नायिका वसंतसेना का चरित्रांकन: वसंतसेना-चारुदत्त प्रेम-प्रसंग—II
द्वितीय अंक, तृतीय दृश्य।
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मंच पर घबराए हुए संवाहक (देह की मालिश करनेवाले) का प्रवेश। संवाहक (फ़िलहाल) एक जुआघर में दस स्वर्णमुद्राएँ हारकर भागा हुआ है। जुआघर का मालिक माथुर और उसका एक सहायक संवाहक का पीछा कर रहे हैं। वसंतसेना का घर देखकर संवाहक शरण के लिए उसमें घुस जाता है। सामने वसंतसेना को देखकर, डरते हुए:
संवाहक—आर्ये, मैं आपका शरणार्थी हूँ।
वसंतसेना—शरणागत निर्भय हो.....सेविका, द्वार बंद कर लो।
(सेविका वैसा ही करती है)
वसंतसेना—अब बताओ आगंतुक, तुम्हें डर किससे है ?
संवाहक—आर्ये, जिसका ऋणी हूँ।
वसंतसेना—सेविका, द्वार की सिटकिनी भी लगा लो।
(सेविका वैसा ही करती है)
तब वसंतसेना, मदनिका को आगंतुक से पूछकर सारी बातें जानने का इशारा करती है। उसकी पूछताछ से ज्ञात होता है कि संवाहक पाटलिपुत्र का नागरिक है। एक सद्गृहस्थ का पुत्र है। भाग्यचक्र से संवाहक की (देह मालिश करने की) ‘कला’ सीखकर उसी से जीविका अर्जित करने लगा। अपने घर आए पर्यटकों से उज्जयिनी की प्रशंसा सुनकर, इस ‘अपूर्व देश’ को देखने की उत्कंठा में इधर आ गया। आते ही एक ‘श्रेष्ठ व्यक्ति’ की सेवा में लग गया। उस श्रेष्ठ व्यक्ति की प्रशंसा और नाटक का सम्बंधित अंश वसंतसेना-चारुदत्त प्रेम-प्रसंग तथा दोनों के चरित्रांकन पर सुष्ठ रोशनी डालता है। उसका भावानुवाद:
संवाहक--वे एक प्रियदर्शन, मृदुभाषी, गुप्त दान देनेवाले और अपने प्रति किए गए अपकारों को भूल जानेवाले व्यक्ति हैं। अधिक क्या कहें, अतिशय उदारता के कारण वे स्वयं को अन्य की वस्तु समझते हैं।
सेविका—ऐसे कौन से महानुभाव हैं जो आर्या (वसंतसेना) के चहेते पुरुष के गुणों को चुराकर उज्जयिनी को अलंकृत कर रहे हैं ?
वसंतसेना—वाह सेविके, वाह ! मैं भी मन में ठीक यही सोच रही थी।
सेविका—(संवाहक से) फिर क्या हुआ?
संवाहक—दान देते-देते वे....
वसंतसेना—वैभवशून्य हो गए?
संवाहक—आर्ये, बिना कहे आप कैसे जान गईं?
वसंतसेना—इसमें जानना क्या है! गुण और वैभव एक साथ विरले ही मिलते हैं। अपेय जलवाले तालाब में ही पानी अधिक होता है।
सेविका--आर्य, उनका नाम क्या है?
संवाहक—आर्ये, धरती के उस चंद्रमा का नाम कौन नहीं जानता? वे सेठों के निवास-खंड में रहते हैं। उन प्रशंसनीय पुरुष का नाम है आर्य चारुदत्त।
वसंतसेना—(ख़ुशी के मारे अपने आसन से उतर जाती है) आर्य, यह आपका ही घर है...अरी सेविके, इन्हें आसन दो। पंखा झलो। ये थकावट से चूर लगते हैं।
संवाहक—(स्वगत) आर्य चारुदत्त का नाम लेने भर से मेरा इतना सम्मान! आर्य चारुदत्त, आप धन्य हैं। इस धरती पर आप ही अकेले हैं जो सचमुच जीवन जी रहे हैं, शेष तो केवल साँस ले रहे हैं। (प्रकट) आर्ये, आप अपने आसन पर तो विराजें।........
अंतत: वसंतसेना अपने हाथ में पहना हुआ सोने का कंगन निकालकर, सेविका की मारफ़त, बाहर खड़े माथुर को भेजकर, संवाहक को ऋणमुक्त करा देती है। और इस घटना के प्रभाव से संवाहक बौद्ध भिक्षु बनने का निर्णय ले लेता है। वहाँ से जाते समय उसने वसंतसेना से कहा, आप इतना ही याद रखिएगा—‘जुआड़ी संवाहक बौद्ध-भिक्षु बन गया।‘ [इस वाक्य का गहन नाट्यार्थ है—बाद में वही भिक्षु वसंतसेना का प्राणरक्षक बनता है।]
द्वितीय अंक, चतुर्थ दृश्य
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संवाहक के निकल जाने के बाद बिना पर्दा हटाए, वसंतसेना के उद्धत प्रकृति के भृत्य कर्णपूरक का प्रवेश।
कर्णपूरक—कहाँ हैं आर्या वसंतसेना, कहाँ हैं?
सेविका—अरे दुष्ट, इतने उद्वेग में क्यों हो? आर्या सामने ही तो बैठी हैं, देख नहीं रहे?
कर्णपूरक--(सामने देखकर) आर्ये प्रणाम करता हूँ।
वसंतसेना—अरे कर्णपूरक, तुम तो आज बहुत उत्साह में दिख रहे हो। बात क्या है?
कर्णपूरक—(आश्चर्य के साथ) आर्ये आप वंचित रह गईं। आज आपने मेरा पराक्रम जो नहीं देखा।
वसंतसेना—हुआ क्या?....
हुआ यह था कि वसंतसेना का खंडमोचक नाम का एक बीगडैल हाथी, यथा नाम: तथा गुण: को चरितार्थ करता, खूँटा तोड़कर, महावत को मारकर, उपद्रव मचाते हुए राजपथ पर आ गया। उसे देखकर लोगों में अफरातफरी मच गई। हाथी ने एक सन्यासी को धर दबोचा। उसका दंड और कमंडल ज़मीन पर आ गिरे। फिर हाथी ने उसे अपने दाँतों के बीच दबा लिया। उसे इस भयानक स्थिति में देखकर लोग चिल्लाने लगे।
इतना सुनते ही वसंतसेना घबराकर बोली—यह तो अनर्थ हो गया।
कर्णपूरक—आप व्यर्थ में घबरा रही हैं। पहले पूरी बात तो सुन लीजिए। टूटी-फूटी, अस्त-व्यस्त जंजीरों से अपने को लपेटे हुए, उस बेचारे सन्यासी को अपने दाँतों के बीच उठाए हुए, उन्मत्त हाथी को मैंने देख लिया। देखते ही पहले तो, आपके टुकड़ों पर पले इस दास ने, सन्यासी को बार-बार ढाढ़स बँधाया। फिर दौड़कर बाज़ार से एक लौहदंड ले आया। बाईं ओर पैतरा बदलकर आपके इस सेवक ने दुष्ट हाथी को ललकार दिया।
वसंतसेना—फिर? उसके बाद?
कर्णपूरक—फिर क्या, विंध्यपर्वत की तरह विशालकाय उस हाथी पर क्रुद्ध होकर मैं पिल पड़ा। और लौहदंड से पीट-पीटकर उसके दाँतों के बीच फँसे उस सन्यासी को छुड़ा लिया।
वसंतसेना—बहुत अच्छा किया तुमने। उसके बाद ?
कर्णपूरक—भारी बोझ से लदी नाव की तरह सारी उज्जयिनी ‘वाह रे कर्णपूरक, वाह’ कहती हुई मेरे पास इकट्ठी हो गई। [अब वसंतसेना के मन की बात] उनमें से एक ने, आभूषणों से शून्य अपने एक-एक अंग को छूकर आकाश की ओर देखा और लम्बी साँस लेकर अपना यह उत्तरीय मेरे ऊपर फेंक दिया।
वसंतसेना—कर्णपूरक, ज़रा देखो तो, क्या इस उत्तरीय से चमेली की सुगंध आ रही है?
कर्णपूरक—आर्ये, मेरा शरीर तो हाथी के मदजल से भीगा हुआ है। इसलिए चमेली की सुगंध ठीक से समझ में नहीं आ रही।
वसंतसेना—तो इस पर लिखा नाम ही पढ़ो।
कर्णपूरक—नाम तो आर्या ही पढें। (उत्तरीय वसंतसेना को दे देता है।)
वसंतसेना—आर्य चारुदत्त का ही नाम तो है। (पढ़कर राग से अभिभूत उसे ओढ़ लेती है।)
सेविका—कर्णपूरक, यह उत्तरीय तो आर्या की देह पर ही शोभायमान हो रहा है।
कर्णपूरक—हाँ, ठीक कहती हो। आर्या की देह पर अच्छा लग रहा है।
वसंतसेना—कर्णपूरक, तो यह रहा तुम्हारा इनाम। (उसे एक आभूषण देती है।)
कर्णपूरक—(आभूषण को माथे से लगाकर वसंतसेना को प्रणाम करता है।) अब तो यह उत्तरीय आर्या पर बहुत ही सुशोभित हो रहा है।
वसंतसेना—कर्णपूरक, यह बताओ, इस समय आर्य चारुदत्त होंगे कहाँ?
कर्णपूरक—वे तो इसी रास्ते से घर की ओर चले थे।
वसंतसेना—सेविका, आओ, अटारी पर चढ़कर हम लोग आर्य चारुदत्त को देखें।
सभी निकल जाते हैं। द्वितीय अंक का पटाक्षेप।
[विषय पर अलग से कुछ कहने को रह जाता है?]
(क्रमश:)
कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi)
मृच्छकटिकम् (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/3.html
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