चरित्रांकन और नाट्यतत्व
(कुछ काट-छाँट के साथ भावानुवाद)
नाटक का तृतीय अंक, द्वितीय दृश्य। दरिद्र नायक चारुदत्त के घर में सेंध लगाकर शर्विलक धरोहर के तौर पर रखे नायिका वसंतसेना के आभूषणों की चोरी करता है। अचानक चारुदत्त की नौकरानी रदनिका से सामना हो जाने पर (स्त्री होने के कारण) उस पर प्रहार किए बिना, आभूषणों के साथ घर से बाहर निकल जाता है। तदुपरांत...
रदनिका—अरे-अरे, हमारे घर में तो सेंध लगाकर चोर बाहर जा रहा है। चलकर मैत्रेय (विदूषक) को जगाती हूँ। (सोए हुए विदूषक के पास जाकर) आर्य मैत्रेय, उठिए-उठिए, घर में सेंध लगाकर चोर भाग गया।
विदूषक—(उठकर) क्या कहा रे दासी-पुत्री, चोर काटकर सेंध भाग गई ?
रदनिका—बस भी कीजिए आर्य, ठिठोली छोड़िए। (सेंध दिखाकर) आप इसे नहीं देख रहे ?
विदूषक—अरे दासी-पुत्री, क्या कहती है ! यह तो दूसरा दरवाज़ा ही खोल दिया...अरे मित्र चारुदत्त, उठो-उठो, हमारे घर में सेंध लगाकर चोर भाग गया।
चारुदत्त (जागकर)—क्यों परिहास करते हो ?
विदूषक—परिहास नहीं मित्र, देखो तो सही।
चारुदत्त—किधर?
विदूषक—इधर, इधर।
चारुदत्त—(सेंध को देखकर) वाह, कितनी दर्शनीय सेंध लगाई है--ईंटें खिसकाकर ऊपर सँकरी और बीच में विस्तृत ! अधम चोर के घुसने से इस विशाल भवन का तो जैसे हृदय ही फट गया है।
विदूषक—निश्चय ही चोर कोई बाहरी आदमी होगा या अभी चोरी सीख रहा होगा। अन्यथा उज्जयिनी में ऐसा कौन है जो इस घर की दरिद्रता को नहीं जानता।
चारुदत्त—लगता है, अनजाने ही किसी विदेशी या सेंध लगाने का अभ्यास कर रहे चोर ने यह सेंध लगाई है। उसे पता ही नहीं कि दरिद्रता के कारण मैं तो निश्चिंत सोता हूँ। घर की विशालता के भ्रम में बेचारे ने इतनी मेहनत की। और अंदर कुछ न पाकर निराश लौट गया। अब यह अभागा अपने मित्रों से क्या कहेगा ! कि एक सेठ के घर में सेंध लगाकर भी मुझे कुछ नहीं मिला !
विदूषक—अरे, तुम तो उस नीच चोर के बारे में ही चिंता करने लगे। उसने सोचा होगा, इतना बड़ा घर है, इसमें मणि-मंजूषा या सोने के आभूषण ज़रूर मिलेंगे। (कुछ याद कर, दु:ख के साथ, स्वगत) अरे वह आभूषण-मंजूषा कहाँ है ? (फिर स्वप्न की बात याद कर प्रकट में) मित्र, तुम तो मैत्रेय को हमेशा मूर्ख और अज्ञ ही समझते हो। अब यही देखो, मैंने वसन्तसेना के आभूषणों की मंजूषा तुम्हारे हाथ में देकर कितनी होशियारी की, अन्यथा उस नीच चोर ने तो आज उन्हें चुरा ही लिया होता।
चारुदत्त--परिहास मत करो।
विदूषक—मैं मूर्ख ज़रूर हूँ किंतु इतना भी नहीं कि परिहास करने के स्थान और समय से अनभिज्ञ होऊँ।
चारुदत्त—तुमने कब दिया आभूषण मुझे ?
विदूषक—जब मैंने कहा था, आपकी उंगलियाँ तो बहुत ठंडी हैं।
चारुदत्त—हो सकता है, तुमने दे ही दिया हो। (चारों ओर देखकर और ख़ुश होकर) भाग्य से एक अच्छी बात हुई।
विदूषक—तो क्या आभूषण उसने नहीं चुराया ?
चारुदत्त--चुरा लिया।
विदूषक—तो अच्छी बात क्या हुई ?
चारुदत्त—यही कि चोर कृतार्थ होकर लौटा।
विदूषक—किंतु वह तो धरोहर थी।
चारुदत्त—क्या कहा, धरोहर थी ? (मानसिक आघात से संज्ञाशून्य हो जाता है।)
विदूषक—आप धैर्य रखें। धरोहर को चोर ने चुरा लिया तो हम क्या कर सकते हैं ?
चारुदत्त—(कुछ धैर्य धारण कर) मित्र, सच्ची होने पर भी इस बात पर कौन विश्वास करेगा ? लोग तो मुझको ही नीच समझेंगे। इस संसार में प्रभावहीन (प्रतिकार करने में असमर्थ) दरिद्रता ही शंका का कारण होती है। दु:ख ही दु:ख है। दुर्भाग्य ने पहले तो मेरा वैभव छीन लिया, अब इस नृशंस ने मेरा चरित्र भी दूषित कर दिया।
विदूषक—मैं ही बहाना बना दूँगा कि किसने दिया, किसने लिया ! देने का साक्षी और कौन है?
चारुदत्त—मैं अब झूठ भी बोलूँगा ! नहीं मित्र, मैं भिक्षा माँगकर वसन्तसेना की धरोहर लौटा दूँगा किंतु झूठ बोलकर अपने चरित्र की हत्या नहीं करूँगा।
रदनिका—चलकर आर्या धूता (चारुदत्त की पत्नी) को तो बता दूँ।
(सभी मंच से निकल जाते है।)
तीसरा दृश्य
चारुदत्त-वधू (धूता) अपनी चेटी (नौकरानी) के साथ प्रवेश करती है।
वधू—(घबराहट के साथ) सच है कि आर्य मैत्रेय के साथ स्वामी सकुशल हैं?
चेटी—यह तो सच है मालकिन, किंतु चोर ने उस गणिका के आभूषणों को चुरा लिया।
(वधू भी मानसिक आघात से संज्ञाशून्य हो जाती है।)
चेटी—आर्या धूता, धैर्य धारण करें।
वधू— (साँस लेकर) क्या कह रही हो सेविके ! आर्यपुत्र (पति) के शरीर पर कोई चोट नहीं लगी? किंतु चरित्र पर तो लगी। इससे तो अच्छा होता शरीर पर ही थोड़ी-बहुत चोट लग जाती। अब तो उज्जयिनी के लोग यही कहेंगे कि निर्धनता के कारण आर्यपुत्र ने ऐसा किया। (ऊपर की ओर देखते हुए, लंबी साँस लेकर) हे ईश्वर, हे विधाता, कमल के पत्ते पर गिरी हुई चंचल जलबिंदु की तरह दरिद्र लोगों के भाग्य से खेलते हो। (कुछ सोचकर) मुझे मायके से एक रत्नहार मिला है किंतु आर्यपुत्र अतिशय स्वाभिमान के कारण उसे ग्रहण नहीं करेंगे...सेविके, तो ऐसा करो, जरा आर्य मैत्रेय को बुला लाओ।
मैत्रेय (विदूषक) का प्रवेश।
विदूषक—(धूता के पास जाकर) आपका कल्याण हो।
वधू—आर्य, प्रणाम करती हूँ। जरा आप पूरब की ओर मुख करें।
विदूषक—लीजिए आर्या, मैं पूर्वाभिमुख हो गया।
वधू—आर्य, इसे (रत्नमाला को) स्वीकार करें।
विदूषक—यह क्या है ?
वधू—मैंने रत्नषष्ठी व्रत किया है। इस व्रत में सामर्थ्य के अनुरूप ब्राह्मण को दान दिया जाता है। अस्तु, इस रत्नमालिका को आप स्वीकार करें।
विदूषक—(स्वीकार कर) आपका कल्याण हो। मैं चलूँ, मित्र चारुदत्त को इसकी सूचना दे दूँ।
वधू—आर्य मैत्रेय, मुझे लज्जित न करें। (कहकर निकल जाती है।)
विदूषक—(विस्मय के साथ) धन्य है इनकी उदारता !
चारुदत्त—मैत्रेय बहुत विलम्ब कर रहा है। अतिशय विकलता में कहीं आत्महत्या जैसा अनुचित क़दम न उठा ले...मैत्रेय ! ओ मैत्रेय !!
विदूषक--(पास आकर) आ गया....यह लो (रत्नमाला दिखाता है।)
चारुदत्त—यह क्या है ?
विदूषक—आपकी जैसी सुघड़ पत्नी पाने का सुफल।
चारुदत्त—तो क्या ब्राह्मणी मुझ पर कृपा कर रही है ? कितना दु:खद है ! इस समय मैं इतना दरिद्र हो गया हूँ!
अपने दुर्भाग्य से दरिद्र हुआ, पत्नी के धन पर पलनेवाला बन गया हूँ। धन के कारण पुरुष कभी स्त्री बन जाता है और धन के ही कारण कभी स्त्री पुरुष बन जाती है।
या, मैं दरिद्र कहाँ हूँ ?
वैभव के अनुरूप कर्तव्य का निर्वाह करनेवाली पत्नी, सुख-दु:ख में साथ देनेवाला तुम जैसा मित्र, और सच्चाई पर दृढ़ रहने का मेरा संकल्प। भला किस दरिद्र को उपलब्ध है ! मेरे पास तो ये सब है।
मित्र, ऐसा करो, इस रत्नहार को लेकर वसंतसेना के पास चले जाओ। मेरी ओर से कह देना--तुम्हारी धरोहर स्वर्णाभूषणों को विश्वास में अपना समझकर मैं जुए में हार गया। उसके बदले यह रत्नहार रख लीजिए।
विदूषक—नहीं-नहीं, ऐसा मत करो। जिसे तुमने खाया नहीं, न किसी तरह उपयोग किया, जिसे चोर ने चुरा लिया, और जो इस रत्नहार से कम मूल्य का है, उसके बदले चारों समुद्रों से निकले रत्नों की सारभूत यह रत्नावली देने लायक नहीं है।
चारुदत्त—नहीं मित्र। ऐसा नहीं है।
जिस अखंड विश्वास के साथ वसंतसेना ने हमारे पास धरोहर रखी थी, उसी विश्वास का मूल्य दिया जा रहा है।
इसलिए हे मित्र, मैं अपने शरीर का स्पर्श कर शपथपूर्वक तुम्हें सूचित करता हूँ कि इसे बिना दिए वापस मत आना।
अरे वर्द्धमानक (नौकर का नाम), इन बिखरी हुई ईंटों से शीघ्र ही सेंध को ठीक से भर दो। जनापवाद से जो गम्भीर दोष फैलता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
मित्र मैत्रेय, मैंने जो कहा है, तुम भी निडर होकर जस का तस वसंतसेना से कह देना।
विदूषक—हाय, कोई दरिद्र भी निडर होकर कुछ कह सकता है !
चारुदत्त—मैं दरिद्र नहीं हूँ, मित्र। (उपरोक्त दुहराता है) ‘वैभव के अनुरूप कर्तव्य का निर्वाह करनेवाली पत्नी, सुख-दु:ख में साथ देनेवाला तुम जैसा मित्र, और सच्चाई पर दृढ़ रहने का मेरा संकल्प। भला किस दरिद्र को उपलब्ध है ! मेरे पास तो ये सब है।‘
सभी मंच से निकल जाते हैं। तृतीय अंक का पटाक्षेप।
(क्रमशः)
मृच्छकटिकम (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/1.html
कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi)
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