Tuesday, 23 August 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (7)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र—II
विदूषक, वसंतसेना और चारुदत्त  

मृच्छकटिकम्‌ का पंचम अंक वसंतसेना और चारुदत्त के सांगोपांग मिलन का है। दोनों के बीच की शंकाओं, ग़लतफ़हमियों के शमन का भी। संयोग शृंगार के चरमोत्कर्ष का भी। उसके बाद यह स्थिति सम पर आकर अपनी मर्यादित गति से षष्ठम अंक में भी चलती है। किंतु उस अंक के अंतिम दृश्य में अनजाने हुई एक सामान्य-सी भूल के कारण सब कुछ उलट-पलट जाता है। दोनों अतिशय त्रासद विडंबनाओं का शिकार बनकर जीवन की टेढ़ी-मेढी, अंध गलियों में खो जाते हैं। नाटक के शेष चार अंक कथा की इसी तिर्यक्‌ गति के विस्तार हैं। यहाँ तक कि परस्पर सम्बंधित किंतु अलग-अलग कारणों से दोनों का मृत्यु से आसन्न और अवश्यंभावी साक्षात्कार तक होता है। चारुदत्त की पतिव्रता पत्नी धूता भी सती होने को तत्पर है। अंतत: नाटकांत (दशवें अंक के अंतिम दृश्य) में उनके पुनर्मिलन का अवसर उपस्थित होता है। वसंतसेना के औदात्य और त्याग से अभिभूत चारुदत्त की पत्नी उसे बहन की तरह स्वीकार कर, उसका आलिंगन करती है और वसंतसेना को चारुदत्त की ‘वधू’ बनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। अतिशय विषम स्थितियों के झंझावात से निकलकर ही उनका मंगलकारी फलित प्रकट होता है। नाटक का सर्वहितकारी सुखांत।    

चतुर्थ अंक के अंत में ही बादलों के उमड़ने से उद्दीपन का संकेत मिल गया था। किंतु ये ग्रीष्म ऋतु में असमय छाए बादल थे जिनमें उद्दीपन के हासिल की संकटापन्न नियति का भी संकेत निहित था। जो भी हो, विदूषक द्वारा दिया गया रत्नहार चारुदत्त को लौटाने के व्याज  से वसंतसेना को उससे मिलने का अवसर अकस्मात्‌ उपस्थित हो गया। वह पहले से ही इस मिलन के लिए बेहद उत्सुक थी। लिहाज़ा, अपने प्रेमोन्माद में उसने उमड़ते बादलों, अंधेरी रात और धारासार वारिश की बाधाओं को दरकिनार कर अपनी अभिलाषा-पूर्ति के लिए एक दु:साहसिक क़दम उठा लिया।   

वसंतसेना के इस दु:साहस से रचनाकार को रात्रिकालीन धारासार बारिश के माध्यम से वर्षा ऋतु के प्राकृतिक और शृंगाराश्रयी जैविक दोनों तरह के सौंदर्य-वर्णन का अवसर मिल जाता है, जो कथा-प्रवाह की क्षिप्रता के मूल्य पर दूर तक चलता है। भारवि और माघ जैसे महाकवियों ने ऋतु-वर्णन के तहत प्राकृतिक और प्रकृति के मानवीकृत—शृंगारिक--दोनों तरह के सौंदर्य का विशद वर्णन अपने महाकाव्यों में किया है। कालिदास ने ऋतुसंहारम्‌ नाम से इसके लिए एक छोटा महाकाव्य अलग से लिखा है। किंतु मृच्छकटिकम्‌ के नाटककार की किसी अन्य कृति का सुराग़ नहीं मिलता। तो, लगता यही है कि महाकाव्य-प्रणेताओं से उत्प्रेरित नाटककार ने जैसे-तैसे इस नाटक में ही विस्तृत वर्षा-वर्णन का अवसर निकाल लिया है, जो चारुदत्त, वसंतसेना और उसके साथ चलनेवाले विट (गीत-संगीत एवं काव्यकला में प्रवीण, गणिका के साथ रहनेवाला उसका प्रशिक्षक) के संवादों में गुंफित है। [कथाविन्यास में बाधक होने से इस विषद वर्णन को बस यत्र-तत्र छूकर निकल लिया गया है।]

पंचम अंक का प्रथम दृश्य। काले-काले बादलों से घिरे आसमान की ओर देखता चारुदत्त अपने उद्यान में आसन पर बैठा दिखाई पड़ता है। वह सोच रहा है--मैत्रेय को वसंतसेना के यहाँ गए काफ़ी देर हो गई, वह अभी तक लौटा नहीं! तभी विदूषक का प्रवेश होता है। 

[संवादों के यत्र-तत्र संक्षिप्तीकरण के साथ भावानुवाद]  

विदूषक— (मंच पर आकर, चारुदत्त से थोड़ी दूर खड़े होकर, स्वगत) अरे, गणिका वसंतसेना का लोभ और उसकी कृपणता तो देखिए। आभूषणों के सिवा उसने किसी और चीज़ पर बात ही नहीं की। बिना कुछ बोले तिरस्कार भाव से रत्नहार ग्रहण कर लिया। अपार वैभव होते हुए भी उसने एक बार भी नहीं कहा—आर्य मैत्रेय, थोड़ा विश्राम कर लीजिए, कम से कम पानी पीकर तो जाइए। ऐसी नीच गणिका का तो मुँह तक नहीं देखना चाहिए। (दु:खी होकर) ठीक ही कहा है, बिना जड़ की कमल-लता, बिना ठगे व्यापार करनेवाला वणिक, बिना सोना चुराए काम करनेवाला  स्वर्णकार, बिना झगड़े की ग्राम-पंचायत और बिना लोभ की गणिका--इनका मिलना कठिन है। (घूमकर चारुदत्त को देखता है। उसके समीप जाकर) आपका कल्याण हो, श्रीमान्‌ ।

चारुदत्त—(देखकर) अरे मित्र, आ गए। आइए--आइए, बैठिए। 

विदूषक—लीजिए, बैठ गया। 

चारुदत्त—अब बताइए, काम हो गया?  

विदूषक—मित्र, काम तो बिगड़ गया। 

चारुदत्त—क्या? रत्नहार नहीं लिया उन्होंने? 

विदूषक—हम लोगों का इतना भाग्य कहाँ? नये खिले कमल-जैसी कोमल हथेलियाँ बढ़ाकर ले  लिया। 

चारुदत्त—तब क्यों कहते हो कि काम बिगड़ गया? 

विदूषक—क्यों नहीं बिगड़ा? कम क़ीमत के जो आभूषण हमारे किसी उपयोग में आए बिना चोरी चले गए, उनके बदले हमने चारों समुद्रों का सारभूत इतना क़ीमती रत्नहार गँवा दिया।

चारुदत्त—ऐसा मत कहो मैत्रेय। (पहले का जवाब दुहराता है।) उन्होंने जिस विश्वास के साथ आभूषणों को हमारे यहाँ रखा था, उस विश्वास की क़ीमत चुकाई गई, आभूषणों की नहीं।

विदूषक—मित्र, मेरे दु:ख का एक कारण और है। अपनी सहेलियों से इशारे में कुछ कहकर और आँचल से मुँह ढककर उसने मेरी हंसी भी उड़ाई। इसलिए, ब्राह्मण होते हुए भी, मैं तुम्हारे चरणों में माथा टेककर विनती करता हूँ कि इस पापरूप गणिका-प्रसंग से अलग हो जाओ। गणिका उस छोटे किंतु कठोर कंकड़ की तरह होती है जो एक बार पादुका (जूते) में घुस जाए तो बड़ी मुश्किल से निकलता है। अरे मित्र, गणिका, हाथी, कायस्थ, भिखारी, शठ और गधे जहाँ  रहते हैं, सज्जन लोगों को तो छोड़िए, दुष्ट भी वहाँ नहीं फटकते।

चारुदत्त—मित्र, इस निंदा-पुराण से क्या लाभ! इस समय अपनी निर्धनता के कारण मैं स्वत: उनसे दूर हूँ। देखो--        

घोड़े तेज़ दौड़ने को आकुल रहते हैं। किंतु थक जाने पर तेज़ दौड़ नहीं पाते। उसी तरह मनुष्य का चंचल मन सभी दिशाओं में दौड़ता है किंतु साधनहीन होने पर सिकुड़कर हृदय में लौट आता है। 

और भी—

जिसके पास धन है, वसंतसेना उसी की है, क्योंकि गणिका तो धन के ही वश में होती है। 

(स्वगत) नहीं, वसंतसेना तो गुण से भी वश में होती है।

(प्रकट) हम दरिद्र हैं, इसलिए हमारे लिए तो वह स्वत: परित्यक्ता हो गई।

विदूषक—(स्वगत) यह ऊपर की ओर देखते हैं, फिर लम्बी साँस खींचते हैं। लगता है, मेरे मना करने से इनकी उत्कंठा और बढ़ गई है। ठीक ही कहा गया है—काम हमेशा कहे हुए के प्रतिकूल चलता है। (प्रकट) मेरे मित्र, उसने मेरे चलते समय कहा था कि चारुदत्त को बता देना, आज सूर्यास्त के बाद मैं उनसे मिलने आ रही हूँ। मैं सोच रहा हूँ, रत्नमाला से उसे संतोष नहीं हुआ, वह कुछ और माँगने आ रही है।

चारुदत्त—मित्र, आने दो। संतुष्ट होकर जाएँगीं। 

तभी वसंतसेना का सेवक कुम्भीलक मंच पर प्रकट होता है।

सेवक—आर्या वसंतसेना ने कहा है, जाकर आर्य चारुदत्त को मेरे आगमन की सूचना दे दो। तो चारुदत्त के घर चलता हूँ। (घूमकर चारुदत्त के द्वार के छेद पर आँख लगाकर झाँकता है) यह रहे आर्य चारुदत्त। उद्यान में बैठे हैं। साथ में दुष्ट ब्राह्मण विदूषक भी है। लेकिन उद्यान का द्वार तो बंद है। तो दुष्ट ब्राह्मण को ही संकेत करता हूँ। (उसके ऊपर कंकड़ फेंकता है।) 

काफ़ी देर के खिलवाड़ के बाद विदूषक निकलकर कुम्भलीक के पास जाता है। वह अपने विनोदपूर्ण करतबों से विदूषक को बहुत भरमाने के बाद ही बताता है कि वसंतसेना आई हैं। 

विदूषक (चारुदत्त के पास लौटकर) मित्र, आपके महाजन आए हैं। 

चारुदत्त—हमारे ख़ानदान में महाजन कौन है?

विदूषक—ख़ानदान में हो, न हो, दरवाज़े पर तो है...वसंतसेना। 

चारुदत्त—(विश्वास नहीं होता) क्यों खिझलाते हो मित्र? 

विदूषक—अरे, मुझ पर विश्वास नहीं तो उसके सेवक कुम्भलीक से पूछ लो...अरे वो दासीपुत्र, ज़रा इधर आ।

सेवक—(पास आकर) आर्य, प्रणाम करता हूँ। 

चारुदत्त—भद्र, स्वागत है। क्या सचमुच वसंतसेना आई हैं?

सेवक—जी हाँ, आई हैं।

चारुदत्त—(प्रसन्न होकर) मैंने शुभ समाचार लानेवाले को कभी यूँ ही नहीं लौटाया। यह इनाम लो (अपना उत्तरीय उतारकर दे देता है।)

सेवक—(लेकर, संतोष के साथ प्रणाम करता है) चलूँ, आर्या वसंतसेना को सूचित कर दूँ (निकल जाता है।)

शुभ्र अभिसारिका के वेश में वसंतसेना, छत्रधारिणी दासी और विट का प्रवेश। धारासार बारिश हो रही है। घुप अँधेरा है। बादल गरज रहे हैं। बीच-बीच में बिजली चमक जाती है। विट और वसंतसेना के बीच वर्षा के काव्यात्मक, शृंगारिक वर्णन के लम्बे संवाद चलते हैं। अंत में बिजली चमकने से ही ज्ञात होता है कि चारुदत्त का घर आ गया। 

विट--(वसंतसेना से) सभी कलाओं में तुम स्वयं पारंगत हो, तुम्हें कुछ सिखाना उचित नहीं। फिर भी मेरा स्नेह कुछ कहने को विवश कर रहा है। चारुदत्त के यहाँ तुम्हें अधिक क्रोध नहीं करना चाहिए। अधिक क्रोध से अनुराग नहीं जगता। किंतु थोड़े क्रोध के बिना रति-सुख भी नहीं मिलता। तो पहले थोड़ी क्रुद्ध होकर प्रेमी को भी थोड़ा क्रुद्ध कर दो, फिर मान-मनौअल से प्रसन्न हो जाओ और प्रेमी को भी प्रसन्न कर लो।

अब चारुदत्त को इस तरह सूचित करो-- 

आछ्न्न बादलों से सुशोभित इस वर्षाकाल में, कदम्ब और अशोक के फूलों की सुगंध से तर, कामपीड़िता, प्रसन्नवदना, बारिश से भीगे बालों वाली वसंतसेना अपने प्रियतम के घर आई है। बिजली की चमक और बादलों के गर्जन से आक्रांत, प्रिय-मिलन के लिए उत्सुक, अपने पायलों में लगे कीचड़ को धोती हुई दरवाज़े पर खड़ी है। 

[किंतु वसंतसेना को सूचित नहीं करना पड़ता।]

चारुदत्त--(विट की अस्पष्ट आवाज़ सुनकर, विदूषक से) मित्र, पता लगाओ, यह कैसी आवाज़ है। 

विदूषक—जैसी आपकी आज्ञा। (वसंतसेना के पास जाकर, सम्मानपूर्वक) आपका कल्याण हो। 

वसंतसेना—आर्य को प्रणाम करती हूँ। आपका अभिनंदन। (विट को सम्बोधित कर) अब यह छत्रधारिका दासी आपको सौंपती हूँ। 

विट—(स्वगत) बहुत कुशलता से मुझे घर लौटने को कह दिया। (प्रकट) ऐसा ही होगा। 

जो गर्व-मिश्रित छल, कपट और माया की जन्मभूमि है, धूर्तता जिसकी आत्मा है, कामोत्सव  जिसका घर है, संभोग-सुख जिसका संचय है, गणिका रूपी बाज़ार की जो विक्रय-वस्तु है उस यौवन का विनिमय करो। इसी में तुम्हारी सिद्धि हो। 

(विट का बिना दासी के प्रस्थान)

वसंतसेना—आर्य मैत्रेय, आपके जुआड़ी महाराज कहाँ हैं? 

विदूषक—(स्वगत) वाह, इसने जुआड़ी शब्द को मित्र चारुदत्त के लिए जैसे अलंकार बना दिया है! (प्रकट) महोदया, वे तो शुष्कवृक्षवाटिका में बैठे हैं। 

वसंतसेना—यह शुष्कवृक्षवाटिका क्या बला है? 

विदूषक—महोदया, जहाँ न कुछ खाया जाता है, न पिया जाता है। 

(वसंतसेना अपने व्यंग्य का प्रत्युत्तर पाकर मुस्कराकर रह जाती है।) 

विदूषक—तो महोदया प्रवेश करें।

वसंतसेना—(दासी की ओर घूमकर) हाय, उनके सामने जाकर कहूँगी क्या? 

दासी—यही कि जुआड़ी जी, आपकी यह शाम सुखद तो है?

वसंतसेना—ऐसा कह पाऊँगी? 

दासी—समय कहला देगा।

विदूषक—आप भीतर तो चलें। 

वसंतसेना—(भीतर आकर, अनुकूलता सूचित करने के लिए चारुदत्त पर फूल फेंकती है) ओ जुआड़ी जी, आपकी यह शाम सुखद तो है? 

चारुदत्त—(देखकर) अरे, आ गई वसंतसेना! (ख़ुशी से उठकर) आओ प्रिये। 

मेरी हर शाम लम्बी साँस भरते और हर रात जागते बीतती है। विशाल नेत्रोंवाली वसंतसेने, आज तुम्हारे साथ होने से मेरी शाम ज़रूर राहत देगी।

आओ, तुम्हारा स्वागत है। इस आसन पर बैठो। 

(वसंतसेना के बैठने पर सभी यथास्थान बैठ जाते हैं।)  

चारुदत्त--(विदूषक से) मित्र, देखो तो—

(वसंतसेना के) कर्णांत से लटके कदम्ब के फूल से टपकती वर्षा-जल की बूँदें एक वक्ष को उसी तरह अभिषिक्त कर रही हैं, जैसे राजसिंहासन पर बैठे युवराज को अभिषिक्त किया जाता है।

तो मित्र, वसंतसेना के सारे कपड़े भीग गए हैं। इनके लिए अन्य उपयुक्त परिधान ले आओ।

विदूषक—जैसी आपकी आज्ञा। 

दासी—आर्य मैत्रेय, आप बैठे रहें। मैं ही इनकी मदद करती हूँ। (तदनुरूप करती है।)

विदूषक—(अपवारित=चारुदत्त की ओर मुँह करके, ताकि वसंतसेना और दासी न सुन सकें ) मित्र, मैं इनसे कुछ पूछना चाहता हूँ। 

चारुदत्त—पूछो। 

विदूषक—(वसंतसेना से) इस चंद्रविहीन, बादलों के घटाटोप से घनघोर अँधेरी रात में आपका आना कैसे हुआ। 

दासी—(वसंतसेना से) आर्ये, ये तो बहुत भोले (काम-व्यवहार से अनजान) ब्राह्मण मालूम होते हैं।

वसंतसेना (दासी से), भोले नहीं, चालाक कहो। 

दासी—आपने जो रत्नहार दिया है, उसकी क़ीमत क्या है, यही पूछने आर्या यहाँ आई हैं। 

विदूषक—(जनान्तिक=उँगलियों की मुद्रा विशेष से वसंतसेना को सुनने से वंचित करते हुए) मैंने तो पहले ही कहा था, इनके अनुसार रत्नहार इनके स्वर्णाभूषणों से कम मूल्य का है। वही वसूलने आई हैं। 

दासी—उस रत्नहार को अपना समझकर आर्या जुए में हार गईं। और जुआघर का अध्यक्ष पता नहीं कहाँ चला गया। 

विदूषक—महोदया, रत्नहार देते समय मैंने (आभूषणों के बारे में) जो-जो कहा था, आप (रत्नहार के बारे में) वही दुहरा रही हैं।

दासी—जब तक उस अध्यक्ष को खोजा जा रहा है, आप इस स्वर्णमंजूषा (दिखाकर) को अपने पास रख लीजिए।

(विदूषक मंजूषा को ध्यान से देखते हुए कुछ सोचने लगता है)

दासी—आप तो इसे आँख गड़ाकर देख रहे हैं। क्या इसे आपने पहले कभी देखा है? 

विदूषक—महोदया, मैं तो इसकी कुशल कारीगरी देख रहा हूँ। 

दासी—आर्य, आपकी आँखें धोखा दे रही हैं। यह वही आभूषण-मंजूषा है।

विदूषक—(ख़ुश होकर) मित्र (चारुदत्त), यह तो वही आभूषण-मंजूषा है जिसे हमारे घर से चोर ने चुराया था।

चारुदत्त—स्वर्ण-मंजूषा की धरोहर (के बदले रत्नहार लौटाने) के लिए हमने जो कपट किया था,  रत्नहार के सम्बंध में वही इसने भी उपस्थित किया है। किंतु यह मात्र छलावा है, सच नहीं। 

विदूषक—मित्र, मैं अपने ब्राह्मणत्व की शपथ खाकर कहता हूँ, ये वही आभूषण हैं। 

चारुदत्त—यह तो हमारे लिए प्रिय ख़बर है। 

विदूषक—(जनांतिक) मैं इससे पूछता हूँ कि ये मिले कहाँ। 

चारुदत्त—पूछने में कोई दोष नहीं। 

विदूषक—(दासी के कान में) क्या ऐसी बात है (हमारे घर से चुराकर किसी ने इन्हें दे दिया)? 

दासी—(विदूषक के कान में) हाँ, ऐसा ही है। 

चारुदत्त—आप दोनों कानाफूसी क्यों कर रहे हैं? क्या हम पराये हैं? 

विदूषक--(चारुदत्त के कान में) बात ऐसी है।

चारुदत्त—(दासी से) भद्रे, क्या यह बात सही है? 

दासी—हाँ आर्य, ये वही आभूषण हैं।

चारुदत्त—(दासी से) मैंने कभी किसी के प्रियवचन को ख़ाली नहीं जाने दिया। लो, यह अँगूठी तुम्हारा इनाम है। (हाथ में अँगूठी न पाकर लज्जित हो जाता है।)  

वसंतसेना—(स्वगत) इसीलिए तो तुम मेरे इतने प्रिय हो। 

चारुदत्त—(जनांतिक) हाय, कष्ट है।

निर्धन मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है। किसी पर ख़ुश होकर न उसे कुछ दे सकता है, न नाराज़ होकर उसका कुछ बिगाड़ सकता है।

और भी—

संसार में दरिद्र का जीवन पंखहीन पक्षी, सूखे पेड़, जलहीन तालाब एवं विषदंत-विहीन साँप की तरह होता है।

विदूषक—(स्वगत) अब इतना पछताने से क्या लाभ! (प्रकट) (हँसी में) महोदया, अब तो हमारी स्नान की साड़ी (जिसमें रखकर रत्नहार दिया गया था) लौटा दीजिए (निहितार्थ रत्नहार लौटा दीजिए)।

वसंतसेना—आर्य चारुदत्त, रत्नहार भेजकर आपने इस प्राणी को तौलने की कोशिश की। यह उचित नहीं था। 

चारुदत्त—(सलज्ज मुस्कराकर) देखो वसंतसेने, हमारी बात (कि आभूषण चोरी हो गया) पर कौन विश्वास करता? इस संसार में दरिद्रता सभी संदेहों का घर है।

विदूषक—दासी जी, क्या आपकी स्वामिनी आज रात यहीं सोयेंगी? 

दासी—(हँसकर) आर्य मैत्रेय, आप इतने भोले क्यों बन रहे हैं?

विदूषक--(चारुदत्त से) मित्र, देख नहीं रहे, सुख से बैठे लोगों को दूर करते ये बादल बढ़ती हुई बारिश के साथ घिर आए हैं?

चारुदत्त—ठीक कहते हो मित्र। 

[दो श्लोकों में हो रही बारिश की प्रचंडता का वर्णन करता है। फिर वसंतसेना को सम्बोधित करता है] 

प्रिये, देखो तो--

समागम की प्रबल कामना से स्वत: उपस्थित होकर यह अनुरक्त प्रियतमा रूपी बिजली पत्थर पर कूटकर पीसे हुए ताड़-पत्तों के चूर्ण से बने लेप से उसी रंग के दिखते इन काले बादलों से लिपटकर शीतल, सुगंधित सांध्यपवन द्वारा पंखा झले जाते हुए, आकाशरूपी प्रियतम का आलिंगन कर रही है।

(वसंतसेना शृंगार भाव से आप्लावित होकर चारुदत्त का आलिंगन करती है।)

चारुदत्त—(स्पर्श का अनुभवकर प्रति-आलिंगन करता है) हे मेघ, तुम और ज़ोर से गर्जन करो। तुम्हारी कृपा से काम-पीड़ित मेरी देह वसंतसेना के संपर्क से रोमांचित हो उठी है। लगता है जैसे कदम्ब-वृक्ष खिले हुए फूलों से लद गया हो। 

विदूषक—अरे दासीपुत्र मेघ, तुम बहुत अनार्य हो। यहाँ उपस्थित वसंतसेना महोदया को अपनी बिजली से अकारण डरा रहे हो। 

चारुदत्त—मित्र, इस तरह मेघ को उलाहना देना उचित नहीं। मेरे जैसे निर्धन के लिए दुष्प्राप्य वसंतसेना ने इसी दुर्दिन (मेघाच्छन्न दिन) के कारण मेरा आलिंगन किया है।

और भी—

उन्हीं लोगों का जीवन धन्य है जिनके द्वार पर वर्षा से भीगी कोई कामिनी स्वेच्छा से उपस्थित हो जाए और अपनी भीगी, शीतल देह उनकी बाहों में देकर, उसे ऊष्मायित करने का अवसर प्रदान करे।

(ऊपर की ओर देखकर) 

अरे प्रिये, देखो, देखो--इंद्रधनुष!

लगता है जैसे मेघ नहीं बरस रहा, आकाश ने मुँह खोलकर जँभाई ली है। जैसे लाल-लाल बिजलियाँ इसकी जिह्वा हों, इंद्रधनुष इसकी विशाल बाहें हों और मेघ का विस्तार ही इसकी दाढ़ी हो। 

इसलिए चलो, हम अब भीतर चलें। (उठकर घूमता है।) 

वर्षा की धारा ताड़ के पत्तों पर तेज़, पेड़ों की शाखाओं पर गम्भीर और पत्थर की चट्टानों पर कर्कश आवाज़ कर रही है। जल के ऊपर प्रचंड गति से बजाई गई वीणा की ध्वनि उत्पन्न कर रही है। इस तरह वर्षा की धाराएँ संगीत के ताल और लय के साथ गिर रही हैं।

पंचम अंक का पटाक्षेप।
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
(Kamalakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (6) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/6.html 


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