Monday, 15 August 2022

आजादी के बाद भी आजादी के लिए लड़ते रहे, सरहदी गांधी / विजय शंकर सिंह

"आपने हमें भेड़ियों के आगे फेंक दिया।"
बंटवारे की खबर मिलने के बाद, यह गंभीर और कड़ी प्रतिक्रिया, थी सरहदी गांधी, खान साहब अब्दुल गफ्फार खान, यानी बादशाह खान की। यह वाक्य उन्होंने किसी और से नहीं, बल्कि महात्मा गांधी से कहा था। बादशाह खान जिन्हे वाचा खान भी कहते थे, भारत विभाजन के मांग करने वाले मुस्लिम लीग और एमए जिन्ना के विरोधी थे। वे पश्तून थे, और फ्रंटियर में, इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक बड़ी ताकत थे। बाचा खान, महात्मा गांधी के निकट सहयोगी थे, जिन्होंने, गांधी जी के साथ कंधे से कंधा मिला कर आजादी के लिए संघर्ष किया। बादशाह खान ने भारत के विभाजन की मुस्लिम लीग की मांग और साजिश का कड़ा विरोध किया था, पर विभाजन की योजना कांग्रेस ने स्वीकार कर ली, तब वे, कांग्रेस नेतृत्व से निराश और खिन्न हो गए, और ऊपर लिखी इनकी प्रतिक्रिया, उसी खिन्नता का परिणाम थी। 

बादशाह खान ने अंग्रेजों का दमन देखा था, और इन सबके पहले, सदियों से चले आ रहे, हिंसा और प्रतिशोध की आदिम कबीलाई पख्तून संस्कृति, ने बादशाह खान को, पश्तून समाज के उत्थान के लिए, शिक्षा के माध्यम से, पश्तून, पुरुषों और महिलाओं को जागरूक करने के लिए प्रेरित किया। 20 साल की उम्र में ही, बादशाह खान ने, फ्रंटियर के एक गांव, उस्मानजई में अपना पहला स्कूल खोला। उन्हे शिक्षा के क्षेत्र में, धीरे धीरे ही सही, सफलता मिलने भी लगी थी। उनकी ख्याति बढ़ी, और उन्हें जल्द ही, तत्समय के, प्रगतिशील विचारधारा वाले सुधारकों के एक बड़े समूह में आमंत्रित किया गया। उन्होंने महिला अधिकारों के लिए भी काम किया, और, 1915 और 1918 के बीच, उन्होंने खैबर-पख्तूनख्वा के जिलों के सभी हिस्सों में से, 500 गांवों का दौरा किया। उनके इस जुनूनी  गतिविधि के कारण ही, पश्तून समाज ने, उन्हें बादशाह (पश्तो में बाचा) खान (कबीलों के प्रमुखों का सरदार) का नाम दिया और पश्तूनों के एक सर्वमान्य नेता के रूप में वे, जाने, जाने लगे।

गफ्फार खान ने 1910 में दारुल-उलूम की स्थापना, उस्मानजई और मर्दन में की ताकि ग्रामीणों को, जरूरी प्राथमिक शिक्षा दी जा सके।  ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोहों की बार-बार विफलता को देखने के बाद, बादशाह खान ने फैसला किया कि, सामाजिक सक्रियता और सुधार, पश्तूनों के लिए अधिक लाभकारी होंगे।  इसलिए 1921 में उन्होंने पख्तूनों को फिर से निरक्षरता और सामाजिक बुराइयों से छुटकारा दिलाने के लिए 'सोसाइटी फॉर द रिफॉर्मेशन ऑफ द अफगान्स' की स्थापना की।  उन्होंने एक संयुक्त, स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण के मुख्य उद्देश्य के साथ स्पष्ट राष्ट्रवादी विचारधारा का अनुसरण किया।  इसके लिए, उन्होंने नवंबर 1929 में खुदाई खिदमतगार, (ईश्वर के सेवक) आंदोलन की शुरुआत की। गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के प्रति उनके लगाव को देखते हुए ही, उन्हे,  'फ्रंटियर गांधी' या सरहदी गांधी कहा जाने लगा था।

उसने अपने अनुयायियों से कहा, “मैं तुम्हें ऐसा हथियार देने जा रहा हूं कि पृथ्वी की कोई भी ताक़त उसके सामने टिक न सकेगी।  और वह हथियार है सब्र और नेकी का।”  खुदाई खितमतगारों ने एक लाख, स्वयंसेवकों की भर्ती की और हड़तालों तथा अहिंसक विरोध के माध्यम से अपना संघर्ष शुरू किया। पश्तून या पठान का अहिंसक होना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। फ्रंटियर, मूलतः एक कबीलाई इलाका है। यहां कोई केंद्रीकृत शासन व्यवस्था रही ही नहीं। चाहे भारत पर किसी का भी राज रहा हो, यह इलाका, उनके नियम कायदों के आधीन कभी रहा भी नहीं। ऐसे समाज मे अहिंसा की बात करना, उनका अहिंसक और सत्याग्रह की शैली में प्रतिरोध के लिये, मानसिक अनुकूलन करना, यह एक चुनौती थी और बादशाह खान ने न केवल, इस चुनौती का मुकाबला किया बल्कि उस लड़ाकू पख्तून समाज को गांधी के सिद्धांतों पर ला भी दिया। 

23 अप्रैल, 1930 को पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में एक  शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुआ। बड़ी संख्या में पख्तून उस प्रदर्शन में शामिल थे। इंडियन नेशनल कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का संकल्प ले लिया था। लक्ष्य निर्धारित हो गया था। अब उस लक्ष्य को पाना था। गांधी का नमक सत्याग्रह सम्पन्न हो चुका था। देश मे एक नई चेतना आ चुकी थी। उसी प्रदर्शन के दौरान, ब्रिटिश सेना ने लगभग 250 निहत्थे प्रदर्शनकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी। लेकिन, उसी सैन्य टुकड़ी में, गढ़वाल राइफल्स की दो प्लाटून भी थी। जिनका कमांड, चंद्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे। चंद्र सिंह गढ़वाली और उनकी प्लाटून ने अहिंसक भीड़ पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। यह एक बड़ी घटना थी। सेना की कोई टुकड़ी इस प्रकार हुक्म उदूली कर के, सुराजियों के साथ खड़ी हो जायेगी, यह ब्रिटिश राज के गुमान मे भी, तब तक नहीं आया था। बाद में चंद्र सिंह गढ़वाली का कोर्ट मार्शल हुआ और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी। 

बादशाह खान के खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) संगठन ने, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर, आंदोलन किया, और इस प्रकार बादशाह खान कांग्रेस के एक बड़े और सम्मानित नेता के रूप में, उभरे। ऐसे कई अवसर आये, जब कांग्रेस के कई बड़े नेता, गांधी जी से, उनकी नीति पर असहमत होते थे, तब भी बादशाह खान, गांधी के निकटवर्ती सहयोगी बने रहे। 1931 में कांग्रेस ने उनसे, पार्टी के अध्यक्ष पद ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन बादशाह खान ने, यह कहते हुए, यह पद लेने से इनकार कर दिया, और कहा, "मैं एक साधारण सैनिक और खुदाई खिदमतगार हूं, और मैं केवल सेवा करना चाहता हूं।" पाकिस्तान, बनने का जब अभियान मुस्लिम लीग और जिन्ना द्वारा चलाया जा रहा था, तब बादशाह खान के नेतृत्व में पख्तून, इस्लाम के नाम पर एक अलग मुल्क के प्रस्ताव के खिलाफ थे, और इस मुद्दे पर हुए,  एक अत्यधिक विवादास्पद जनमत संग्रह का, बादशाह खान और उनके अनुयायियों बहिष्कार किया था। तब तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करने से इनकार करते हुए विभाजन को, कुछ समय के लिए ही, टाल दिया था।

लेकिन अंततः पाकिस्तान बना और खैबर पख्तूनख्वा, यानी बादशाह ख़ान का इलाक़ा, पाकिस्तान में आ गया। यहां यह बात भी कहना समीचीन होगा कि, फ्रंटियर में मुस्लिम लीग, अपनी पैठ, बहुत अधिक नहीं बना पाई थी। इसका कारण, बादशाह खान और उनके संगठन का प्रभाव था, और खान साहब, शुरू से ही पाकिस्तान की अवधारणा के खिलाफ थे। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी वे इस हक़ीक़त को स्वीकार नहीं कर पाए थे। लेकिन, अंत में बादशाह खान ने, पाकिस्तान के नए राष्ट्र के प्रति निष्ठा की शपथ, 23 फरवरी, 1948 को पाकिस्तान संविधान सभा के पहले सत्र में ले ली।  उन्होंने सरकार को, अपना पूर्ण समर्थन देने का वादा किया और जिन्ना ने उनके साथ, सुलह करने का प्रयास किया। जिन्ना और गफ्फार खान के बीच एक बैठक हुई लेकिन, बात बनी नहीं, और दोनों के संबंध तब बिगड़ गए, जब फ्रंटियर के तत्कालीन मुख्यमंत्री, खान अब्दुल कय्यूम खान ने, जिन्ना को चेतावनी दी कि, बादशाह खान उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं। यह बिल्कुल झूठ था। खान अब्दुल कय्यूम खान, नहीं चाहते थे कि, बादशाह खान, पाकिस्तान की मुख्य धारा में आएं। क्योंकि उन्हें डर था कि, लोकप्रियता और हैसियत में, उनसे कहीं ज्यादा बड़े बादशाह खान, उन्हें अपदस्थ कर देंगे। पर बादशाह खान को, न तो पद का लालच था और न ही वे पाकिस्तान की सत्ता की राजनीति में कोई भूमिका निभाना चाहते थे। सच कहें तो, वे यह तल्ख हक़ीक़त स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि, भारत अब बंट गया है, और अब वे एक नए इस्लामी मुल्क, पाकिस्तान के नागरिक बन चुके हैं, और भारत उनके लिये अब विदेश है। 

आज़ादी के आंदोलन के दौरान, बादशाह खान कई बार ब्रिटिश जेल में भेजे गए, पर वे आज़ादी मिलने के बाद भी, पाकिस्तान में आज़ादी के लिए लड़ते रहे और कई बार पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में बंद किया। बादशाह खान को, वर्ष 1948 से 1954 तक, बिना किसी आरोप के घर में नजरबंद रखा गया। 1954 में, वे रिहा हुए, पर 1958 में उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया, और वह 1964 तक जेल में रहे। यह समय जनरल अय्यूब खान का शासन का था। साल, 1964 में उन्हें पाकिस्तान सरकार ने जेल से रिहा किया, पर साल, 1973 में, जेडए भुट्टो की सरकार द्वारा फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस प्रकार आज़ाद होने के पच्चीस साल पूरे होने तक तो, वे, बारह साल, पाकिस्तान सरकार के जेल में रह चुके थे। विडंबना ही इसे कहा जायेगा कि, इतना समय तो उन्होंने ब्रिटिश राज की जेलों में भी नहीं बिताया था। 

पाकिस्तान में हुई अपनी गिरफ्तारी और जेल की सज़ा पर जब उनसे पूछा गया तो, उन्होंने जो कहा, वह बेहद मार्मिक है। उन्होंने कहा, 
“अंग्रेजों के दिनों में मुझे कई बार जेल जाना पड़ा।  हालाँकि हम उनके साथ आमने-सामने थे, फिर भी उनका व्यवहार कुछ हद तक सहनशील और विनम्र था।  लेकिन हमारे इस इस्लामिक राज्य में मेरे साथ जो व्यवहार किया गया, वह ऐसा था कि मैं आपको इसका उल्लेख भी नहीं करना चाहूंगा। ”
यह भी एक दुःखद तथ्य है कि, अपने देश की आज़ादी के लिये संघर्ष करने वाले, बादशाह खान, की मृत्यु भी, एक आज़ाद मुल्क पाकिस्तान में, नज़रबन्दी की हालत में हुई। उनका देहांत साल 1988 में, जब हुआ तो वे हाउस अरेस्ट थे। आज़ादी के लिए लड़ने वाला, ऊंचे क़द का यह पठान, अपने ही आज़ाद मुल्क में, आज़ादी से वंचित रहते हुए, दिवंगत हुआ।  

साल 1969 में, बादशाह खान, तत्कालीन प्रधान मंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी के निमंत्रण पर, अपने इलाज़ के लिए वह भारत आए थे। हवाई अड्डे पर उनके स्वागत में, इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण उपस्थित थे। बादशाह ख़ान हवाई जहाज़ से बाहर आए तो उनके हाथ में एक गठरी थी जिसमें उनका कुर्ता पजामा था। इंदिर गांधी ने उनकी गठरी की तरफ हाथ बढ़ाकर कहा - "इसे हमें दीजिए, हम ले चलते हैं"। खान साहब, बड़े ठंढे मन से बोले "यही तो बचा है, इसे भी ले लोगी?" जेपी और इंदिरा गांधी, दोनों ने अपना सिर झुका लिया। जयप्रकाश नारायण अपने को संभाल नहीं पाए, उनकी आँख से आंसू गिर रहे थे। बंटवारे का पूरा दर्द ख़ान साहब की इस बात से बाहर आ गया था। वे, बटवारे से बेहद दुखी थे, और वे भारत के साथ रहना चाहते थे, लेकिन, खैबर पख्तुनख्वा को तो, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, पाकिस्तान के हिस्से में जाना ही था, और वह वहां, गया भी। इसलिए उन्हें भी वहीं जाना पड़ा।

वर्ष,1987 में, बादशाह खान को, भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। साल, 1988 में पेशावर में,  नजरबंदी में मृत्यु होने के बाद, उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में, उनके घर में दफनाया गया। उनके अंतिम संस्कार में दो लाख लोग शामिल हुए, जिनमें अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह भी थे। पाकिस्तान की सरकार से उनका मोहभंग तो, आज़ादी के तुरंत बाद ही हो गया था। जिन्ना को खान साहब पसंद नहीं थे, और बादशाह खान तो जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के खिलाफ, शुरू से ही थे। 

तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी और सोनिया गांधी दिल्ली से पेशावर, उन्हें, श्रद्धांजलि देने गए थे, हालांकि, पाक राष्ट्रपति, जनरल जिया उल-हक ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए, राजीव गांधी की पेशावर यात्रा में अनुमति देने में, शुरू में आनाकानी की थी। लेकिन बाद में उन्होंने राजीव गांधी को पेशावर जाने और बादशाह खान को श्रद्धांजलि देने की अनुमति दे दी। भारत सरकार ने, इस महान स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में पांच दिनों की अवधि के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की थी, जबकि आज़ादी का यह महान सेनानी, अपने ही देश में, जीवन भर देशद्रोही ही समझा गया। 

(विजय शंकर सिंह)

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