Saturday, 20 August 2022

कमला कांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (5)

वसंतसेना, मदनिका और शर्विलक का चरित्रांकन: वसंतसेना-चारुदत्त प्रेम-प्रसंग—III 
(अनुषंग में स्त्री-स्वभाव, ख़ासकर गणिका-स्वभाव का ईर्ष्याजन्य साधारणीकरण) 

चतुर्थ अंक। प्रथम दृश्य। 

मंच पर वसंतसेना और उसकी सखी-तुल्य विश्वासपात्र सेविका--मदनिका। वसंतसेना के हाथ में एक चित्राकृति है जिस पर वह आँख गड़ाए हुए है।  

[संवादों का भावानुवाद]

वसंतसेना—क्यों री मदनिके, आर्य चारुदत्त की यह चित्राकृति सुंदर और उन्हीं के अनुरूप है न?

मदनिका—(बिना देखे) हाँ सुंदर और उन्हीं के अनुरूप है। 

वसंतसेना—तुमने कैसे जाना? 

मदनिका—ऐसे कि आपकी प्रेमभरी आँखे उसी पर लगी हुई हैं। 

वसंतसेना—वाह मदनिके, गणिका के घर में रहते-रहते तू तो असत्य बोलने में बहुत पटु हो गई है।   

मदनिका—आर्ये, जो गणिका के घर में रहती है, क्या वही असत्य बोलने में पटु होती है?

वसंतसेना—क्यों नहीं। भाँति-भाँति के पुरुषों की संगति में आने से गणिकाएँ असत्य बोलने में पटु हो ही जाती हैं।

मदनिका—जब आपकी आँखें और हृदय दोनों इसी में रमे हैं तो ( चित्र की चारुदत्त से अनुरूपता जानने का) कारण क्यों पूछ रही हैं? 

वसंतसेना—इसलिए कि सखियाँ कहीं मेरी पसंद पर हँसी न उड़ाएँ। 

मदनिका—ऐसा नहीं है। स्त्रियाँ तो सखियों के चित्त का ही अनुमोदन करती हैं।

एक सेविका का प्रवेश। 

सेविका—(वसंतसेना के पास आकर) आर्ये, माता जी ने आदेश दिया है कि बग़ल के दरवाज़े पर जो पर्देवाली गाड़ी लगी है, आप उसमें जाएँ।

वसंतसेना—अरी, क्या मुझे लेने आर्य चारुदत्त आए हैं ?

सेविका—जिसने गाड़ी के साथ दस हज़ार स्वर्णमुद्राओं का आभूषण भेजा है।

वसंतसेना—वह है कौन? 

सेविका—राजा के साले संस्थानक (शकार)। 

वसंतसेना—(क्रोध से) दूर हट। मुझसे फिर ऐसा मत कहना। 

सेविका—आर्ये, क्रुद्ध न हों। मैं तो केवल संदेश देने आई हूँ। 

वसंतसेना—मेरा क्रोध भी संदेश पर ही है।

सेविका—तो मैं माताजी से क्या कहूँ? 

वसंतसेना—कह देना, यदि वे वसंतसेना को जीवित देखना चाहती हैं तो ऐसा आदेश फिर कभी न दें।

सेविका—जैसी आपकी इच्छा। (चली जाती है)

वसंतसेना—मदनिके, इस चित्राकृति को मेरे बिस्तर पर रख दो और पंखा लेकर जल्दी आ जाओ।

मदनिका—जैसी आपकी आज्ञा। (चित्र रखने और पंखा लाने निकल जाती है) 

[इस बीच शर्विलक चारुदत्त के घर से आभूषणों की चोरी करने के बाद, मदनिका से मिलने  वसंतसेना के घर तक आ गया है। वह वसंतसेना और मदनिका के बिना जाने, उसमें प्रवेश कर जाता है।]

मदनिका हाथ में पंखा लिए आ रही है। 

शर्विलक—(उसे देखकर) यह रही मदनिका। अपने गुणों से कामदेव को मोहित करनेवाली, मूर्तिमान रति की तरह सुशोभित हो रही है। इसे देखकर कामाग्नि में जलते मेरे हृदय पर जैसे चंदन का लेप हो गया हो...अरे मदनिके!

मदनिका—(उसे देखकर) अरे शर्विलक! स्वागत है। कहाँ से आ रहे हो? 

शर्विलक—बताऊंगा। (दोनों ठिठककर एक-दूसरे को अनुराग से देखने लगते हैं।)

वसंतसेना—भला इतनी देर क्यों लगा रही है मदनिका! चली कहाँ गई! (झरोखे से झाँककर देखती है)। यह तो किसी पुरुष से बातें कर रही है। दोनों जैसे एक-दूसरे को आँखों ही आँखों में पी रहे हैं। लगता है, यही है वह पुरुष जो मदनिका को क्रीतदासी के बंधन से मुक्त कराना चाहता है। अच्छा तो ये दोनों स्वच्छंद होकर आनंद लें। मैं इनके प्रेम में बाधा क्यों बनूँ? अब मदनिका को नहीं बुलाऊँगी।

मदनिका—शर्विलक, कहो।

(शर्विलक शंका से चारों ओर देखता है)

मदनिका—शर्विलक, क्या बात है, इतने सशंकित क्यों लग रहे हो? 

शर्विलक—तुम्हें कुछ गोपनीय बातें बतानी हैं। यह जगह निरापद है? 

मदनिका—है तो। 

वसंतसेना--अतिगोपनीय ! तब तो मैं नहीं सुनूँगी।

शर्विलक—क्रय का धन लौटा देने पर वसंतसेना तुम्हें मुक्त कर देंगी?

वसंतसेना—यह तो मुझसे ही सम्बंधित है। तो झरोखे के पास छिपकर सुनती हूँ।

[आगे वसंतसेना का स्वगत और शर्विलक-मदनिका का परस्पर संवाद साथ चलता है।] 

मदनिका--मैंने इस बारे में आर्या (वसंतसेना) से बात की है। वे कहती हैं, उनका वश चले तो सारे सेवकों को यूँ ही मुक्त कर दें। [प्रतिष्ठान की स्वामिनी वसंतसेना नहीं, उसकी माँ है]...पर तुम्हारे पास इतना धन आया कहाँ से?

शर्विलक—अरी भीरु, दरिद्र होकर भी तुम्हारे प्रेम से अवश, तुम्हारी ख़ातिर आज रात मैंने चोरी की है। 

वसंतसेना—इसके चेहरे पर तो ख़ुशी दिखती है पर चोरी करने के कारण भीतर से उद्विग्न है। 

मदनिका—हाय, तुच्छ स्त्री-सुख के लिए तुमने अपना चरित्र गँवा दिया।

शर्विलक—मूर्खे, साहस में ही लक्ष्मी निवास करती हैं। 

मदनिका—हाँ शर्विलक, तुम्हारा चरित्र तो अखंड है, किंतु मेरे लिए चोरी करके तुमने अपने आचरण के सर्वथा विरुद्ध काम किया।

शर्विलक—धन-लिप्सा में मैंने कभी फूलों से लदी लता की तरह आभूषणों से सुसज्जित किसी स्त्री को नहीं लूटा। कभी ब्राह्मणों के धन और यज्ञ के लिए संचित सोने की चोरी नहीं की। धाय की गोद से किसी बच्चे का अपहरण नहीं किया। चोरी में भी मेरी बुद्धि सदैव करणीय और अकरणीय का विचार रखती है...वसंतसेना से जाकर कहो, ये आभूषण उन्हीं की नाप के बने हैं। मेरे स्नेह से इन्हें छिपाकर पहन लें।

मदनिका—केवल छिपाकर पहनने योग्य आभूषण और हम (गणिकाओं) जैसी पहननेवाली, दोनों में कोई संगति नहीं। फिर भी, देखूँ तो ये कैसे हैं। 

(कुछ आशंका के साथ शर्विलक आभूषण दे देता है।) 

मदनिका—(देखकर) ये आभूषण तो पहले के देखे हुए लगते हैं। यह बताओ, तुम्हें ये मिले कहाँ?

शर्विलक—मदनिके, तुम्हें इस सबसे क्या मतलब! 

मदनिका—(क्रोध से) यदि मुझ पर भरोसा नहीं, तो मुझे मुक्त क्यों कराना चाहते हो?

शर्विलक—आज सुबह मुझे मालूम हुआ, ये आभूषण सेठों के निवास-खंड में रहनेवाले वणिक चारुदत्त के हैं। [उसे मालूम यह हुआ था कि उसने चोरी किसके यहाँ की।]  

(सुनकर वसंतसेना और मदनिका दोनों सदमे से संज्ञाशून्य हो जाती हैं।)

शर्विलक—धैर्य रखो मदनिके। बात क्या है! अनुगृहीत होने के बजाए तुम तो काँप रही हो। भय  से तुम्हारी आँखें डोल रही हैं।

मदनिका (किसी तरह धैर्य धारण कर) अरे दु:साहसी, मेरे लिए यह दुष्कर्म करते हुए उस घर में तुमने किसी की जान तो नहीं ली, या किसी को घायल तो नहीं किया? 

शर्विलक—डरे हुए या सोए हुए पर शर्विलक कभी प्रहार नहीं करता। उस घर में ऐसा कुछ नहीं हुआ।

मदनिका—सच? 

शर्विलक—बिल्कुल सच। 

वसंतसेना—(चेतन होकर) जान में जान आई। 

मदनिका—मेरा प्रिय हुआ। 

शर्विलक—(ईर्ष्या के साथ) मदनिके, तुम्हारा प्रिय क्या हुआ ? [और बिना जवाब सुने वह मान लेता है कि मदनिका चारुदत्त से प्रेम करती है।]
  
सदाचारी पूर्वजों के कुल में जन्म लेने के बावजूद मैं तुम्हारे प्रेम में पड़कर अकरणीय कर हूँ। कामदेव ने मेरा विवेक नष्ट कर दिया है, फिर भी जैसे-तैसे आत्मसम्मान की रक्षा करता रहा हूँ। और तुम मुझे केवल वाणी से प्रिय कहकर मन से किसी और को चाहती हो!

(उदास होकर) 

यह संसार! इसमें कुलीन पुरुष रूपी विशाल वृक्षों का कुल-वैभव रूपी समस्त फल खाकर गणिका रूपी चिड़ियाँ फलहीन कर देती हैं। संभोग जिसकी लपक है, प्रणय जिसका ईंधन है, वह कामरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाने पर मनुष्य अपने यौवन और सम्पत्ति दोनों को भस्म कर देता है।

वसंतसेना—(मुस्कराकर) अरे, इसका आवेग तो ग़लत निशाने पर जा रहा है। 

शर्विलक—मेरी समझ से जो लोग स्त्री और सम्पत्ति पर भरोसा करते हैं, वे मूर्ख हैं। स्त्री और  सम्पत्ति हमेशा साँपिन की तरह टेढ़ी चाल चलती हैं।

स्त्रियों पर कभी आसक्त नहीं होना चाहिए, वे आसक्त पुरुष का तिरस्कार करती हैं। स्वयं से उदासीन स्त्रियों को छोड़कर, स्वयं पर आसक्त स्त्रियों से ही प्रेम करना चाहिए।

ठीक ही कहा है--               
     
ये गणिकाएँ धन के लिए ही हँसती हैं और धन के लिए ही रोती हैं। पुरुष को विश्वास में लेती हैं किंतु उस पर विश्वास नहीं करतीं। इसलिए कुलशील-सम्पन्न व्यक्ति के लिए ये श्मशान की माला की तरह त्याज्य हैं। 

और भी—

समुद्र की लहरों की तरह चलायमान स्वभाव वाली, सायंकालीन बादल की तरह अल्प समय के  राग (बादल के लिए लाल रंग और गणिका के लिए प्रेम) वाली स्त्रियाँ केवल धन-हरण करना जानती हैं। धनहीन होने पर पुरुष को लाक्षारस (महावर) के लिए निचोड़े गए लाख की तरह फेंक देती हैं।

स्त्रियों का दूसरा नाम ही चपलता है—

वे हृदय में किसी पुरुष को रखती हैं किंतु आँख के इशारे से किसी अन्य को बुलाती हैं। किसी पुरुष को कामकेलि (हावभाव) से रिझाती हैं, तो शारीरिक सम्बंध के लिए किसी अन्य की कामना करती हैं। 

किसी ने सही कहा है—

पर्वत की चोटी पर कमलिनी नहीं अंकुरित होती, गधे घोड़ागाड़ी नहीं खींचते, जौ छींटने पर धान नहीं उगता। उसी तरह गणिका के घर पैदा हुई स्त्रियाँ पवित्र नहीं होतीं।

अरे दुरात्मा, नीच चारुदत्त, अब तुम ऐसे नहीं रह पाओगे। (यह कहकर कुछ क़दम चलता है।)

मदनिका—(शर्विलक के कपड़े का एक छोर पकड़कर) अरे, ऊटपटाँग बोलनेवाले, तुम व्यर्थ में क्रोध कर रहे हो।

शर्विलक—व्यर्थ में कैसे? 

मदनिका—ये आभूषण वसंतसेना के ही हैं।

शर्विलक—इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?

मदनिका—उन्होंने ही इन आभूषणों को आर्य (चारुदत्त) के पास रखा था। 

शर्विलक—किसलिए? 

मदनिका—(शर्विलक के कान में बताती है।) [उनके यहाँ जाने-आने का सिलसिला बनाए रखने के लिए।]

शर्विलक—(लज्जित होकर) हाय, कष्ट ही कष्ट। 

धूप से संतप्त होकर, जिस शाखा की छाया का मैंने आश्रय लिया, अनजाने ही उसी को पर्णविहीन कर दिया। [कामसंतप्त होकर मदनिका को पाने के लिए मैंने जिस वसंतसेना का सहारा लिया, बिना जाने उसी के आभूषण चुरा लाया।] 

वसंतसेना—यह इतना क्यों पछता रहा है! इसने तो अनजाने ही (मेरे आभूषणों की) चोरी की। 

शर्विलक—मदनिके, इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? 

मदनिका—इस विषय के तो तुम ही पंडित हो।

शर्विलक—ऐसा नहीं है। देखो—

ऐसे (व्यावहारिक) विषयों में तो स्त्रियाँ प्रकृत्या पंडित होती हैं। पुरुषों का पांडित्य तो शास्रोकापदेश पर आधारित होता है।      

मदनिका—शर्विलक, मेरी बात सुनो तो ये आभूषण उन्हीं महानुभाव (चारुदत्त) को लौटा दो।

शर्विलक—मदनिके, यदि उन्होंने राजदरबार को सूचित कर दिया तो? 

मदनिका—चंद्रमा से कभी धूप (गर्मी) नहीं होती।

वसंतसेना—वाह! मदनिके, वाह!! 

शर्विलक—इन्हें लौटाने के साहस में न मुझे दु:ख है, न डर। ऐसे में तुम चारुदत्त के गुणों का बखान क्यों कर रही हो? मैं तो अपने इस कुत्सित कर्म से ही लज्जित हूँ। मेरे जैसे धूर्त का राजा क्या कर लेगा!

किंतु यह चौर्य-नीति के विरुद्ध है। कोई दूसरा उपाय सोचो। 

मदनिका—दूसरा उपाय भी है। 

वसंतसेना—दूसरा उपाय भला क्या हो सकता है!

मदनिका—चारुदत्त के सम्बंधी बनकर इन आभूषणों को तुम आर्या वसंतसेना को सौंप दो। 

शर्विलक—ऐसा करने से क्या होगा? 

मदनिका--तुम चोर नहीं समझे जाओगे। आर्य (चारुदत्त) धरोहर लौटाने के दायित्व से मुक्त हो जाएँगे और आर्या (वसंतसेना) को उनके आभूषण मिल जाएँगे।

शर्विलक—किंतु यह तो बहुत साहस का काम है।

मदनिका—चलो, आभूषण उठाओ। ऐसा न करना दु:साहस का काम होगा। 

वसंतसेना—वाह मदनिके, वाह। तुमने विवाहिता पत्नी-जैसी ही सलाह दी है।

शर्विलक—मदनिके, तुम्हारा अनुसरण करने से मेरी बुद्धि श्रेयस्कर हो गई है। चंद्र-रहित अमावस्या की रात में रास्ता भटके पथिक को मार्गदर्शक मिलना दुर्लभ होता है।

मदनिका—यहीं रुको। मैं आर्या को सूचित करके आती हूँ।

मदनिका—(वसंतसेना के पास जाकर) आर्ये, चारुदत्त के यहाँ से उनका सम्बंधी एक ब्राह्मण आया है।

वसंतसेना—उनका सम्बंधी है, यह तुम कैसे जानती हो? 

मदनिका—आर्ये, अपने सम्बंधियों को भी नहीं जानूँगी? [वसंतसेना से चारुदत्त के ‘सम्बंध’ का संकेत?]

वसंतसेना—(सिर हिलाकर मन ही मन हँसती है) बुलाओ।

शर्विलक—(मदनिका के साथ वसंतसेना के पास पहुँचकर घबराया हुआ) आर्ये, कल्याण हो। 

वसंतसेना—आर्य, वसंतसेना आपको प्रणाम करती है। आसन ग्रहण करें। 

शर्विलक—सेठ ने आपसे निवेदन किया है कि घर जर्जर होने से आभूषणों की रक्षा दुस्तर है। इन्हें आप ग्रहण करें। (मदनिका को आभूषण देकर जाने को होता है।) 

वसंतसेना—आर्य, मेरा प्रति-संदेश भी लेते जाएँ।

शर्विलक—(स्वगत) अब उनके [चारुदत्त के] यहाँ कैसे जाऊँगा? (प्रकट) प्रति-संदेश क्या है? 

वसंतसेना—मदनिका को पत्नी के रूप में ग्रहण करें। 

शर्विलक—आर्ये, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। 

वसंतसेना—किंतु मैं समझ रही हूँ।

शर्विलक—क्या? 

वसंतसेना—आर्य चारुदत्त ने मुझसे कहा है--‘आभूषण पहुँचानेवाले को अपनी मदनिका सौंप देना।‘  

शर्विलक—(स्वगत) तो इन्हें सब कुछ पता है! (प्रकट) धन्य हो आर्य चारुदत्त, धन्य हो। 

मनुष्य को सदा सद्गुणों के लिए प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि  दरिद्र गुणी भी निर्गुण धनाढ्य से श्रेयस्कर है। क्योंकि गुणवानों के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं, गुणाधिक्य के कारण ही चंद्रमा शंकर के दुर्लंघ्य मस्तक पर आरूढ हैं।
.......
(क्रमश:)

कमला कांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (4) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/4.html 


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