शताब्दियों से राम का चरित्र भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के शिक्षित-अशिक्षित, बालक-वृद्ध सब के अदम्य आकर्षण का केंद्र रहा है। राम भारत के सांस्कृतिक वातावरण में इस कदर घुले-मिले हुए हैं कि उनके जीवन और चरित्र के बारे में जानने के लिए कभी किसी को प्रयास नहीं करना पड़ता। वह उसे सहज रूप से संस्कार के रूप में मिलता है। किसी को यह याद नहीं रहता कि उसे पहली बार कब राम के बारे में कुछ जानने या सुनने को मिला था। होश सँभालते ही उसके मस्तिष्क में राम के जीवन के विविध प्रसंग कब और कैसे घर कर जाते हैं, यह कोई नहीं बता सकता।
कवियों, कथाकारों और पुराणिकों में प्राचीन काल से राम की कथा कहने की बहुत समृद्ध और विविध परंपरा रही है। राम कथा अनगिनत बार अनगिनत कवियों की लेखनी और वाणी से सृजित-पुनर्सृजित हुई। फिर भी, कभी न इसका आकर्षण कम हुआ और न ही इसकी रचनात्मक संभावनाएँ समाप्त हुईँ। शास्त्रीय और लोक, दोनों काव्य-परंपराओं में राम सतत रूप से ऐसे नायक के रूप में मौजूद रहे हैं जिनकी कथा कहने से कवियों को यश-लाभ मिलता रहा है। उनकी लेखनी अपने को धन्य मानती रही है। उनके लिए राम काव्य का निकष रहे हैं।
यह राम का आकर्षण ही रहा है जिसकी वजह से अनगिनत भाषाओं में अनगिनत रामकथाओं का सृजन होता रहा है। एक ही कथा को अनेक भाषाओँ और काव्य-परंपराओं में इतनी विविधता और विशदता के साथ कहने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। तमाम शोधों के बावजूद यह निर्धारित करना आज भी बहुत मुश्किल काम है कि राम के कितने चरित तैयार किये गये हैं और राम-कथा कहने की कितनी शैलियाँ रही हैं। महाकाव्य, उपन्यास, आख्यायिका, कविता, नाटक, कहानी और अन्य सभी कला-रूपों में राम की कथा कही जाती रही है। इसका पूरा हिसाब लगाना बहुत दुष्कर है। रामकथा की विविधता और बहुलता के कारण ही तुलसीदास ने कहा होगा- ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’। बेशक राम का चरित्र अनंत है और उनका चरित-गान भी।
आधुनिक इतिहासकारों और अकादमिक बुद्धिजीवियों में राम कथा की विविध परंपराओं और शैलियों के शोध व निर्धारण का आकर्षण कम नहीं रहा है। इतिहासकार एके रामानुजन ने रामकथा की बहुलता का अध्ययन करनेवाले अपने प्रसिद्ध लेख का नाम ही ’थ्री हंड्रेड रामायनाज’ रखा है। वे रामकथा की शैली और परंपरा की बहुलता और विविधता को इतिहास के अनुशासन में रखकर रेखांकित करते हैं।1 ‘रामायन सत कोटि अपारा’- तो स्वयं तुलसीदास कह गये हैं।
प्रेमचंद सामयिकता के कथाकार थे। इतिहास और पुराण के साहित्यिक पुनर्लेखन में उनकी कोई खास रूचि नहीं थी। इसका कारण उनकी यह धारणा थी कि इतिहास का साहित्यिक रूपांतरण ठीक-ठीक सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है, “... न जाने क्यों मेरी यह धारणा हो गयी है कि हम आज से दो हजार वर्ष पूर्व की बातों और समस्याओं का चित्रण सफलता के साथ नहीं कर सकते। मुझे यह असंभव-सा मालूम होता है।”2 दूसरा कारण यह है कि इतिहास की तुलना में वे वर्तमान समस्याओं पर लिखने को अधिक उपयोगी और लाभदायक मानते थे। जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक ‘स्कंदगुप्त’ की अपनी समीक्षा में वे उन्हें परामर्श देते हुए लिखते हैं, “हम प्रसाद जी से यहाँ निवेदन करेंगे कि आपको ईश्वर ने जो शक्ति दी है, उसका उपयोग वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के हल करने में लगाइए। स्टेज का आज यही ध्येय माना जाता है। इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने में आज कोई फायदा नहीं है।”3 प्रेमचंद की इतिहास की इस उपयोगितावादी समझ की अपनी समस्याएँ हैं। फिर ये कुछ प्रकट कारण हैं जिनकी वजह से वे अपने समय और समाज की ही कथा कहने को प्राथमिकता देते थे। उपन्यास और कहानी उनकी दो प्रिय विधाएँ थीं। इन्हीं में उनका लगभग संपूर्ण साहित्य रचा गया है। कहने की जरूरत नहीं कि उपन्यास अपनी प्रकृति में ही वर्तमान केन्द्रित साहित्य रूप है।
किसी भी साधारण भारतीय हिंदू की तरह प्रेमचंद के मन में भी राम के लिए अत्यंत सम्मान और आकर्षण था। बचपन में रामलीला के माध्यम से वे राम के चरित्र के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े थे। इस जुड़ाव की अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी ‘रामलीला’ नामक कहानी में की है। हो सकता है कि बचपन में वे राम को ईश्वरीय चरित्र मानते रहे हों और उनके प्रति उसी के अनुरूप आस्था और भक्ति रखते रहे हों लेकिन उनके लेखन से यह स्पष्ट होता है कि राम के प्रति उनके आकर्षण का कारण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक है। वे ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को दुनिया की श्रेष्ठतम साहित्यिक कृतियाँ मानते हैं। इनके रचयिताओं के चरित्र-विधान की वे प्रशंसा करते हैं। इन कवियों ने मनुष्यता के विविध तनावों और रूपों से संवलित ऐसे चरित्र गढ़े हैं जो विश्व साहित्य की अक्षय निधि हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के कवियों की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं, “उन्होंने हमारी आँखों के सामने, इसलिए कि हम उन्हें अपने जीवन का आदर्श बनाएँ, पूर्ण मनुष्य उपस्थित कर दिये हैं जो केवल निर्जीव-निस्पंद चित्र नहीं बल्कि जीते-बोलते पूर्ण मनुष्य हैं। ऐसे पूर्ण मनुष्य शेक्सपियर और दाँते, होमर और वर्जिल, निज़ामी और फिरदौसी की कल्पना की परिधि से बहुत ऊँचे हैं।”4 इतनी महानतम् रचनाओं के इतने महानतम् पात्रों के प्रति प्रेमचंद की ही नहीं किसी का भी भावनात्मक जुड़ाव और आकर्षण स्वाभाविक ही है। इसी आकर्षण से ओत-प्रोत होकर प्रेमचंद राम के विराट और महान चरित्र के बारे में एक जगह और लिखते हैं, “रामचंद्र निश्चय ही उच्चतम मानवता के उदाहरण थे।”5 ‘रामचर्चा’ के अंत में पूरा -का- पूरा एक अनुच्छेद ही वे राम की महिमा के बारे लिख पड़ते हैं, “उनके जीवन का अर्थ केवल एक शब्द है, और उसका नाम है ‘कर्तव्य’। यह उनकी कर्तव्य-परायणता का प्रसाद है कि सारा भारत उनका नाम रटता है और उनके अस्तित्व को पवित्र समझता है। इसी कर्तव्य-परायणता ने उन्हें आदमियों के समूह से उठाकर देवताओं के समकक्ष बैठा दिया। यहाँ तक कि निन्यानवे प्रतिशत हिंदू उन्हें आराध्य और ईश्वर का अवतार समझते हैं।”6
ऐसी व्यापक और लोकप्रिय रामकथा और राम के ऐसे महानतम् चरित्र से हिंदी जाति का सबसे बड़ा कथाकार अछूता रह जाता, यह कैसे संभव था! किसी-न किसी रूप में राम उनकी रचनात्मकता में आने ही थे। उन्होंने कोई उपन्यास तो नहीं लिखा और न ही नाटक या कहानी लिखी पर बाल-साहित्य के अंग के रूप में उन्होंने ‘राम-चर्चा : श्री रामचंद्रजी की अमर कहानी’ नाम से राम का संक्षिप्त गद्यबद्ध चरित जरूर लिखा। जो पुस्तक के आकार के करीब सौ पन्नों में फैला है। ‘राम-चर्चा’ 1938 में सरस्वती प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक को लिखने के पीछे उनका उद्देश्य था, नयी पीढ़ी, विशेषरूप से बच्चों को राम की कहानी से परिचित कराना। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, “तुम वाल्मीकि या तुलसीदास की किताबें अभी नहीं समझ सकते। इसलिए हमने रामचंद्र के हालात तुम्हारे लिए आसान इबारत (लेख) में लिखे हैं।”7 प्रेमचंद राम को एक ‘लासानी बुजुर्ग’ कहते हैं, जिसे हिंदी में ‘अद्वितीय पूर्वज’ कह सकते हैं। वे मानते थे कि नयी पीढ़ी को राम की कहानी से शिक्षा मिल सकती है। प्रेमचंद के लिए राम के चरित्र से सबसे बड़ी शिक्षा कर्तव्य-परायणता की मिलती है। ‘राम-चर्चा’ के अंत में वे बच्चों से राम के चरित्र से कर्तव्य-परायण होने की शिक्षा लेने की अपील करते हैं, “लड़को! तुम भी कर्तव्य को प्रधान समझो। कर्तव्य से कभी मुँह न मोड़ो।”8
तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ को सात कांडों में विभाजित किया है- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड। प्रेमचंद ने भी ‘रामचर्चा’ को इन्हीं कांडों में विभाजित किया है। जाहिर है, उन्होंने अध्याय-योजना तुलसीदास से ज्यों-की-त्यों ली है। इन कांडों के भीतर 34 उप-अध्याय भी बनाये हैं जो उनकी अपनी मौलिकता है। यानी कि प्रत्येक कांड को प्रेमचंद ने उप-अध्यायों में बाँटा है। घटनाओं के साथ-साथ प्रमुख पात्रों के नाम पर भी उप-अध्याय बनाये गये हैं। इतनी वृहद एवं विशद कथा को प्रेमचंद की सारग्रही प्रतिभा ने किसी प्रसंग को छोड़े बिना संक्षेप में प्रस्तुत किया है। रामकथा की उनकी गद्यात्मक पुनर्रचना अत्यंत रोचक और पठनीय है। रामकथा अधिकांशत: पद्यबद्ध है। इसे सामयिक और बोलचाल के गद्य में पढ़ने का अपना सुख है। साथ ही साथ, अपनी भाषा और जीवन-दृष्टि के कारण राम-चर्चा रामकथा का एक आधुनिक और सामयिक पुनर्रचना है।
रामकथा की परंपरा में प्रेमचंद की ‘रामचर्चा’ कई दृष्टियों से विशिष्ट है। पर, प्रेमचंद की संपूर्ण साहित्य पर चर्चा करते समय आलोचक इस किताब की पूर्णतया उपेक्षा करते आये हैं। बाल-साहित्य की चर्चा करते समय भी इस किताब का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। लेखक चाहे जिस आयु-वर्ग के लिए लिखे उसकी विचारधारा, रचना-कौशल और जीवन-दृष्टि अवश्य प्रकट होती है। प्रेमचंद की विचारधारा और जीवन-दृष्टि तथा कला पर बात करते समय उनके पत्राचार, संपादकीय लेखों तक को संदर्भित और विवेचित किया जाता है लेकिन इतनी बड़ी रचना की प्राय: उपेक्षा ही की जाती रही है। संभवत: इसका कारण इसका बाल-साहित्य की श्रेणी में प्रकाशित होना है। कारण जो भी हों लेकिन इस रचना पर आलोचकों की चुप्पी अखरती है। प्रेमचंद पर समग्रता में विचार करते समय इस रचना को भी शामिल करना अनुचित नहीं होता। इस लेख में ‘रामचर्चा’ और रामकथा की परंपरा में उनकी विशिष्टता के अध्ययन की कोशिश की जाएगी।
राम को ऐतिहासिक और साहित्यिक श्रेणियों में बाँटकर देखा जाता रहा है। धार्मिक आस्था के आधार पर एक वर्ग मानता है कि राम धरती पर किसी समय मौजूद थे। दूसरा वर्ग मानता है कि राम के अस्तित्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है बल्कि राम एक काल्पनिक चरित्र हैं जिसे सबसे पहले महाकवि वाल्मीकि ने रचा था। उनकी ‘रामायण’ इतनी प्रसिद्ध हुई कि राम को ईश्वर का अवतार मान लिया गया और एक साहित्यिक रचना धर्म-ग्रंथ बन गयी। प्रेमचंद मनुष्य राम के ईश्वरीकरण पर प्रकाश तो डालते हैं लेकिन उन्हें अनैतिहासिक नहीं मानते। उनकी यह मान्यता ‘रामचर्चा’ की भूमिका के इस वाक्य से ध्वनित होती है, “सबसे पहले ऋषि वाल्मीकि ने रामचंद्र की जिंदगी ही में उनके हालात नज़्म (काव्य) में लिखे।”9 इस तरह प्रेमचंद राम को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं, काल्पनिक या साहित्यिक नहीं। पर राम को ईश्वर मानने में वे संकोच करते हैं जो उनके इस वाक्य से स्पष्ट होता है, “कितने ही लोग तो रामचंद्र को ईश्वर का अवतार समझते हैं, और नजात (मोक्ष) हासिल करने के लिए ‘रामायण’ का रोजाना पाठ करते हैं।”10 लेकिन, 1912 में ‘जमाना’ में छपे अपने लेख ‘रामायण और महाभारत’ में उन्होंने राम को साहित्यिक चरित्र माना है। उनके अनुसार कवियों को राम के चरित्र-चित्रण में इतनी साहित्यिक सफलता और लोकप्रियता मिली कि वे ईश्वर के रूप में समादृत हो गये। राम के चरित्र को साहित्यिक रचना बताते हुए वे लिखते हैं, “कवि को अपने काव्य के लिए बड़ा-से-बड़ा जो प्रतिदान मिल सकता है वह उन कवियों को ने प्राप्त कर लिया यानी उनके कैरेक्टरों को हमने अपना देवता मान लिया।”11 राम के चरित्र को ऐतिहासिक या साहित्यिक मानना या न मानना तर्क और विमर्श का विषय है लेकिन साहित्यिक चरित होते हुए भी उसका प्रभाव किसी ऐतिहासिक चरित्र से कम नहीं है। विशेष रूप से राम के और कुछ अन्य पौराणिक चरित्रों के मामले में ऐतिहासिक बनाम साहित्यिक की बहस निरर्थक हो चुकी है। साहित्यिक रचना होते हुए भी राम ने इतिहास को किसी इतिहास-पुरुष की तुलना में बहुत अधिक प्रभावित किया है।
धार्मिक एवं आस्थावान लोग राम को ऐतिहासिक मानते हैं जबकि सेकुलर विद्वान राम को एक मिथकीय चरित्र मानते हैं। जिनकी कथा को पुनर्रचित करते समय रचनाकार अपने युगीन मूल्यबोध और जीवन-दर्शन को अपने-अपने देश और काल के अनुरूप मूलकथा में जोड़ते रहे हैं। ‘मति अनुरूप राम गुन’ गाते रहे हैं। वाल्मीकि की ‘रामायण’ के राम से भिन्न भवभूति के ‘उत्तर रामचिरतम्’ के राम हैं। वैसे ही तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ के राम से भिन्न निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम हैं। इसी तरह इन सबसे भिन्न प्रेमचंद की ‘राम-चर्चा’ के राम हैं। महात्मा गाँधी को लिखे एक पत्र में जवाहरलाल नेहरू ने ‘रामचरितमानस’ को तुलसीदास की ‘आध्यात्मिक आत्मकथा’ कहा था। ऐसे ही राम-चरित के हर रचनाकार ने राम की कथा में अपनी आत्म-कहानी कही है।12
प्रेमचंद भी अपने युगीन मूल्यबोध, देश-काल और अपनी ‘मति अनुरूप’ राम का गुण गाते हैं। प्रेमचंद की रचनाशीलता उपन्यास एवं कहानी के आधुनिक सेकुलर ‘फॉर्म’ से परिभाषित होती है। जिसमें कथा दैवीय और अप्राकृतिक न होकर ऐहिक और इतिहासबद्ध होती है। प्रेमचंद की ‘राम-चर्चा’ भी इसी रचना और जीवन-दृष्टि से लिखी गयी है। इसके परिणामस्वरूप राम-चर्चा के पात्र ईश्वर व देवी-देवता के रूप में नहीं बल्कि साधारण स्त्री-पुरुष के रूप में आये हैं। घटनाएँ दैवीय और अतिप्राकृतिक नहीं हैं बल्कि वैसी हैं जैसी रोजमर्रा की जिंदगी में घटती हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने राम-चर्चा के माध्यम से रामकथा का आधुनिकीकरण किया है। उसे महाकाव्य के ढाँचे और उसकी जीवन-दृष्टि से निकालकर उपन्यास के ढाँचे और जीवन-दृष्टि में रचा है। ‘रामचरितमानस’ और ‘राम-चर्चा’ के तुलनात्मक पाठ से इसकी विशिष्टता को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
मारीच हिरन का भेष बनाकर छल से राम को बहकाकर कुटी से दूर जंगल में ले जाता है और राम की आवाज में हाय लक्ष्मण! हाय सीता! चिल्लाकर राम के संकट में होने का भ्रम रचता है ताकि लक्ष्मण सीता को अकेले छोड़कर राम को बचाने के लिए निकलें और सीता को रावण आसानी से अपहृत करके ले जाय। मानस में लक्ष्मण कुटी के चारों ओर एक रेखा खींचते हैं ताकि कोई सीता को कोई हानि न पहुँचा सके। यह रेखा लक्ष्मण-रेखा के नाम से प्रसिद्ध है। लेकिन, पंचवटी में लक्ष्मण-रेखा का प्रसंग प्रेमचंद ने हटा दिया है। प्रेमचंद के यहाँ लक्ष्मण सीता की सुरक्षा का कोई उपाय किये बिना राम को खोजने निकलते हैं। लक्ष्मण का चमत्कारी रेखा खींचना प्रेमचंद के आधुनिक चित्त को स्वाभाविक नहीं लगा। इसलिए, उन्होंने इस उपाय को अपनी राम-चर्चा में जगह नहीं दी।
कुछ पूर्ववर्ती रामकथाओं में सीता का हरण करके रावण पुष्पक विमान से लेकर जाता है। प्रेमचंद ने विमान के स्थान पर रथ का विधान किया है। इसी तरह समुद्र पर पुल बनाने के लिए नल-नील को जिम्मा दिया गया। प्रेमचंद ने उन्हें पत्थर पर ‘राम’ लिखकर तैरा देने की दैवीय कृपा से संपन्न व्यक्तियों के रूप में नहीं बल्कि ‘बड़े होशियार इंजीनियर’ के रूप में दिखाया है।
‘राम-चर्चा’ में प्रेमचंद ने न केवल अप्राकृतिक एवं चमत्कारिक घटनाओं को हटाया है बल्कि पशु-पक्षी की योनि में जन्मे पात्रों को भी मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। मानस में ये पात्र पशु-पक्षी होते हुए भी मानव-विवेक से संपन्न हैं। वे मनुष्यों की भाषा बोलते हैं और उन्हीं की भाँति व्यवहार करते हैं जबकि आधुनिक चित्त के लिए इसे यथार्थ मानना संभव नहीं है। इसलिए प्रेमचंद ने पशु-पक्षी नामक पात्रों को शुद्ध मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। जटायु नामक गिद्ध, जो सीता को रावण से मुक्त कराने के प्रयास में घायल होकर मरता है वह ‘राम-चर्चा’ में गिद्ध नहीं बल्कि एक साधु के रूप में आया है। प्रेमचंद उसमें ‘मनुष्यता का धर्म’ देखते हैं। ‘मानस’ के राम की वानरी सेना यहाँ वानरी सेना नहीं है बल्कि मनुष्यों की सेना है। हनुमान भी वानर नहीं बल्कि मनुष्य हैं। रावण जब सीता को लेकर लंका जा रहा था तब पंपासर में ’सीताजी ने देखा कि पहाड़ पर कई बंदरों की-सी सूरत वाले आदमी बैठे हुए हैं।’ बाद में ये ही ‘बंदरों की-सी सूरत वाले आदमी’ राम की सहायता के लिए सेना के रूप में संगठित होते हैं। ‘मानस’ में तुलसीदास इन्हीं को वानर कहते हैं और प्रेमचंद के यहाँ मनुष्य के रूप में आते हैं। बस उनकी सूरत बंदरों से मिलती-जुलती थी। मनुष्य की सूरत बंदरों से मिलती-जुलती तो होती ही है। प्रेमचंद ने उन आदमियों को बंदरों की सूरत से मिलती-जुलती सूरत वाला कहकर मूल कथा का आभास भी बने रहने दिया और उसका आधुनिकीकरण भी कर दिया। इसी तरह, मूल कथा का आभास और आधुनिक दृष्टिकोण एक साथ प्रकट करने के लिए प्रेमचंद लंका-दहन प्रकरण में हनुमान को वानर नहीं दिखाते बल्कि रावण के दरबार में उनका अपमान करने के लिए उनको बंदर बनाकर उनके पीछे पूँछ लगायी जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि ‘मानस’ के पशु-पक्षी-पात्रों में जिन मानवीय गुणों का आरोपण किया गया है प्रेमचंद भी उन मानवीय गुणों से अपने पात्रों को संपन्न रखते हैं। अंतर बस केवल इतना है कि उनमें कोई दैवीय शक्ति और ईश्वरीय वरदान का तत्व नहीं रहने देते हैं।
इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हनुमान का चरित्र है। मानस में हनुमान बलशाली और परम बुद्धिमान रामभक्त हैं। साथ में पवन-पुत्र होने के नाते आकाश में पवन के वेग से उड़ सकने की दैवीय शक्ति से संपन्न हैं। ‘मानस’ में वे उड़ते हुए समुद्र पारकर लंका जाते हैं और लक्ष्मण को मूर्छा से बचाने के लिए उड़कर हिमालय पर्वत से रातों-रात संजीवनी बूटी भी लाते हैं। जबकि प्रेमचंद की ‘राम-चर्चा’ में वे परम बुद्धिमान और बलशाली तो हैं लेकिन आकाश में उड़ने की दैवीय शक्ति उनमें नहीं है। अपने देह-बल के बल पर वे समुद्र तैरकर लंका जाते हैं और एक धावक के रूप में संजीवनी बूटी लाते हैं। प्रेमचंद के शब्दों में हनुमान ‘आँधी की तरह दौड़े’। इस कारण उड़कर लंका जाते समय सुरसा-वध और अयोध्या से ऊपर उड़कर संजीवनी बूटी लेकर लौटते समय भरत के वाण से उनके घायल होने के अति नाटकीय और अति अप्राकृतिक प्रसंग प्रेमचंद के लिए अनावश्यक हो जाते हैं।
रामकथाओं में अनगिनत प्रमुख व अप्रमुख पात्र हैं। पर केन्द्रीय पात्र राम ही हैं। राम के जीवन की कथा को मुकम्मल बनाने के लिए अन्य पात्र रचे गये हैं। राम-चर्चा में भी ऐसा ही है। प्रेमचंद तमाम पात्रों का विकास दिखाते हैं लेकिन ये सब पात्र राम के सहयोगी पात्र हैं। उनकी जीवन-कथा के क्रम में आते-जाते रहते हैं। ‘मानस’ में तुलसीदास राम को ईश्वर के अवतार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कदम-कदम पर याद दिलाते रहते हैं कि राम कोई साधारण मनुष्य नहीं बल्कि ईश्वर के अवतार हैं। उनमें जो साधारणता है वह लीला है। जबकि प्रेमचंद राम के चरित्र को एक साधारण राज-पुरुष के रूप में रखते हैं। पूरी राम-चर्चा में वे कहीं भी यह आभास नहीं देते कि वे राम को ईश्वर का अवतार मानते हैं। राम का चरित्र उन्होंने चमत्कारों और ईश्वरीय छाया से बिल्कुल मुक्त करके प्रस्तुत किया है। उनमें यदि कोई असाधारणता है तो उनकी कर्तव्य-परायणता।
प्रेमचंद ने दैवीय और तर्केतर घटनाओं से राम-कथा को भरसक बचाने की कोशिश की है पर कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें उन्होंने पूर्ववर्ती रामकथाओं से ज्यों-का-त्यों ले लिया है। ऐसा ही एक प्रकरण है सीता की उत्पत्ति का। प्रेमचंद ने भी सीता का प्राकट्य जनक के हल चलाते समय जमीन से दिखाया है। आधुनिक चेतना के लिए यह कल्पना करना असंभव है कि कोई जीवित बच्ची धरती में दबी हुई रहे और अचानक से किसी कारण सजीव बाहर आ जाय। अन्य प्रसंगों को प्रेमचंद ने रेशनलाइज किया है पर इस प्रसंग को बिना छेड़छाड़ के रखा है। सीता-उत्पत्ति या प्राकट्य वे इस तरह दिखाते हैं, “जब वह हल-बैल लेकर खेत में पहुँचे और हल चलाने लगे तो क्या देखते हैं कि फल की नोक से जो जमीन खुद गयी है उसमें एस चाँद-सी लड़की पड़ी हुई है। राजा के कोई संतान न थी, तुरंत इस लड़की को गोद में उठा लिया और घर लाये। उसका नाम सीता रखा, क्योंकि वह फल की नोक से निकली थी।”13 इसी तरह मेघनाथ वध के बाद उसकी पत्नी सुलोचना सती हो जाती है और उसे स्वर्ग मिलता है। यह स्वर्ग-नर्क की कल्पना भी प्रेमचंद के यहाँ स्थान पा जाती है! पुष्पक विमान का प्रसंग भी प्रेमचंद नहीं छोड़ पाये। रामचंद्र जब अयोध्या वापस करने का निर्णय लिया तो थल-मार्ग से चलने में महीनों लगने की बात की। तब विभीषण ने बताया कि उसके भाई रावण ने अपने लिए पुष्पक विमान बनवाया था जिससे केवल दो-तीन दिनों में आप अयोध्या पहुँच जाएँगे। क्योंकि वह एक दिन में हजार मील चलता है। प्रेमचंद पुष्पक विमान का बखान करते हुए लिखते हैं, “उसी दिन पुष्पक-विमान आ गया। विचित्र और आश्चर्यजनक चीज थी। कल घुमाते ही हवा में उठकर उड़ने लगती थी। बैठने की जगह अलग, सोने की जगह अलग, हीरे-जवाहरात जड़े हुए। ऐसा मालूम होता था कि कोई उड़ने वाला महल है।”14 विभीषण राम को बताते हैं, “बड़े आराम की चीज़ है। दस-बारह आदमी आराम से बैठ सकते हैं।”15 विमान जब अयोध्या में उतरा तो “नीचे के आदमियों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई बड़ा पक्षी पर जोड़े उतर रहा है। कभी ऐसा विमान उनकी दृष्टि के सामने न आया था।”16 इसके अतिरिक्त रामचर्चा में राम के राज्यभिषेक के समय उन्हें तोपों की सलामी दिलाई गई है, जो कि ऐतिहासिक रूप से औचित्य का उल्लंघन है। उस समय बारूद और तोप प्रचलन में न थे।
प्रेमचंद राम कथा को धार्मिकता, ईश्वरता, अतिप्राकृतिकता और चमत्कार से बचाकर उसे आधुनिक चित्त और संस्कारों से संपन्न पीढ़ी के लिए लिखना चाहते थे। इसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है। पर वे रामकथा से चमत्कारों और तर्केतर तत्वों को पूरी तरह नहीं निकाल सके।
संदर्भ-सूची
1. Many Ramayanas : The Diversity of a Narrative Tradition is South Asia, Edited by Paula Richman, Oxford University Press, 1992, New Delhi.
2. प्रेमचंद रचनावली-9, जनवाणी प्रकाशन, भूमिका एवं मार्गदर्शन- रामविलास शर्मा, दिल्ली, 2013, पृ 345।
3. वही, पृ 338।
4. प्रेमचंद रचनावली-7, पृ 127।
5. वही, पृ 126।
6. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 144।
7. प्रेमचंद रचनावली-9, पृ 449।
8. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 144।
9. प्रेमचंद रचनावली-9, पृ 449।
10. प्रेमचंद रचनावली-9, पृ 449।
11. प्रेमचंद रचनावली-7, पृ 127
12. https://indianexpress.com/article/opinion/columns/jawaharlal-nehru-birthday-rational-spiritualist-congress-6118378/
13. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 63।
14. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 130।
15. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 130।
16. प्रेमचंद रचनावली-18, पृ 132।
आनंद पाण्डेय
© Anand Pandey
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