रोक नहीं पाता, एक सहभागिता पर आधारित है दूसरा शोषण पर, जिसने इस तरीके की विभिन्न स्थितियाँ पैदा की हैं।
मैंने ईरान को भी देखा है जो अभी-अभी अपनी राष्ट्रीय सक्षमता से पुनर्बोधित हुआ है और जो दो यूरोपीय ताक़तों की घातक टक्कर से आज़ाद होकर अपनी नियति को पूरी करने की कोशिश कर रहा है। जब मैं हाल ही में इस देश गया तो मुझे यह देख कर खुशी हुई कि जो जरथुस्त्रवादी एक समय मुख्य समुदाय की कट्टर नफरत से त्रस्त थे और जिनके अधिकार सत्ता द्वारा छीन लिए गए थे, वे इस लंबे समय से चले आ रहे शोषण से आज़ाद हो गए थे और एक सभ्य जीवन इस खुशगवार ज़मीन पर स्थापित हो गया है। यह महत्वपूर्ण बात है कि ईरान की खुशकिस्मती उस दिन से शुरू होती है जब उसने अंततः खुद को यूरोपीय राजनय से आजाद कर लिया। मैं ईरान को तहे दिल से शुभकामनाएं देता हूँ।
पड़ोसी अफगान साम्राज्य की ओर देखने पर मुझे लगता है कि वहाँ पर शिक्षा और सामाजिक विकास के क्षेत्र में सुधार की काफी गुंजाइशें हैं, फिर भी अफगानिस्तान भाग्यशाली है कि वह सतत विकास जारी रख सकता है। कोई भी यूरोपीय शक्ति, जो अपनी सभ्यता की गौरवगाथा कहती रहती है, उसकी संभावनाओं को दबा देने में अभी तक सक्षम नहीं हो पाया है।
इस प्रकार जब अन्य देश आगे जा रहे थे तब भारत ब्रिटिश शासन के भार के नीचे कराह रहा था, वह चारों ओर से असहाय होकर चित्त लेट गया। एक और महान एवं प्राचीन सभ्यता जिसके हालिया त्रासद इतिहास से ब्रिटिश मुँह नहीं मोड़ सकते हैं, वह चीन है। अपना राष्ट्रीय हित साधने के लिए ब्रिटिशों ने चीन के लोगों को अफीम की लत लगायी और फिर उसके एक हिस्से को अपने साम्राज्य में मिला लिया। दुनिया इस अपमान की यादाश्त को भूलने ही वाली थी कि हमें दर्दनाक रूप से एक दूसरी घटना से दो-चार होना पड़ा। जब जापान धीरे-धीरे उत्तरी चीन को निगल रहा था, उसके तुच्छ आक्रमण को एक मामूली घटना मानकर ब्रिटिश राजनय के सयाने लोगों ने अनदेखा किया। यहाँ इतनी दूरी से हमने यह भी देखा कि स्पेनी गणतंत्र के विध्वंस में ब्रिटिश राजमर्मज्ञों की मौन सहमति थी।
दूसरी ओर हमने सम्मानजनक ढंग से यह भी लक्षित किया कि कैसे बहादुर अंग्रेजों के एक टोली ने स्पेन के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। फिर भी सुदूर पूर्व में चीन के प्रति अंग्रेज़ अपने आपको पर्याप्त रूप से जिम्मेदार नहीं बना सके हैं, फिर भी अपने ठीक पड़ोस में उन्होंने आज़ादी के लिए बलिदान देने में हिचक नहीं दिखाई। वीरता के ऐसे कृत्य मुझे उस अंग्रेजी भावना की याद दिलाते हैं जिस पर मैं अपने शुरुआती दिनों में पूरी श्रद्धा रखता था और इसने मुझे आश्चर्यचकित किया कि कैसे साम्राज्यवादी लालच एक महान नस्ल के चरित्र में इतने भद्दे तरीके से परिवर्तन ला सकता है।
सभ्यता के ऊपर यूरोपीय देशों के दावे में मेरी आस्था में क्रमश: क्षरण की यह कहानी ऐसे निर्मित हुई। भारत में किसी विदेशी देश द्वारा शासित होने का यह दुर्भाग्य उसके रोजमर्रापन में मसलन, लोगों के लिए भोजन, वस्त्र, शिक्षा और चिकित्सकीय सुविधाओं में ही नहीं आता बल्कि उस रूप में भी सामने आता है जिसमें उन्होंने दुखद रूप से खुद को बाँट लिया है।
और इसमें दुख की बात तो यह है कि इस सबका दोष समाज के मत्थे पर मढ़ दिया गया है। हमारे लोगों के इतिहास को इतने दर्दनाक रूप से इकठ्ठा नहीं होना था लेकिन प्रभावशाली जगहों से इस पर रहस्यमयी दवाब पड़े। किसी को यकीन नहीं होगा कि भारतीय जापानियों से बौद्धिक क्षमता में किसी भी प्रकार से तुच्छ हैं। इन दोनों पौर्वात्य जनों में जो महत्वपूर्ण अंतर है, वह यह है कि जहाँ भारतीय ब्रिटिश जनों की दया पर निर्भर हैं, वहीं जापान किसी विदेशी अधिपत्य से मुक्त रहा है।
हमें पता है कि हमें किस चीज से महरूम किया गया। हमारी अपनी सभ्यता में जो सबसे बेहतर था, मानवीय संबंधों को सबसे ऊपर रखना, उसके लिए इस देश में ब्रिटिश प्रशासन में कोई जगह नहीं थी। यदि हाथ में बेंत लेकर ‘कानून और व्यवस्था’ के नाम पर उनकी स्थापना भी हुई तो वह पुलिस के शासन से ज्यादा कुछ नहीं था, और सभ्यता का ऐसा मखौल हमसे किसी सम्मान की उम्मीद तो बिलकुल न करे।
लोगों के बीच एकता लाना, शांति एवं भाईचारे की स्थापना सभ्यता का पवित्र ध्येय है। लेकिन दुर्भाग्यशाली भारत में ‘कानून और व्यवस्था’ के नाक के ठीक नीचे रोज-ब-रोज तेजी से बढ़ती हुई गुंडई से सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। भारत में जब तक शासक प्रजाति के किसी भी सदस्य पर पर कोई व्यक्तिगत नुकसान नहीं ढाया जाता है, यह बर्बरपना निरंतर बनी रहेगी और हमें ऐसे प्रशासन के अधीन रहने को शर्म से गाड़ती रहेगी।
और यह मेरा सौभाग्य था कि मैं वास्तव में विशाल-ह्रदय अंग्रेजों के संपर्क में आया। बिना किसी हलकी सी हिचक के मुझे कहना चाहिए कि उनके चरित्र का कोई सानी नहीं था, मैं इतनी महान आत्माओं वाले किसी भी देश या समुदाय के संपर्क में नहीं आया। ऐसे उदहारण मुझे उस नस्ल में आस्था खत्म नहीं होने देंगे जिसने उन्हें पैदा किया। यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे साथ मेरे नजदीकी मित्र एंड्रयूज हैं – एक वास्तविक अंग्रेज़, एक वास्तविक ईसाई और सच्चे इंसान।
मृत्यु के उनके प्रसंग में आज उनकी नि:स्वार्थ और हिम्मती उदारता और ज्यादा तेजी चमकती है। प्रेम और समर्पण के उनके अनगिनत कार्यों संपूर्ण भारतवर्ष उनका ऋणी है।
लेकिन व्यक्तिगत रूप से बोलते हुए मैं कहूँगा कि मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने अंग्रेजी नस्ल में मेरी उस पुरानी आस्था को बचाए रखा जो साहित्य से प्रभावित थी और जिसे मैं पूरी तरह से त्याग देने ही वाला था। मैं ऐसे अंग्रेजों को न केवल अपना निजी और नजदीकी मित्र मानता हूँ बल्कि उन्हें पूरी मानव जाति का भी मित्र मानता हूँ। मेरा उनसे परिचित होना मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात है। यह मेरा विश्वास है कि ऐसे अंग्रेज़ ब्रिटिश सम्मान को टूटकर बिखर जाने से बचाएँगे।
किसी भी कीमत पर यदि मैं उन्हें नहीं जानता तो पाश्चात्य सभ्यता के भविष्य के प्रति मेरी उत्कंठा समाप्त न होती। और इसी बीच में बर्बरता के दैत्य ने सभी आवरण उतार फेंके हैं और अपने नंगे विषदंतों आ खड़ी हुई है और वह मानवता को बर्बादी के नंगे नाच में ले जाकर चीथ देना चाहती है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक घृणा के विषाक्त धुंएँ ने वातावरण को काला कर दिया, हिंसा की भावना जो अब तक पश्चिम के मनो-मष्तिष्क में सोई पड़ी थी, अब वह जाग उठी है एवं मनुष्य की मूल भावना को अपवित्र कर रही है।
भाग्य का चक्र किसी दिन अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़ने पर मजबूर कर देगा लेकिन वे अपने पीछे कैसा भारत छोड़ कर जाएँगे, कितनी भीषण दरिद्रता छोड़कर वे जाएँगे?
जब उनकी ‘शताब्दियों की प्रशासन की धारा’ अंतत: सूख जाएगी, वे अपने पीछे कितना कीचड़ और गंदगी छोड़कर जाएँगे। मुझे एकबारगी ऐसा विश्वास था कि सभ्यता का सोता यूरोप से फूटेगा लेकिन जब आज मैं दुनिया छोड़ने वाला हूँ तो यह विश्वास लगभग दिवालिया होने के कगार पर है।
जब मैं चारों ओर देखता हूँ तो मैं गौरवशाली सभ्यताओं के टूटे-फूटे अवशेष पाता हूँ, लगता है कि वे जैसे निरर्थक ढेर हों। फिर भी, मैं मनुष्य में विश्वास न करने का गंभीरतम पाप नहीं करूँगा। इसके बजाय जब यह महाप्रलय बीत जाएगी, सेवा और त्याग की भावना से वातावरण स्वच्छ हो जाएगा तो मैं उसके इतिहास में एक नए अध्याय खोलने को तवज्जो दूँगा। शायद, इसी क्षितिज से प्रातःकाल होगा, पूर्व की ओर से जिधर से सूर्य उगता है। एक दिन ऐसा आएगा जब विभिन्न प्रकार की की बाधाओं के बावजूद दुर्दमनीय मनुष्य अपनी विजय की राह खोज लेगा और मनुष्य की खोई हुई विरासत हासिल करने में सफल हो जाएगा।
आज हम उन संकटों से गुजर रहे हैं जो शक्तिशाली होने की गुस्ताखी करते प्रतीत हो रहे हैं, और एक दिन वह सच सामने आएगा जिसके बारे में ऋषि-गण कहते आए है : अ-सदाचार से मनुष्य समृद्ध हो सकता है, उसे इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है, दुश्मनों को जीत सकता है लेकिन समूल नष्ट भी होता है।
( यह अनुवाद धर्मेश और रमा शंकर सिंह द्वारा किया गया है। यह लेख, साभार, रमाशंकर सिंह, Rama Shanker Singh की टाइम लाइन से)
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