यह कुर्ता मैंने कनाट प्लेस के खादी ग्रामोद्योग भवन से लिया था। तब शायद यह 3600 रुपए का पड़ा था। कुर्ता तो लाजवाब है पर जब भी धोने के लिए भिगोओ। पूरी बाल्टी का पानी लाल हो जाता है। साथ में पाजामा डाल दो तो सफ़ेद झकाझक पाजामा दोबारा पहनने लायक़ नहीं रहेगा। सरकार ने खादी का प्रचार तो ख़ूब किया लेकिन रंगरेज़ को बाहर कर दिया। जबकि हिंदी के असंख्य कवि रंगरेज़िन से प्रभावित होकर ही इस्लाम अपना लिए।
कहते हैं आलम नाम के एक ब्राह्मण कविवर ने एक अर्धाली लिखी- “कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन!” आगे की लाइन सूझी नहीं तो यह अर्धाली लिख कर काग़ज़ कुर्ते के खीसा में रख लिया। एक दिन उन्होंने इस कुर्ते को भगवा रंग देने के लिए रंगरेज़ के यहाँ भेजा। रंगरेज़िन ने कुर्ते के खीसे में अर्धाली लिखा काग़ज़ देखा तो उसने काग़ज़ निकाला और जोड़ दिया- “कटि को कंचन काटि के कुचन मध्य धरि दीन!” कुर्ता रंग दिया और वह काग़ज़ भी कुर्ते के खीसा में रख दिया। विप्रवर ने कुर्ता पहना और खीसे से काग़ज़ निकाल कर पढ़ा। विप्र कवि उस रंगरेज़िन की बुद्धि के क़ायल हो गए और उसकी चाह में आलम बन गए। ख़ैर रंगरेज़िन, धोबिन और नाउन के क़िस्सों से हिंदी साहित्य लबरेज़ है। उस पर चर्चा फिर कभी।
अभी तो अपने कुर्ते के रंग की फ़िक्र है। 1776 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी छावनी जब कानपुर में डाली तब फ़र्रुख़ाबाद के छीपा पठान कानपुर आ गए। यही रंगरेज़ कहलाए। इन लोगों को गंगा यमुना के दोआबे में बसा कानपुर ख़ूब रास आया क्योंकि यहाँ यमुना किनारे मूसानगर एवं अमरौधा में आड, नील, अडूसा व पलाश के पौधे मिले तथा इनसे तैयार हुए सात रंग। जब अंग्रेज गए तो यह शहर, इसकी छावनी उजड़ गई। साथ ही उजड़ा रंगरेज़ और रंगरेजिनों का कारोबार। ऐसी आज़ादी से ग़ुलामी भली थी।
(जारी)
शंभूनाथ शुक्ल
© Shambhunath Shukla
कोस कोस का पानी (53)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/53.html
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