Wednesday, 31 August 2022

आज अमृता प्रीतम का जन्मदिन है / विजय शंकर सिंह

अमृता प्रीतम (1919-2005) पंजाबी की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब के गुजराँवाला, जो अब पाकिस्तान मे है, में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था। 

अमृता प्रीतम का बचपन लाहौर में बीता और उनकी शिक्षा भी वहीं हुई। उन्होंने किशोरावस्था से ही, लिखना शुरू कर दिया था। 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, 1988 में बल्गारिया वैरोव अंतराष्ट्रीय पुरस्कार; और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार माने जाने वाले, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अपनी पंजाबी कविता 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ' के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।

उनकी एक कविता पढ़ें, 
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वह कहता था,वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था ‘कहो’
एक में लिखा था ' सुनो '

अब यह नियति थी या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना' नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, :ज़हर पियो'
वह मीरा हो गई।

ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
वह अहिल्या हो गई।

प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
वह सीता हो गई।

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
वह सती हो गई।

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द, सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ कभी नहीं लगी वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘कहो'' ।
~ अमृता प्रीतम

(विजय शंकर सिंह)




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